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एक और मलाला! 12 साल की दीपिका छोटे बच्चों में जगा रहीं शिक्षा की अलख

उम्र कोई भी सोच हमेशा बड़ी होनी चाहिए. कुछ ऐसी ही सोच और जज्बा उभरकर सामने आया है खूंटी की 12 साल की दीपिका मिंज (Deepika Minz) में. जिसकी सोच नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई (Nobel Laureate Malala Yousafzai) की तरह है. वो खुद भी पढ़ रही है और नक्सल प्रभावित इलाके में पढ़ाई से वंचित बच्चों के बीच शिक्षा की अलख जगा रही हैं.

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दीपिका
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Published : Jul 6, 2021, 5:14 PM IST

खूंटीः जिला के कर्रा प्रखंड अंतर्गत चंदापारा गांव की रहने वाली 12 साल की आदिवासी बच्ची दीपिका मिंज (Deepika Minz) इलाके में टीचर दीदी (Teacher Didi) के नाम से जानी और पहचानी जाती हैं. गांव के बच्चे उसे प्यार से टीचर दीदी ही बुलाते हैं. दीपिका खुद सातवीं क्लास में पढ़ती है, पर गांव के शिक्षा से वंचित बच्चों को रोजाना दो घंटे बच्चों को पढ़ाती हैं.

इसे भी पढ़ें- मंदिर की लाउडस्पीकर से निकली वर्णमाला की वाणी, जानिए पूरी खबर

गांव के छोटे से चबूतरे में बच्चों बैठाकर उन्हें पढ़ाती हैं. वक्त निकालकर दीपिका हर रोज दो घंटे बच्चों के बीच होती हैं, यहां वो अंग्रेजी और गणित का पाठ पढ़ाती हैं. दीपिका जिस चबूतरे पर बच्चों को बैठकर पढ़ाती हैं, उसने उसका नाम 'शिक्षा प्रेमियों की पाठशाला' रखा है.

कहते हैं एक छोटी-सी चिंगारी ही काफी होता है, आग भड़काने के लिए. वैसे ही एक छोटी-सी सोच से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है. नक्सल प्रभावित खूंटी जिला (Naxal affected Khunti district) के एक छोटे से गांव की 12 साल की एक आदिवासी बच्ची की सोच ने इलाके की तस्वीर बदल दी है. दीपिका की हिम्मत और जज्बा ही जिसने कच्चाबारी पंचायत के लोगों को शिक्षा से जोड़ दिया है. एक तो दुर्गम इलाका, नक्सल प्रभावित होने की वजह से नक्सलियों और अपराधियों का खतरा हर वक्त लगा रहता है.

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लाइब्रेरी में बच्चों को पढ़ाती दीपिका

दूसरी तरफ कोरोना और लॉकडाउन (Corona and Lockdown) की वजह से शिक्षा व्यवस्था (Education System) गांव में पूरी तरह से ठप हो गई. दीपिका के साथ-साथ गांव के सैकड़ों बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गई. गांव के बच्चे पूरे गांव में आवारगर्दी करते नजर आने लगे, बेजा वक्त जाया करने लगे, बड़े-बुजुर्गों को सम्मान करना भूल गए. दीपिका हर रोज बच्चों को ऐसे ही देखती थी, जिससे उसको काफी बुरा लगने लगा और उसके मन को काफी ठेस पहुंची.

उसके बाद उसने ठाना कि वो इन बच्चों को शिक्षा के सूत्र में बांधकर रहेगी, उन्हें सही राह दिखाएगी और नैतिकता का पाठ (Moral Lesson) पढ़ाएगी. इसके लिए उसने खुद से शुरूआत की. दीपिका ने पहले खुद अपने गांव चांदपारा में घूम-घूमकर बच्चों को शिक्षा से जुड़ने का आग्रह किया, शिक्षा को लेकर बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों के भी जागरूक करने लगीं. उसकी मेहनत रंग लाई और शुरुआत में एक-दो बच्चे उसके साथ जुड़कर पढ़ने लगे.

