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वो मरकर भी हो जाता है 'जिंदा', पहाड़ों में दैवीय शक्तियों का प्रमाण देते हैं देवता! - काहिका मेला कुल्लू न्यूज

हिमाचल प्रदेश अपनी संस्कृति और अनूठी सभ्यता के लिए विश्वभर में पहचान बनाए हुए है. हिमाचल को देवभूमि के नाम से जाना जाता है. यहां के लोगों में देवी-देवताओं के प्रति अटूट आस्था और विश्वास है. मान्यता है कि देवी-देवता भी अपने चमत्कारों से लोगों को अपनी शक्तियों का प्रत्यक्ष प्रमाण देते हैं. इसका उदाहरण है कुल्लू व मंडी के कुछ क्षेत्रों में मनाया जाने वाला काहिका उत्सव. मान्यता है कि काहिका उत्सव में दैवीय शक्ति से एक व्यक्ति को मार दिया जाता है और फिर वही दैवीय शक्ति उसे जिंदा भी कर देती है.

हिमाचल प्रदेश की संस्कृति
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Published : Sep 25, 2021, 3:33 PM IST

Updated : Jan 4, 2022, 6:45 PM IST

कुल्लू: वो मर कर फिर जिंदा होता है. विश्वास करना जरा कठिन है पर हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में होने वाले काहिका उत्सव में हजारों लोगों की आंखों के सामने ऐसा होता है. यहां पर दैवीय शक्ति से एक व्यक्ति को मार दिया जाता है और फिर वही दैवीय शक्ति उसे जिंदा भी कर देती है. यह अविश्वसनीय घटना मंडी व जिला कुल्लू के पहाड़ी ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलती है. शिमला, सिरमौर के इलाकों में भी पहले इसी तरह की नरमेध परंपरा का पालन किया जाता था.

इस उत्सव में अगर देवता अपनी शक्ति का प्रमाण नहीं दे पाए और व्यक्ति की मृत्यु हो जाए तो देवरथ को भी उसी व्यक्ति के शव के साथ जलाया जाता है. वहीं, मृतक व्यक्ति की पत्नी को देवता की पूरी संपत्ति सौंप दी जाती है और फिर उस देवता का काहिका उत्सव दोबारा नहीं मनाया जाता है. काहिका उत्सव के दौरान यहां दूर-दूर से लोग मेले में देवता के दर्शन करने और मेले में हिस्सा लेने के लिए आते हैं.

काहिका मेले के दौरान देवता के पुजारी, जिन्हें स्थानीय भाषा में गुर कहा जाता है, देवता की शक्ति का बखूबी प्रदर्शन करते हैं. वे देवता का आवाह्न करते हुए देव वाद्य यंत्रों की धुन पर नृत्य करते हैं. तीन दिन तक चलने वाले इस उत्सव में हजारों साल पुरानी देव संस्कृति का निर्वहन किया जाता है. काहिका उत्सव में जीवन और मृत्यु की चर्चा की जाती है. देवता के गुर (पुजारी) द्वारा जीवन मृत्यु से सम्बंधित कहानी सुनाई जाती है और इस दौरान पाप -पुण्य से सम्बंधित चर्चा होती है.

वास्तव में काहिका उत्सव पाप-पुण्य, जीवन और मृत्यु के चक्कर से छुटकारा पाने का रास्ता दिखाता है. जिन लोगों ने अपने जीवन में कुछ बुरा कर्म, पाप या किसी का अहित अथवा बुरा किया हो तो वे लोग काहिका उत्सव में अपने पाप कर्मो का प्रायश्चित करते हैं. इससे उन्हें उनके बुरे कर्मों से छुटकारा मिल जाता है और वे अपने इस जन्म के पाप से मुक्त हो जाते हैं. काहिका उत्सव के दौरान यहां देव शक्ति को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है.

