रांची: आरा-केरम गांव के सिवान पर पहुंते ही पहला बोर्ड दिखेगा. लिखा है नशामुक्त गांव. यहीं से शुरू होता है पहला इंप्रेशन. आदिवासी बहुल सवा छह सौ की आबादी वाले इस गांव में एक मुस्लिम परिवार के अलावा छह और जातियों के लोग रहते हैं. लेकिन गांव में जाने पर यह कोई नहीं कह सकता कि कौन किसका घर है. प्लास्टिक का एक टुकड़ा तक नहीं दिखता. हर घर के सामने गाय, बैल, बकरी या मुर्गी दिखनी ही दिखनी है. जब से यह गांव नशामुक्त हुआ तब से किसी को भी डॉक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ी. इन दोनों गांव के ग्रामीणों की सोच में विकास का बीज डाला आईएफएस सिद्धार्थ त्रिपाठी ने. उनकी पहल पर साल 2017 में करीब 75 ग्रामीणों को अन्ना हजारे से मिलने का मौका मिला.
महिलाओं ने रालेगन सिद्धि जाकर ली ट्रेनिंग
रालेगन सिद्धि जाने के बाद ग्रामीणों को लगा कि अब उन्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. आज कोरोना संक्रमण की काली छाया से यह गांव कोसों दूर है. इस गांव का कोई भी शख्स बाहर मजदूरी करने नहीं जाता. मनरेगा आयुक्त ने कहा कि कोई भी योजना किसी भी गांव को विकसित नहीं बना सकती. सारा क्रेडिट आरा-केरम के ग्रामीणों को जाता है.
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बाकियों को राह दिखाता आरा-केरम गांव
प्रधानमंत्री ने कहा कि लोकल के लिए वोकल बनना पड़ेगा. तभी आत्मनिर्भर बनेगा देश. जाहिर है कि आत्मनिर्भरता की बुनियादी गांवों से ही शुरू हो सकती है. आरा-केरम गांव के लोग राह दिखा रहे हैं. अब जरूरत है स्वामी विवेकानंद के उस संदेश को आत्मसात करने की जब उन्होंने कहा था - उठो, जागो और तब तक नहीं रूको जबतक मंजिल प्राप्त न हो जाए. यह बात समझ आई तो आत्मनिर्भरता हर भारतीय के जेब में होगी.