इसे भी पढ़ें- खूंटी के शिक्षा विभाग में आराम की नौकरी, बंद स्कूलों में ड्यूटी और मुफ्त की तनख्वाह

वक्त जरूर लगा लेकिन अच्छी सोच का सिलसिला चल निकला, बच्चे जुड़ते गए और कारवां बनता गया. शिक्षा की एक छोटी चिंगारी ने पूरे गांव में शिक्षा का दीप प्रज्जवलित कर दिया. धीरे-धीरे ना सिर्फ चांदपारा गांव बल्कि कच्चाबारी पंचायत के कई गांव शिक्षा के सूत्र में बंध गए. आज दीपिका की क्लास में कई बच्चे पढ़ते हैं.

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दीपिका की क्लास में पढ़ते बच्चे

घर में पढ़ाना मुश्किल था, इसके लिए दीपिका ने बच्चों को पढ़ाने के लिए एक बंद सरकारी स्कूल चुना. गांव के लोगों ने इसकी जानकारी ग्राम सभा को दी, इस बाबत ग्राम सभा ने खुशी-खुशी दीपिका के इस मिशन में भरपूर साथ दिया. ग्राम सभा की बैठक हुई, जिसमें दीपिका ने अपनी सोच से लोगों को रूबरू कराया, इसमें दीपिका ने अपनी बहन के साथ-साथ गांव की 10वीं, 12वीं और स्नातक की पढ़ाई कर रही लड़कियों से भी सहयोग मांगा.

सरकारी के जिस चबूतरे पर बैठकर बच्चों को पढ़ाती हैं दीपिका ने उस चबूतरे का नाम दिया- शिक्षा प्रेमियों का मंदिर. गांव की बाकी लड़कियों ने भी दीपिका की सोच को सलाम किया और दीपिका के मिशन शिक्षा में जुट गईं. सातवीं क्लास में पढ़ने वाली दीपिका छोटे बच्चों को अंग्रेजी और गणित पढ़ाती हैं. दीपिका की बड़ी बहन और गांव की ही एक आदिवासी लड़की बाकी बड़े बच्चों को हिंदी, गणित, अंग्रेजी और सामान्य ज्ञान की शिक्षा देती हैं.

इसे भी पढ़ें- 'निपुण भारत' की शुरुआत, बच्चों की सीखने की जरूरतों को पूरा करना लक्ष्य

देखते-देखते वीरान और बेजान सरकारी स्कूल (Government School) का चबूतरा शिक्षा के मंदिर में तब्दील हो गया. बंद क्लास रूम नहीं, ब्लैक बोर्ड ना सही, दीवार पर टंगा व्हाइट बोर्ड है, खुली हवा में दमभर कर ककहरा बच्चों की सांसों में घुलने लगी. रिमझिम बारिश में पाठशाला गांव की लाउब्रेरी में शिफ्ट हो जाती है. शिक्षा मिलने के बच्चों में बदलाव आने लगा, जिससे ग्रामीणों की सोच और समझ बदलने लगी. आज चांदपारा गांव में सामाजिक और शैक्षणिक बदलाव (Social and Educational Change) साफ देखी जा सकती है. एक दो नहीं कच्चाबारी पंचायत का कई गांव आज शिक्षा के दीपक के प्रकाशमय है.

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दीपिका की 'शिक्षा प्रेमियों की पाठशाला

छोटी-सी दीपिका मिंज की सोच और लगन देखकर गैर-सरकारी संगठन (NGO) भी आगे आने लगे हैं. समय-समय पर उनका भी सहयोग मिलने लगा है. गांव के लोग दीपिका के इस प्रयास से काफी खुश हैं. अभिभावक को भी बच्चों की पढ़ाई को लेकर फिक्र नहीं है. जिस सरकारी स्कूलों में बच्चे क्लास छोड़ देते थे, स्कूल से भाग जाते थे. लेकिन दीपिका की क्लास में आज भी बच्चों की उपस्थिति शत-प्रतिशत है. अब बच्चों में सामाजिक और नैतिकता आ रही है.

