शिमला: हिमाचल में प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर राजेश्वर सिंह चंदेल ने कहा कि हिमाचल में प्राकृतिक खेती विधि से हिमाचल में पैदा हो रहे उत्पाद को बेचने के लिए अब योजना के अधिकारी प्रोडक्ट ब्रांडिंग और मार्केटिंग पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. जिससे किसानों को अपना प्रोडक्ट बेचने में आसानी होगी और बाजार में ऊंचे दाम मिल सकेंगे.
प्राकृतिक खेती से तैयार उत्पाद मार्केट में बेचना अब बेहद आसान होंगे इसके लिए हिमाचल प्रदेश में कार्य कर रही प्राकृतिक कृषि पर योजना के अधिकारी दो स्तर पर कार्य कर रहे हैं. इसके तहत मार्च महीने तक एक प्रोटोकॉल तैयार किया जाएगा. जिसके अंतर्गत प्राकृतिक खेती से तैयार उत्पाद मार्केट में एक लोगों के अंतर्गत बिकेगा. जिससे प्राकृतिक खेती के उत्पाद को पहचानना बेहद आसान हो जाएगा और प्रोडक्ट ब्रांडिंग में आसानी होगी.
इसके अलावा दूसरा विकल्प ऐप के माध्यम से अपनाया जाएगा. इसके तहत प्रदेश में कुछ शहरों को चयनित किया जाएगा. इन शहरों में केंद्र स्थापित किए जाएंगे और इन केंद्रों पर आसपास के गांव से जहां किसान प्राकृतिक खेती करते हैं.
वहां से गाड़ियों के माध्यम से उत्पाद लाकर इन शहरों में एकत्रित किया जाएगा. जिसके बाद इसे मंडियों में पहुंचाया जाएगा. देश-विदेश से आने वाले व्यापारी आसानी से प्राकृतिक उत्पाद पहचान सकेंगे और उचित दामों पर इन्हें खरीदने सकेंगे इससे प्रदेश में प्राकृतिक खेती कर रहे किसानों को लाभ होने की उम्मीद है.
राजेश्वर चंदेल ने कहा कि प्राकृतिक खेती में केवल एक पौधा बाजार से खरीदना पड़ता है. इसके बाद सभी आवश्यकताएं घर पर ही पूरी की जा सकती है. सेब बागवानी करने वालों को सलाह देते हुए डॉक्टर राजेश्वर चंदेल ने कहा कि हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी नौणी और कृषि विभाग अपने स्तर पर सेब के पौधों की नर्सरी तैयार कर रहा है. इसके अलावा हॉर्टिकल्चर यूनिवर्सिटी नौणी के नालदेहरा स्थित नर्सरी से भी पौधे उपलब्ध हो सकेंगे.
अब आने वाले समय में बागवानों को नर्सरियों से ही पौधे मिल सकेंगे. प्राकृतिक कृषि में विशेष विधि से पौधे तैयार किये जाते हैं. वीजामृत विधी से पहले बीजों को रोगमुक्त किया जाता है. उसके बाद नर्सरी तैयार की जाती है.
इससे सबसे बड़ा लाभ यह है सेब के पौधे में पहले से कोई बीमारी नहीं होगी. राजेश्वर सिंह चंदेल ने कहा कि प्राकृतिक खेती के चार मुख्य सिद्धांत हैं. जिनका पालन करके न्यूनतम लागत से उच्च गुणवत्ता की अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है.
उन्होंने कहा कि पहला सिद्धांत सह फसल का है. मुख्य फसल की कतारों के बीच ऐसी फसल लगाना जो भूमि में नाइट्रोजन की आपूर्ति तथा किसान को खेती लागत कीमत की प्रतिपूर्ति करें डॉक्टर चंदेल ने कहा कि दूसरे सिद्धांत के अनुसार खेती के बीच कतारों में मेंढे तथा नालियां बनाई जाती है. जिनमें वर्षा का पानी संग्रहित होकर लंबे समय तक खेत में नमी उपलब्धता बरकरार रखता है.
लंबे वर्षा काल के समय यह नालियां तथा में है. खेतों में जमा हुए अधिक पानी की निकासी करने में मदद करती है. डॉक्टर चंदेल ने कहा कि तीसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत स्थानीय केंचुओं की गतिविधियों पर आधारित है. इस खेती विधि द्वारा जमीन में स्थानीय पारिस्थितिकी का निर्माण होता है जिससे निद्रा में गए हुए स्थानीय केतु की गतिविधियां बढ़ जाती हैं. अंतिम सिद्धांत गोबर पर आधारित है.
डॉक्टर चंदेल ने कहा कि भारतीय नस्ल की किसी भी गाय का गोबर एवं मूत्र इस प्राकृतिक पद्धति में उत्तम पाया गया है, क्योंकि इसमें लाभदायक सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या दूसरे किसी भी पशु या गाय की अन्य प्रजातियों से कई गुना अधिक होती है.
डॉक्टर राजेश्वर सिंह चंदेल ने कहा कि प्राकृतिक खेती के संचालन के 4 चक्र हैं
जीवामृत
किसी भी भारतीय नस्ल की गाय के गोबर मूत्र और अन्य स्थानीय उपलब्ध सामग्रियों जैसे गुड दाता तथा और दूसरी पिया सजीव मिट्टी के मिश्रण से बनाया हुआ घोल, भूमि में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या में बढ़ोतरी करता है परंपरागत खेती से यह प्राकृतिक खेती भिन्न है, क्योंकि इसमें गाय का गोबर और मूत्र जैविक खाद के रूप में नहीं बल्कि 16 जामुन के रूप में प्रयोग किया जाता है.
बीजामृत
देसी गाय के गोबर मूत्र और बुझा चूना आधारित घटक से बीज एवं पौध जड़ों पर सूक्ष्म जीवाणुओं आधारित लेप करके इनकी नई जोड़ों को बीज या भूमि जनित रोगों से संरक्षित किया जाता है जीवामृत प्रयोग से जीव की अंकुरण क्षमता में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई है.
आच्छादान
भूमि में उपलब्ध नमी को सुरक्षित करने के लिए इसकी ऊपरी सतह को किसी अन्य फसल या फसलों के अवशेष से ढक दिया जाता है इस प्रक्रिया से ह्यूमस की वृद्धि भूमि की ऊपरी सतह का संरक्षण भूमि में जल संग्रहण क्षमता सूक्ष्म जीवाणु तथा पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा में बढ़ोतरी के साथ खरपतवार का नियंत्रण भी होता है.
वापसा
यह वापस भूमि में जीवामृत प्रयोग तथा आच्छादान का परिणाम है जीवामृत के प्रयोग तथा आच्छादान करने से भूमि की संरचना में सुधार होकर त्वरित गति से सो मच निर्माण होता है इससे अंततः भूमि में अच्छे जल प्रबंधन की प्रक्रिया आरंभ होती है फसल ना तो अधिक वर्षा तूफान में गिरती है और ना ही सूखे की स्थिति में डगमग आती है