लाहौल-स्पीति: हिमाचल प्रदेश जहां अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए देश दुनिया में प्रसिद्ध है तो वहीं, यहां की देव परंपराएं भी विश्व भर के लोगों को अपनी और आकर्षित करती हैं. यहां कई ऐसे दर्शनीय स्थल है जो इतिहास के पन्नों से जुड़े हुए हैं. ऐसा ही एक मंदिर लाहौल स्पीति के लाहौल घाटी में स्थित है. जहां पर आज भी असुर महिषासुर के रक्त से भरा खप्पर रखा गया है. कहा जाता है कि अगर कोई जबरदस्ती इस खप्पर को देख ले तो वह अंधा हो जाता है.
लाहौल घाटी के उदयपुर में प्रसिद्ध मृकुला देवी मंदिर का इतिहास द्वापर युग के दौरान पांडवों के वनवास काल से जुड़ा है. समुद्रतल से 2623 मीटर की ऊंचाई पर बना यह मंदिर अपनी अद्भुत शैली और लकड़ी पर नक्काशी के लिए जाना जाता है. यहां मां काली की, महिषासुर मर्दिनी के आठ भुजाओं वाले रूप में पूजा की जाती है. यह मंदिर कश्मीरी कन्नौज शैली में बना हुआ है.
कहा जाता है कि महाबली भीम एक दिन एक विशालकाय पेड़ को यहां लाए और उन्होंने देवता के शिल्पकार भगवान विश्वकर्मा से यहां मंदिर के निर्माण के लिए कहा और विश्वकर्मा ने एक दिन में ही इस मंदिर का निर्माण किया. आज भी मंदिर के भीतर उन दिनों के बनाए रामायण और महाभारत की कलाकृतियां देख लोग दंग रह जाते हैं.
कहीं मृत्यु शैय्या में लेटे भीष्म पितामह, कहीं सागर मंथन, सीता मैया का हरण, अशोक वाटिका, गंगा-जमुना, आठ ग्रह, भगवान विष्णु के अवतार, भगवान शिव का तीसरा नेत्र खुलने, भगवान कृष्ण-अर्जुन, द्रोपदी स्वयंवर, अभिमन्यु का चक्रव्यूह, सहित कई देवी-देवताओं के लकड़ी के बनाए चित्र मौजूद हैं. मंदिर की लकड़ी की दीवारें पहाड़ी शैली में बनी हुई हैं.
मान्यता है कि महिषासुर का वध करने के बाद मां काली ने यहीं पर खून से भरा हुआ खप्पर रखा था. यह खप्पर आज भी यहां माता काली की मुख्य मूर्ति के पीछे रखा हुआ है. इसे श्रद्धालुओं के देखने पर प्रतिबंध है. लोगों में आस्था है कि अगर इस खप्पर को कोई गलती से भी देख ले तो वह अंधा हो जाता है.
मंदिर कपाट के पास दो द्वारपाल बजरंग बली और भैरो खड़े हैं. मंदिर में प्रवेश करने से पहले श्रद्धालुओं को बताया जाता है कि यहां पूजा-अर्चना और दर्शन के बाद भूलकर भी 'चलो यहां से चलते हैं' नहीं बोल सकते हैं. मान्यता के अनुसार ऐसा कहने पर आप और आपके परिवार पर विपदा आ सकती है. कहते हैं कि ऐसा कहने पर इस मंदिर के द्वार पर खड़े दोनों द्वारपाल भी साथ चल पड़ते हैं. आज के बदलते परिवेश में भी इस मंदिर में कभी भी चलो नहीं कहते हैं और दर्शन करने के बाद चुपचाप लौट आते हैं.
घाटी में साल में एक बार फागली उत्सव होता है. उत्सव की पूर्व संध्या पर मां मृकुला देवी मंदिर के पुजारी खप्पर की पूजा-अर्चना की रस्म अदायगी अकेले करते हैं. खप्पर को बाहर निकाला जाता है लेकिन कोई देखता नहीं है. मंदिर के पुजारी दुर्गा दास बताते हैं कि, बुजुर्गों की बात पर यकीन किया जाए तो 1905-06 में इस खप्पर को देखने वाले चार लोगों की आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई थी.
बता दें कि, 16वीं शताब्दी से पहले इस गांव का नाम मरगुल था. यहां चंबा के राजा उदय सिंह लाहौल आए. उन्होंने देवी की अष्टधातु की मूर्ति की स्थापना की, इसके बाद गांव का नाम उदयपुर पड़ गया. यह गांव तांदी- किश्तवाड़ मार्ग पर चिनाब (चंद्रा और भागा) नदी के किनारे बसा है. हिंदू देवी मृकुला या देवी काली के महिषासुर मर्दिनी अवतार को पूजते हैं, जबकि बौद्ध माता वृकुला के नाम से देवी वज्रराही (बौद्ध धर्म में एक क्रोधी देवी) के रूप में पूजते हैं. बौद्धों का मानना है कि यह वही स्थान है जहां प्रसिद्ध तांत्रिक संत पद्मसंभव ने अपनी यात्रा के दौरान ध्यान लगाया था.
मंदिर प्रांगण में करीब एक क्विंटल पक्का ढाई मन वजन का एक पत्थर है जिसे उठाना तो दूर हिलाने में भी पसीने छूट जाते हैं, लेकिन सच्चे मन से मां के जयकारों के साथ पांच या सात लोग एक मध्यम उंगली से इस पत्थर को बड़ी सुगमता से हिला या उठा सकते हैं. पुजारी का कहना है कि यह पत्थर भीम के लिए रखा गया था. भीम पांडवों का सारा भोजन चट कर जाते थे.
ऐसे में उन्हें इस पत्थर के वजन के बराबर एक समय का भोजन देते थे, ताकि औरों को भी कुछ खाने के लिए बच सके. माता मृकुला देवी मंदिर में लकड़ी की दीवारों पर बेहद दार्शनिक एवं अद्भुत चित्रकारी का नमूना पेश किया गया है. पुजारी दुर्गा दास के अनुसार मंदिर में रामायण एवं महाभारत काल के चित्र अंकित हैं. उन्होंने बताया कि इस मंदिर के रखरखाव का जिम्मा भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के पास है.
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