खूंटी की मलाला हैं दीपिका

शिक्षा के लिए खूंटी की दीपिका की भी सोच मलाला यूसुफजई (Malala Yousafzai) की तरह है. नक्सली प्रांत में कोरोना और लॉकडाउन (Corona and Lockdown) की दुश्वारियों के बीच 12 साल की दीपिका बच्चों में शिक्षा की अलख जगा रही हैं. वो अपने गांव में एक मिसाल की तरह देखी जा रही हैं, उसके जज्बे को लोग सलाम कर रहे हैं. शिक्षा के लिए अपनी ललक और सोच की बदौलत पाकिस्तान के खैबर पख्‍तूनख्‍वाह प्रांत के स्वात जिला की 11 साल की मलाला यूसुफजई पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बन गईं.

इसे भी पढ़ें- सबसे युवा नोबेल विजेता ने दुनियाभर में कैसे जगाई शिक्षा की अलख

मलाला यूसुफजई- एक परिचय

मलाला यूसुफजई का जन्म साल 1997 में पाकिस्तान के खैबर पख्‍तूनख्‍वाह प्रांत के स्वात जिला में हुआ था. उनके पिता का नाम जियाउद्दीन यूसुफजई है. तालिबान ने 2007 से मई 2009 तक स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया था. इस दौरान तालिबान के डर से लड़कियों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था. आठवीं की छात्रा मलाला का संघर्ष यहीं से शुरू होता है. 2008 में तालिबान ने स्वात घाटी पर अपना नियंत्रण कर लिया. साल के अंत तक वहां करीब 400 स्कूल बंद कर दिए गए. मलाला ने पेशावर में नेशनल प्रेस के सामने भाषण दिया जिसका शीर्षक था- हाउ डेयर द तालिबान टेक अवे माय बेसिक राइट टू एजुकेशन? (How Dare the Taliban Take Away My Basic Right to Education?) तब वो केवल 11 साल की थीं.

साल 2009 में उसने अपने छद्म नाम 'गुल मकई' से बीबीसी (BBC) के लिए एक डायरी लिखी. इसमें उसने स्वात में तालिबान के कुकृत्यों के बारे में लिखा. बीबीसी के लिए डायरी लिखते हुए मलाला पहली बार दुनिया की नजर में आईं, जब दिसंबर 2009 में जियाउद्दीन ने अपनी बेटी की पहचान सार्वजनिक की.

तालिबानी गोली का शिकार हुईं मलाला

9 अक्टूबर 2012 को खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के स्वात घाटी में तालिबानी आतंकी मलाला के स्कूल बस में सवार हो गए. उन्होंने मलाला के सिर पर गोली मार दी. गंभीर हालत में मलाला को इलाज के लिए ब्रिटेन लाया गया. यहां उन्हें क्वीन एलिजाबेथ अस्पताल (Queen Elizabeth Hospital) में भर्ती कराया गया. जहां से वो स्वस्थ होकर बाहर आईं.

कई पुरस्कारों से सम्मानित हुईं मलाला

जब वह स्वस्थ हुई तो अंतरराष्‍ट्रीय बाल शांति पुरस्कार, पाकिस्तान का राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार (2011) के अलावा कई बड़े सम्मान मलाला के नाम दर्ज होने लगे. 2012 में सबसे अधिक प्रचलित शख्सियतों में पाकिस्तान की इस बहादुर बाला मलाला युसूफजई के नाम रहा. लड़कियों की शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली साहसी मलाला यूसुफजई की बहादुरी के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा मलाला के 16वें जन्मदिन पर 12 जुलाई को मलाला दिवस घोषित किया गया.

