रांची: झारखंड एक ऐसा राज्य हैं जहां जब भी छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 यानी सीएनटी और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 यानी एसपीटी में सुधार या बदलाव की बात होती है तो हंगामा खड़ा हो जाता है. सड़क से सदन तक आंदोलन होने लगता है. दोनों एक्ट को अंग्रेजों ने बनाया था. मकसद था आदिवासियों की जमीन की खरीद-बिक्री को संरक्षित करना.
समय के साथ इसमें कई बदलाव हुए. अब ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल यानी टीएसी ने 26 जनवरी 1950 में स्थापित जिला और थाना के आधार पर सीएनटी जमीन की खरीद-बिक्री के प्रस्ताव पर सहमति दे दी है. लिहाजा, सीएनटी के दायरे में आने वाले यह जानना चाह रहे हैं कि अगर इस व्यवस्था को अमली जामा पहनाया जाता है तो उन्हें नफा होगा या नुकसान. सबसे पहले यह समझ लें कि सीएनटी में एसटी के साथ-साथ एससी और बीसी की जमीन को भी संरक्षित किया गया है. लेकिन यह मामला सिर्फ आदिवासी जमीन से जुड़ा है.
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झारखण्ड मंत्रालय परिसर में प्रेस-मीडिया के प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते हुए मुख्यमंत्री श्री @HemantSorenJMM pic.twitter.com/bFbnSDCxN8
— Office of Chief Minister, Jharkhand (@JharkhandCMO) November 16, 2023 " class="align-text-top noRightClick twitterSection" data="
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इस पूरे मसले को बारीकी से समझने के लिए ईटीवी भारत की टीम ने वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मि कात्यायन से बात की. उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से सीएनटी का मतलब समझाते हुए इस फैसले से होने वाले नफा-नुकसान पर अपनी राय दी. उन्होंने बताया कि सीएनटी एक्ट 1908 के मुताबिक पूर्व में जमीन की खरीद बिक्री पर पूरी तरह से रोक थी. लेकिन बाद में सीएनटी में 1938 से थाना स्तर पर आदिवासी की जमीन की खरीद बिक्री का प्रावधान जोड़ा गया. लेकिन इसकी नियमावली ही नहीं बनी. आजादी के बाद संशोधन होना शुरू हुआ. फिर 1947 में धारा 46 को प्रतिस्थापित कर नये तरीके से लाया गया. इसमें भी एसटी जमीन के लिए थाना स्तर का ही प्रावधान था. इसी प्रावधान के तहत अबतक एसटी जमीन की खरीद-बिक्री आपस में हो रही थी.
लेकिन समय के साथ झारखंड में जिले और थानों की संख्या बढ़ती चली गयी. 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ. तब एकीकृत बिहार के झारखंड वाले हिस्से में सात जिले थे. रांची, हजारीबाग, पलामू, संतालपरगना, मानभूम, धनबाद और सिंहभूम. तब थानों की संख्या भी कम थी. लेकिन समय के साथ जिला और थानों की संख्या बढ़ती रही. इसकी वजह से जमीन हस्तांतरित करने में दिक्कत आने लगी. इसी को ध्यान में रखकर टीएसी ने प्रस्ताव पर सहमति दी है. यह अच्छी पहल है. लेकिन अधिवक्ता रश्मि कात्यायन का मानना है कि उनके हिसाब से थाना की बाध्यता को भी खत्म कर देना चाहिए. क्योंकि समय के साथ आदिवासी समाज के लोग भी अलग-अलग जगहों पर शिफ्ट हो रहे हैं. ऐसे में अगर कोई रांची में आकर नौकरी कर रहा है या बस गया है तो वह अपने पैतृक गांव दुमका में जमीन क्यों लेना चाहेगा. यहां यह समझना होगा कि जो प्रस्ताव आया है वह सिर्फ एसटी जमीन से जुड़ा है.