उत्सव के अंतिम दिन देव शक्ति से उक्त व्यक्ति जिसे स्थानीय भाषा मे नड़ कहा जाता है वो, देव खेल के समय में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है. इस दौरान उसके परिवारजन वहीं पर उपस्थित होते हैं. नड़ की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी भी किसी विधवा स्त्री की तरह ही कपड़े पहन लेती है, माथे का सिन्दूर मिटा देती है और कलाई से चूड़ियां भी निकाल देती है. उस समय वहां का माहौल गमगीन हो जाता है, लेकिन कुछ समय बाद देव शक्ति से ही वो पुजारी फिर से जीवित हो जाता है. उत्सव के दौरान यहां लोग सबके सामने, अपशब्द और अश्लील शब्दों का प्रयोग भी करते हैं और एक दूसरे को अपशब्द भी कहते हैं.

यहां लकड़ी से बने लिंगों का प्रयोग किया जाता है. नड़ के परिवार से सम्बंधित महिलाएं और पुरुष इन लिंगों को हाथ में लेकर देव नृत्य करते हैं. इस दौरान इन बातों का कोई बुरा नहीं मानता. माना जाता है कि इन सब क्रियाओं से बुरी शक्तियों का प्रभाव समाप्त हो जाता है और ऐसा करने वालों के पाप भी कम हो जाते हैं. वास्तव में ये सदियों पुरानी देव प्रथाएं हैं.

काहिका उत्सव के दौरान शाम के समय जब दिन ढलने वाला होता है तो उस वक्त इस उत्सव की मुख्य रस्म निभाई जाती है. नड़ का देवता की तरफ से चयन किया जाता है फिर उक्त व्यक्ति यानी नड़ को दैवीय शक्तियों के द्वारा मूर्छित किया जाता है. माना जाता है कि मूर्छित करने के साथ ही उसकी मौत भी हो जाती है.

इस दौरान जौ के आटे को हवा में उछाला जाता है, ताकि कोई बाधा न आए. शव को देवता के मंदिर में ले जाया जाता है और वहां पर देवता का पुजारी मूर्छित नड़ के कान में कहता है कि उसे देवता बुला रहा है और इसी के साथ मूर्छित हुआ नड़ फिर से जीवित हो जाता है.

वहीं, यदि नड़ कभी जीवित न हो सका तो देवता की करोड़ों की संपत्ति उसके परिवार को दे दी जाएगी. देव आदेश पर क्षेत्र की सुख-समृद्धि व खुशहाली के लिए काहिका का आयोजन किया जाता है. काहिका करने के बाद सभी पाप खंडित हो जाते हैं. मान्यता है कि अगर काहिका उत्सव में नड़ जीवित नहीं होता है तो देवता के रथ की सारी संपत्ति नड़ की पत्नी को देनी पड़ती है.

देवता छमाहू के पुजारी धनेश गौतम ने बताया कि पुराने समय में पहाड़ी क्षेत्र में राक्षसों का आतंक हुआ करता था. राक्षसों का अंत करने के लिए सभी देवताओं ने काहिका पर्व मनाने की सलाह दी और उसके बाद से लेकर समय-समय पर काहिका पर्व का आयोजन किया जाता है. उन्होंने बताया कि अगर काहिका पर्व के दौरान देवता नड़ को जिंदा नहीं कर पाता है तो श्रद्धालुओं के सामने देवता का रथ जला देते हैं और देवता की सारी सम्पत्ति नड़ की पत्नी को सौंप दी जाती है.

जिला कुल्लू में काहिका उत्सव तारापुर, भल्याणी, मथाण, धारला, लरणकेलों, यार, भेखली, पुईद, शिरड, बशौणा, दरपोईंण, छमाहण, नरोगी, हवाई, त्यून, धारा, तादला, काईस, रुमसु व सोयल में मनाया जाता है. जिला कुल्लू के देव समाज से जुड़े साहित्यकार एवं सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ सूरत ठाकुर का कहना है कि देवभूमि कुल्लू में नड़ मारने की प्रक्रिया हर स्थान पर अलग-अलग है.