मलाला को साल 2013 में भी नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) के लिए नामांकित किया गया था. साल 2014 में भारतीय समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी के साथ संयुक्त रुप से पुरस्कार दिया गया. 2013 में ही मलाला को यूरोपीय यूनियन का प्रतिष्ठित शैखरोव मानवाधिकार पुरस्कार भी मिला.

खूंटीः जिला के कर्रा प्रखंड अंतर्गत चंदापारा गांव की रहने वाली 12 साल की आदिवासी बच्ची दीपिका मिंज (Deepika Minz) इलाके में टीचर दीदी (Teacher Didi) के नाम से जानी और पहचानी जाती हैं. गांव के बच्चे उसे प्यार से टीचर दीदी ही बुलाते हैं. दीपिका खुद सातवीं क्लास में पढ़ती है, पर गांव के शिक्षा से वंचित बच्चों को रोजाना दो घंटे बच्चों को पढ़ाती हैं.

इसे भी पढ़ें- मंदिर की लाउडस्पीकर से निकली वर्णमाला की वाणी, जानिए पूरी खबर

गांव के छोटे से चबूतरे में बच्चों बैठाकर उन्हें पढ़ाती हैं. वक्त निकालकर दीपिका हर रोज दो घंटे बच्चों के बीच होती हैं, यहां वो अंग्रेजी और गणित का पाठ पढ़ाती हैं. दीपिका जिस चबूतरे पर बच्चों को बैठकर पढ़ाती हैं, उसने उसका नाम 'शिक्षा प्रेमियों की पाठशाला' रखा है.

कहते हैं एक छोटी-सी चिंगारी ही काफी होता है, आग भड़काने के लिए. वैसे ही एक छोटी-सी सोच से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है. नक्सल प्रभावित खूंटी जिला (Naxal affected Khunti district) के एक छोटे से गांव की 12 साल की एक आदिवासी बच्ची की सोच ने इलाके की तस्वीर बदल दी है. दीपिका की हिम्मत और जज्बा ही जिसने कच्चाबारी पंचायत के लोगों को शिक्षा से जोड़ दिया है. एक तो दुर्गम इलाका, नक्सल प्रभावित होने की वजह से नक्सलियों और अपराधियों का खतरा हर वक्त लगा रहता है.

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लाइब्रेरी में बच्चों को पढ़ाती दीपिका

दूसरी तरफ कोरोना और लॉकडाउन (Corona and Lockdown) की वजह से शिक्षा व्यवस्था (Education System) गांव में पूरी तरह से ठप हो गई. दीपिका के साथ-साथ गांव के सैकड़ों बच्चों का स्कूल जाना बंद हो गई. गांव के बच्चे पूरे गांव में आवारगर्दी करते नजर आने लगे, बेजा वक्त जाया करने लगे, बड़े-बुजुर्गों को सम्मान करना भूल गए. दीपिका हर रोज बच्चों को ऐसे ही देखती थी, जिससे उसको काफी बुरा लगने लगा और उसके मन को काफी ठेस पहुंची.

उसके बाद उसने ठाना कि वो इन बच्चों को शिक्षा के सूत्र में बांधकर रहेगी, उन्हें सही राह दिखाएगी और नैतिकता का पाठ (Moral Lesson) पढ़ाएगी. इसके लिए उसने खुद से शुरूआत की. दीपिका ने पहले खुद अपने गांव चांदपारा में घूम-घूमकर बच्चों को शिक्षा से जुड़ने का आग्रह किया, शिक्षा को लेकर बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों के भी जागरूक करने लगीं. उसकी मेहनत रंग लाई और शुरुआत में एक-दो बच्चे उसके साथ जुड़कर पढ़ने लगे.