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आज झारखण्ड मंत्रालय में आयोजित जनजातीय परामर्शदातृ परिषद (टीएसी) की 26वीं बैठक में शामिल हुआ। बैठक में परिषद के माननीय सदस्यों के साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा हुई। pic.twitter.com/bjXnalcJjt
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">आज झारखण्ड मंत्रालय में आयोजित जनजातीय परामर्शदातृ परिषद (टीएसी) की 26वीं बैठक में शामिल हुआ। बैठक में परिषद के माननीय सदस्यों के साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा हुई। pic.twitter.com/bjXnalcJjt
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अगर एससी और बीसी की जमीन की खरीद-बिक्री के दायरे को 1950 के जिला स्तर पर ले जाना है तो इसके लिए विधानसभा में संशोधन पारित कराना होगा. वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मि कात्यायन के मुताबिक इसको अमलीजामा पहनाने के लिए सरकार को या तो नियमावली बनानी होगी या मोडिफाइ करने के लिए पांचवीं अनुसूची के तहत गवर्नर के पास भेजना होगा. हालांकि यह मामला कोर्ट में भी जा सकता है.
कब शुरू हुई सीएनटी की प्रक्रिया: झारखंड में सीएनटी और एसपीटी का मतलब तो सभी जानते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस दिशा में कब काम शुरु हुआ और किसने किया. वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मि कात्यायन के मुताबिक सीएनटी की प्रक्रिया 1833 में शुरू हुई, जिसमें जरूरत के हिसाब से 1869 (सिर्फ भुईहरी जमीन का जिक्र), 1879, 1903 और 1908 में बदलाव हुआ. आज इसको सीएनटी एक्ट 1908 के नाम से जाना जाता है.
कब शुरू हुई एसपीटी की प्रक्रिया: एसपीटी एक्ट की शुरूआत 1872 में हुई. इसके बाद जरूरत के हिसाब से 1949 में अपनाया गया. एसपीटी का पूरा नाम है संथाल परगना टिनेंसी (सप्लीमेंट्री प्रोविजन) एक्ट 1949. इसको बोलचाल की भाषा में एसपीटी एक्ट 1949 कहा जाता है. सप्लीमेंट्री से ही पता चलता है कि यह किसी दूसरे कानून यानी संथाल परगना सेटलमेंट रेगुलेशन 1872 का हिस्सा है. एसपीटी में प्रावधान है कि जबतक खतियान में नहीं लिखा हुआ हो, तबतक आप अपने लोग को भी जमीन नहीं बेच सकते.
सीएनटी, एसपीटी जमीन पर ऋण नहीं देते बैंक: सीएनटी और एसपीटी एक्ट का सबसे ज्यादा खामियाजा उनलोगों को झेलना पड़ रहा है जिनकी जमीन इसके दायरे में आती है. सीएम हेमंत खुद कह चुके हैं कि सीएनटी और एसपीटी की जमीन के बदले बैंक लोन नहीं देता. मेरे परिवार के पास भी संपत्तियां हैं लेकिन उसकी कोई कीमत नहीं है. क्योंकि उसको बाजार कीमत पर किसी दूसरे को बेचा ही नहीं जा सकता.
सीएम हेमंत खुद कई बार कह चुके हैं कि जिन आदिवासियों के पास अच्छी खासी जमीन है वो भी गरीबी का जीवन जी रहे हैं. इसपर वरिष्ठ अधिवक्ता रश्मि कात्यायन ने कहा कि ओडिशा सरकार ने इस दिशा में पहल की है. झारखंड के आदिवासियों को भी उनकी जमीन के एवज में ऋण मिलना चाहिए. इससे उनकी उन्नति का रास्ता खुलेगा. उन्होंने कहा कि यह तय करना सरकार का काम है. हालांकि टीएसी की बैठक के बाद ही यह सवाल उठने पर सीएम ने कहा था कि ओडिशा में क्या निर्णय हुआ है.
वहीं, आदिवासी मामलों के जानकार विक्टर मालतो ने कहा कि टीएसी की बैठक में क्या सहमति बनी है, इसकी कोई जानकारी नहीं है. उन्होंने कहा कि शिड्यूल एरिया में पी-पेसा नियम के तहत हस्तांतरण होना चाहिए. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि राज्य गठन से पहले झारखंड में काफी संख्या में लोग दूसरे राज्यों से आकर बस गये हैं. उनका भी ख्याल रखना होगा. उन्होंने कहा कि टीएसी में क्या सहमति बनी है और सरकार क्या नोटिफिकेशन निकालने जा रही है, उसको देखने के बाद भी सही टिप्पणी की जा सकती है.