शिरड़ और दरपोइन जगहों पर तीर चला कर नड़ को मारा जाता है. वहीं, भेखली में मंत्रों से और बशौणा में चरणामृत पिलाकर नड़ को मारा जाता है. कई लोग नड़ को मारने के बाद उसे सुई चुभा कर या चुटकी काटकर भी देखते हैं और उसके बाद नड़ की मृत्यु को पूर्ण मानते हैं.

उन्होंने बताया कि देवराज इंद्र को गौतम ऋषि का श्राप था और उस श्राप के निवारण के लिए भगवान विष्णु ने नट व नटी को धरती पर भेजा था. नट व नटी ने धरती पर काया यज्ञ का आयोजन किया. इसी यज्ञ को बाद में काहिका का नाम दिया गया. इसी यज्ञ के कारण ही देवराज इंद्र गौतम ऋषि के श्राप से मुक्त हुए और आज भी देवराज इंद्र के पाप के प्रायश्चित को काहिका उत्सव के रूप में मनाया जाता है. इस काहिका उत्सव में स्थानीय लोग भी अपने पापों का प्रायश्चित करते है.

वहीं, जिला कुल्लू में काहिका की शुरूआत हजारों साल पहले ऊझी घाटी स्थित शिरड़ में हुई. स्थानीय किवदंती के अनुसार स्थानीय नाग देवता साधु के रूप में आ रहा था तो उसे रास्ते में साधु के रूप में एक नड़ मिल गया. साधु के रूप में नाग देवता स्थानीय ठाकुर के पास जाकर आटा मांगने लगा और नड़ को नमक पीसने के कार्य में लगा दिया. ठाकुरों ने उसे आटा नहीं दिया और उसका अपमान कर दिया. उसके बाद साधु के रूप में नाग देवता हिमरी की ओर चला गया.

वहां पर जाकर भारी बारिश देकर बाढ़ द्वारा ठाकुरों का नाश कर दिया. साधु जब वापस आया तो देखा कि नड़ भूख से मर गया है. देवता ने अपने आप को उसकी मौत के लिए अपराधी माना और काहिका के रूप में पश्चताप किया. हर काहिका में नड़ की पुनरावृत्ति की जाती है और देवता इस घटना का वर्णन गुर के माध्यम से करता है. तब से लेकर हर वर्ष काहिका में नड़ को मारने के बाद जीवित करने की देव परंपरा निभाई जाती है.

Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं. ETV BHARAT इनकी पुष्टि नहीं करता है.

ये भी पढ़ें: बाहरी राज्यों के लोगों को सरकार बांट रही नौकरी, प्रदेश में हजारों युवा बेरोजगार: विक्रमादित्य

कुल्लू: वो मर कर फिर जिंदा होता है. विश्वास करना जरा कठिन है पर हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में होने वाले काहिका उत्सव में हजारों लोगों की आंखों के सामने ऐसा होता है. यहां पर दैवीय शक्ति से एक व्यक्ति को मार दिया जाता है और फिर वही दैवीय शक्ति उसे जिंदा भी कर देती है. यह अविश्वसनीय घटना मंडी व जिला कुल्लू के पहाड़ी ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलती है. शिमला, सिरमौर के इलाकों में भी पहले इसी तरह की नरमेध परंपरा का पालन किया जाता था.

इस उत्सव में अगर देवता अपनी शक्ति का प्रमाण नहीं दे पाए और व्यक्ति की मृत्यु हो जाए तो देवरथ को भी उसी व्यक्ति के शव के साथ जलाया जाता है. वहीं, मृतक व्यक्ति की पत्नी को देवता की पूरी संपत्ति सौंप दी जाती है और फिर उस देवता का काहिका उत्सव दोबारा नहीं मनाया जाता है. काहिका उत्सव के दौरान यहां दूर-दूर से लोग मेले में देवता के दर्शन करने और मेले में हिस्सा लेने के लिए आते हैं.

