कुल्लू: जिला के नदी नालों पर कुछ साल पहले सैकड़ों घराट नजर आते थे, लेकिन आज के समय में लगभग इक्का-दुक्का घराट ही नजर आता हैं. पूरे प्रदेश में जहां कुछ साल पूर्व घराटों का प्रचलन था, वहीं आज के समय में नदियों और नालों में पानी का स्तर कम होने के कारण इन घराटों का अस्तित्व नहीं के बराबर रह गया है.
काफी समय पहले ग्रामीण अनाज पीसने के लिए पूरी तरह से घराट पर निर्भर थे, जैसे ही आटा चक्की वजूद में आईं तो लोगों ने सुख-सुविधा के लिए घराटों में आटा पिसवाना बंद कर दिया. पहले घराट चलाने के लिए नदियों के जल का प्रयोग होता था .
कैसे घराटों में पीसा जाता था आटा
नदियों के पानी को छोटी सी नहर जिसे स्थानीय भाषा कुहल कहा जाता है. इन कुहलों के जरिए पानी को छोटो से कमरे के नीचे बनी छोटी सी गुफा से तेज रफ्तार में गुजारा जाता था. पानी की रफ्तार से गुफा में लगी पंखुड़िया घुमती थी. इन्ही पंखुड़ियों के सहारे पत्थर की दो बड़ी-बड़ी चक्कियां घूमती हैं. ऊपर लगे बर्तन से धीरे-दीरे गेहूं इन दो चक्कियों के बीच गेहूं पीसता है.
घाटी के कई इलाकों में घराट अब टूटी-फूटी हालत में देखने को मिल रहे हैं. मौजूदा समय में बाजार में आटे की थैलियां उपलब्ध होने और गांव में भी बिजली व डीजल चलित चक्कियां स्थापित होने से घराटों के अस्तित्व पर संकट पैदा हो गया है. देवभूमि कुल्लू के ग्रामीण इलाकों में अब भी देवी-देवताओं का अनाज पानी से चलने वाले घराटों में ही पीसा जाता है.
वहीं, देवता गूर के माध्यम से चेतावनी देते हैं कि अगर कोई देवलू देवता के अनाज को बिजली से चलने वाली चक्की में पीसता है तो उसे देवता कठोर दंड देंगे. देव आदेश का पालन करने के लिए देवलू आज भी देवता के अनाज को घराट में पीसते हैं. देव आदेश के बाद जौ, गेहूं और अन्य अनाज पीसता है.
सरकारी उदासनीता के कारण इस तरह की सस्ती और परंपरागत तकनीक समाप्त होती जा रही है, जबकि काफी साल पहले सरकार ने घराट के पुनर्निर्माण के लिए योजना बनाई थी, जोकि कागजों में ही धूल फांक रही है.
बता दें कि घराट का पीसा हुआ आटा जहां स्वादिष्ट होता है, वहीं पौष्टिक भी होता है, लेकिन घराट कम होने से कम लोगों को ही घराट का आटा नसीब होता है. जिला की खराहल घाटी, लगघाटी, ऊझी घाटी व मणिकर्ण घाटी कई इलाकों में अब घराट कहीं-कहीं पर ही देखने को मिलते हैं.