इसे भी पढ़ें- खूंटी के शिक्षा विभाग में आराम की नौकरी, बंद स्कूलों में ड्यूटी और मुफ्त की तनख्वाह

वक्त जरूर लगा लेकिन अच्छी सोच का सिलसिला चल निकला, बच्चे जुड़ते गए और कारवां बनता गया. शिक्षा की एक छोटी चिंगारी ने पूरे गांव में शिक्षा का दीप प्रज्जवलित कर दिया. धीरे-धीरे ना सिर्फ चांदपारा गांव बल्कि कच्चाबारी पंचायत के कई गांव शिक्षा के सूत्र में बंध गए. आज दीपिका की क्लास में कई बच्चे पढ़ते हैं.

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दीपिका की क्लास में पढ़ते बच्चे

घर में पढ़ाना मुश्किल था, इसके लिए दीपिका ने बच्चों को पढ़ाने के लिए एक बंद सरकारी स्कूल चुना. गांव के लोगों ने इसकी जानकारी ग्राम सभा को दी, इस बाबत ग्राम सभा ने खुशी-खुशी दीपिका के इस मिशन में भरपूर साथ दिया. ग्राम सभा की बैठक हुई, जिसमें दीपिका ने अपनी सोच से लोगों को रूबरू कराया, इसमें दीपिका ने अपनी बहन के साथ-साथ गांव की 10वीं, 12वीं और स्नातक की पढ़ाई कर रही लड़कियों से भी सहयोग मांगा.

सरकारी के जिस चबूतरे पर बैठकर बच्चों को पढ़ाती हैं दीपिका ने उस चबूतरे का नाम दिया- शिक्षा प्रेमियों का मंदिर. गांव की बाकी लड़कियों ने भी दीपिका की सोच को सलाम किया और दीपिका के मिशन शिक्षा में जुट गईं. सातवीं क्लास में पढ़ने वाली दीपिका छोटे बच्चों को अंग्रेजी और गणित पढ़ाती हैं. दीपिका की बड़ी बहन और गांव की ही एक आदिवासी लड़की बाकी बड़े बच्चों को हिंदी, गणित, अंग्रेजी और सामान्य ज्ञान की शिक्षा देती हैं.

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देखते-देखते वीरान और बेजान सरकारी स्कूल (Government School) का चबूतरा शिक्षा के मंदिर में तब्दील हो गया. बंद क्लास रूम नहीं, ब्लैक बोर्ड ना सही, दीवार पर टंगा व्हाइट बोर्ड है, खुली हवा में दमभर कर ककहरा बच्चों की सांसों में घुलने लगी. रिमझिम बारिश में पाठशाला गांव की लाउब्रेरी में शिफ्ट हो जाती है. शिक्षा मिलने के बच्चों में बदलाव आने लगा, जिससे ग्रामीणों की सोच और समझ बदलने लगी. आज चांदपारा गांव में सामाजिक और शैक्षणिक बदलाव (Social and Educational Change) साफ देखी जा सकती है. एक दो नहीं कच्चाबारी पंचायत का कई गांव आज शिक्षा के दीपक के प्रकाशमय है.

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दीपिका की 'शिक्षा प्रेमियों की पाठशाला

छोटी-सी दीपिका मिंज की सोच और लगन देखकर गैर-सरकारी संगठन (NGO) भी आगे आने लगे हैं. समय-समय पर उनका भी सहयोग मिलने लगा है. गांव के लोग दीपिका के इस प्रयास से काफी खुश हैं. अभिभावक को भी बच्चों की पढ़ाई को लेकर फिक्र नहीं है. जिस सरकारी स्कूलों में बच्चे क्लास छोड़ देते थे, स्कूल से भाग जाते थे. लेकिन दीपिका की क्लास में आज भी बच्चों की उपस्थिति शत-प्रतिशत है. अब बच्चों में सामाजिक और नैतिकता आ रही है.