काहिका मेले के दौरान देवता के पुजारी, जिन्हें स्थानीय भाषा में गुर कहा जाता है, देवता की शक्ति का बखूबी प्रदर्शन करते हैं. वे देवता का आवाह्न करते हुए देव वाद्य यंत्रों की धुन पर नृत्य करते हैं. तीन दिन तक चलने वाले इस उत्सव में हजारों साल पुरानी देव संस्कृति का निर्वहन किया जाता है. काहिका उत्सव में जीवन और मृत्यु की चर्चा की जाती है. देवता के गुर (पुजारी) द्वारा जीवन मृत्यु से सम्बंधित कहानी सुनाई जाती है और इस दौरान पाप -पुण्य से सम्बंधित चर्चा होती है.

वास्तव में काहिका उत्सव पाप-पुण्य, जीवन और मृत्यु के चक्कर से छुटकारा पाने का रास्ता दिखाता है. जिन लोगों ने अपने जीवन में कुछ बुरा कर्म, पाप या किसी का अहित अथवा बुरा किया हो तो वे लोग काहिका उत्सव में अपने पाप कर्मो का प्रायश्चित करते हैं. इससे उन्हें उनके बुरे कर्मों से छुटकारा मिल जाता है और वे अपने इस जन्म के पाप से मुक्त हो जाते हैं. काहिका उत्सव के दौरान यहां देव शक्ति को प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है.

उत्सव के अंतिम दिन देव शक्ति से उक्त व्यक्ति जिसे स्थानीय भाषा मे नड़ कहा जाता है वो, देव खेल के समय में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है. इस दौरान उसके परिवारजन वहीं पर उपस्थित होते हैं. नड़ की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी भी किसी विधवा स्त्री की तरह ही कपड़े पहन लेती है, माथे का सिन्दूर मिटा देती है और कलाई से चूड़ियां भी निकाल देती है. उस समय वहां का माहौल गमगीन हो जाता है, लेकिन कुछ समय बाद देव शक्ति से ही वो पुजारी फिर से जीवित हो जाता है. उत्सव के दौरान यहां लोग सबके सामने, अपशब्द और अश्लील शब्दों का प्रयोग भी करते हैं और एक दूसरे को अपशब्द भी कहते हैं.

यहां लकड़ी से बने लिंगों का प्रयोग किया जाता है. नड़ के परिवार से सम्बंधित महिलाएं और पुरुष इन लिंगों को हाथ में लेकर देव नृत्य करते हैं. इस दौरान इन बातों का कोई बुरा नहीं मानता. माना जाता है कि इन सब क्रियाओं से बुरी शक्तियों का प्रभाव समाप्त हो जाता है और ऐसा करने वालों के पाप भी कम हो जाते हैं. वास्तव में ये सदियों पुरानी देव प्रथाएं हैं.

काहिका उत्सव के दौरान शाम के समय जब दिन ढलने वाला होता है तो उस वक्त इस उत्सव की मुख्य रस्म निभाई जाती है. नड़ का देवता की तरफ से चयन किया जाता है फिर उक्त व्यक्ति यानी नड़ को दैवीय शक्तियों के द्वारा मूर्छित किया जाता है. माना जाता है कि मूर्छित करने के साथ ही उसकी मौत भी हो जाती है.

इस दौरान जौ के आटे को हवा में उछाला जाता है, ताकि कोई बाधा न आए. शव को देवता के मंदिर में ले जाया जाता है और वहां पर देवता का पुजारी मूर्छित नड़ के कान में कहता है कि उसे देवता बुला रहा है और इसी के साथ मूर्छित हुआ नड़ फिर से जीवित हो जाता है.

