जमशेदपुर: 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी का सपना देख रहे हिंदुस्तान के चंद लोग तिल-तिल मरने को मजबूर हैं. वजह है यूरेनियम खनन से निकलने वाला रेडिएशन. राज्य-झारखंड, जिला-पूर्वी सिंहभूम और शहर-जादूगोड़ा. आपको जादूगोड़ा की जादुई हकीकत बताएंगे. पढ़ेंगे तो महसूस करेंगे कि 1967 के बाद कैसे यहां के लोगों के लिए तबाही के रास्ते खुल गए. जान जोखिम में लोग डालकर यूरेनियम से परमाणु बनाने के सपने को पूरा कर रहे हैं.
1967 से बदलने लगी जादूगोड़ा की तस्वीर
जादूगोड़ा में 1967 में यूरेनियम खनन की शुरुआत हुई. खनन की शुरुआत होते ही यहां दिन पर दिन तस्वीरें बिगड़ने लगी. बांझपन, कैंसर और न जाने कई बीमारियों ने पैर पसार लिया. बांगों के रहने वाले पलटू सरदार बताते हैं कि उनके जन्म के पांच साल बाद से ही शरीर में तेज बुखार की शिकायत होने लगी थी. शुरुआती दौर में परिवार वालों और डॉक्टरों को भी इसके बारे में पता नहीं चला. थोड़ा समय और बीता तो हाथ-पैर ने काम करना बंद कर दिया. डॉक्टरों ने सलाह दी कि इसे कोलकाता ले जाइये. इलाज में पता चला कि यूरेनियम के रेडिएशन ने जिंदगी की ताकत छीन ली है.
यह भी पढ़ें: जंगल काटकर जमीन को कब्जे में लेने की कोशिश कर रहे भू-माफिया, वन विभाग को भनक तक नहीं
जादूगोड़ा आदिवासी बहुल पहाड़ों से घिरी एक छोटी सी कॉलोनी है. यहां भारत की एकमात्र सक्रिय यूरेनियम की खान है. यूरेनियम निकालने के बाद बचे हुए कचरे को कारखाने के पास में ही फेंक दिया जाता है जिसे टेली पौंड कहते हैं. टेली पौंड के ऊपर कंक्रीट बिछा दिए गए हैं जहां किसी भी बाहरी व्यक्ति का आना-जाना मना है. खनन से निकलने वाला कचरा गांव के दूसरी तरफ फैल जाता है. जहां से रेडियोएक्टिव तत्व हवाओं के सहारे लोगों तक आसानी से पहुंचता है. रेडिएशन के कारण बच्चे पैदा नहीं होते..और जो बच्चे जन्म लेते हैं उनमें जन्म के समय ही कई प्रकार की विकृतियां आ जाती हैं.
पानी में होती है केरोसिन की बदबू
जादूगोड़ा से सटे भटानी कस्बे के रहने वाले चेतन बताते हैं कि सरकार ने चापाकल तो लगवाया है लेकिन इसका पानी किसी जहर से कम नहीं. चापाकल से निकलने वाले पानी में केरोसिन की बदबू होती है और पानी लाल रंग का होता है. इसे सिर्फ नहाने और कपड़े धोने के लिए इस्तेमाल करते हैं. पीने के लिए बगल के गांव से पानी लेकर आते हैं.
जादूगोड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता गणेश पात्रा बताते हैं कि यूरेनियम खनन की शुरुआत से पहले यहां के लोगों की जिंदगी आम लोगों की तरह ही थी. यूरेनियम का पता चलते ही यहां की तस्वीरें बदलनी शुरू हो गई. परमाणु ऊर्जा विभाग के मुताबिक 65 ग्राम यूरेनियम के लिए भूतल से करीब एक हजार किलो अयस्क खोदना पड़ता है. इसके बाद कंपनी प्रबंधन इसे यूरेनियम के स्वरूप में लाता है.
यूरेनियम के चलते हो रहे नुकसान का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि यहां के हर घर में कई लोग बीमार हैं. कोई बांझपन तो कोई कैंसर..कोई दिव्यांग हो रहा तो कोई ह्रदय रोग से पीड़ित है. मुख्य वजह सिर्फ यूनिरेनियम से निकलने वाला रेडिएशन. ये कैसे रुके इसको लेकर कोई पहल नहीं की जा रही है.