खूंटी की मलाला हैं दीपिका

शिक्षा के लिए खूंटी की दीपिका की भी सोच मलाला यूसुफजई (Malala Yousafzai) की तरह है. नक्सली प्रांत में कोरोना और लॉकडाउन (Corona and Lockdown) की दुश्वारियों के बीच 12 साल की दीपिका बच्चों में शिक्षा की अलख जगा रही हैं. वो अपने गांव में एक मिसाल की तरह देखी जा रही हैं, उसके जज्बे को लोग सलाम कर रहे हैं. शिक्षा के लिए अपनी ललक और सोच की बदौलत पाकिस्तान के खैबर पख्‍तूनख्‍वाह प्रांत के स्वात जिला की 11 साल की मलाला यूसुफजई पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल बन गईं.

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मलाला यूसुफजई- एक परिचय

मलाला यूसुफजई का जन्म साल 1997 में पाकिस्तान के खैबर पख्‍तूनख्‍वाह प्रांत के स्वात जिला में हुआ था. उनके पिता का नाम जियाउद्दीन यूसुफजई है. तालिबान ने 2007 से मई 2009 तक स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया था. इस दौरान तालिबान के डर से लड़कियों ने स्कूल जाना बंद कर दिया था. आठवीं की छात्रा मलाला का संघर्ष यहीं से शुरू होता है. 2008 में तालिबान ने स्वात घाटी पर अपना नियंत्रण कर लिया. साल के अंत तक वहां करीब 400 स्कूल बंद कर दिए गए. मलाला ने पेशावर में नेशनल प्रेस के सामने भाषण दिया जिसका शीर्षक था- हाउ डेयर द तालिबान टेक अवे माय बेसिक राइट टू एजुकेशन? (How Dare the Taliban Take Away My Basic Right to Education?) तब वो केवल 11 साल की थीं.

साल 2009 में उसने अपने छद्म नाम 'गुल मकई' से बीबीसी (BBC) के लिए एक डायरी लिखी. इसमें उसने स्वात में तालिबान के कुकृत्यों के बारे में लिखा. बीबीसी के लिए डायरी लिखते हुए मलाला पहली बार दुनिया की नजर में आईं, जब दिसंबर 2009 में जियाउद्दीन ने अपनी बेटी की पहचान सार्वजनिक की.

तालिबानी गोली का शिकार हुईं मलाला

9 अक्टूबर 2012 को खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के स्वात घाटी में तालिबानी आतंकी मलाला के स्कूल बस में सवार हो गए. उन्होंने मलाला के सिर पर गोली मार दी. गंभीर हालत में मलाला को इलाज के लिए ब्रिटेन लाया गया. यहां उन्हें क्वीन एलिजाबेथ अस्पताल (Queen Elizabeth Hospital) में भर्ती कराया गया. जहां से वो स्वस्थ होकर बाहर आईं.

कई पुरस्कारों से सम्मानित हुईं मलाला

जब वह स्वस्थ हुई तो अंतरराष्‍ट्रीय बाल शांति पुरस्कार, पाकिस्तान का राष्ट्रीय युवा शांति पुरस्कार (2011) के अलावा कई बड़े सम्मान मलाला के नाम दर्ज होने लगे. 2012 में सबसे अधिक प्रचलित शख्सियतों में पाकिस्तान की इस बहादुर बाला मलाला युसूफजई के नाम रहा. लड़कियों की शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली साहसी मलाला यूसुफजई की बहादुरी के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा मलाला के 16वें जन्मदिन पर 12 जुलाई को मलाला दिवस घोषित किया गया.

मलाला को साल 2013 में भी नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) के लिए नामांकित किया गया था. साल 2014 में भारतीय समाजसेवी कैलाश सत्यार्थी के साथ संयुक्त रुप से पुरस्कार दिया गया. 2013 में ही मलाला को यूरोपीय यूनियन का प्रतिष्ठित शैखरोव मानवाधिकार पुरस्कार भी मिला.

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