वहीं, यदि नड़ कभी जीवित न हो सका तो देवता की करोड़ों की संपत्ति उसके परिवार को दे दी जाएगी. देव आदेश पर क्षेत्र की सुख-समृद्धि व खुशहाली के लिए काहिका का आयोजन किया जाता है. काहिका करने के बाद सभी पाप खंडित हो जाते हैं. मान्यता है कि अगर काहिका उत्सव में नड़ जीवित नहीं होता है तो देवता के रथ की सारी संपत्ति नड़ की पत्नी को देनी पड़ती है.

देवता छमाहू के पुजारी धनेश गौतम ने बताया कि पुराने समय में पहाड़ी क्षेत्र में राक्षसों का आतंक हुआ करता था. राक्षसों का अंत करने के लिए सभी देवताओं ने काहिका पर्व मनाने की सलाह दी और उसके बाद से लेकर समय-समय पर काहिका पर्व का आयोजन किया जाता है. उन्होंने बताया कि अगर काहिका पर्व के दौरान देवता नड़ को जिंदा नहीं कर पाता है तो श्रद्धालुओं के सामने देवता का रथ जला देते हैं और देवता की सारी सम्पत्ति नड़ की पत्नी को सौंप दी जाती है.

जिला कुल्लू में काहिका उत्सव तारापुर, भल्याणी, मथाण, धारला, लरणकेलों, यार, भेखली, पुईद, शिरड, बशौणा, दरपोईंण, छमाहण, नरोगी, हवाई, त्यून, धारा, तादला, काईस, रुमसु व सोयल में मनाया जाता है. जिला कुल्लू के देव समाज से जुड़े साहित्यकार एवं सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ सूरत ठाकुर का कहना है कि देवभूमि कुल्लू में नड़ मारने की प्रक्रिया हर स्थान पर अलग-अलग है.

शिरड़ और दरपोइन जगहों पर तीर चला कर नड़ को मारा जाता है. वहीं, भेखली में मंत्रों से और बशौणा में चरणामृत पिलाकर नड़ को मारा जाता है. कई लोग नड़ को मारने के बाद उसे सुई चुभा कर या चुटकी काटकर भी देखते हैं और उसके बाद नड़ की मृत्यु को पूर्ण मानते हैं.

उन्होंने बताया कि देवराज इंद्र को गौतम ऋषि का श्राप था और उस श्राप के निवारण के लिए भगवान विष्णु ने नट व नटी को धरती पर भेजा था. नट व नटी ने धरती पर काया यज्ञ का आयोजन किया. इसी यज्ञ को बाद में काहिका का नाम दिया गया. इसी यज्ञ के कारण ही देवराज इंद्र गौतम ऋषि के श्राप से मुक्त हुए और आज भी देवराज इंद्र के पाप के प्रायश्चित को काहिका उत्सव के रूप में मनाया जाता है. इस काहिका उत्सव में स्थानीय लोग भी अपने पापों का प्रायश्चित करते है.

वहीं, जिला कुल्लू में काहिका की शुरूआत हजारों साल पहले ऊझी घाटी स्थित शिरड़ में हुई. स्थानीय किवदंती के अनुसार स्थानीय नाग देवता साधु के रूप में आ रहा था तो उसे रास्ते में साधु के रूप में एक नड़ मिल गया. साधु के रूप में नाग देवता स्थानीय ठाकुर के पास जाकर आटा मांगने लगा और नड़ को नमक पीसने के कार्य में लगा दिया. ठाकुरों ने उसे आटा नहीं दिया और उसका अपमान कर दिया. उसके बाद साधु के रूप में नाग देवता हिमरी की ओर चला गया.

वहां पर जाकर भारी बारिश देकर बाढ़ द्वारा ठाकुरों का नाश कर दिया. साधु जब वापस आया तो देखा कि नड़ भूख से मर गया है. देवता ने अपने आप को उसकी मौत के लिए अपराधी माना और काहिका के रूप में पश्चताप किया. हर काहिका में नड़ की पुनरावृत्ति की जाती है और देवता इस घटना का वर्णन गुर के माध्यम से करता है. तब से लेकर हर वर्ष काहिका में नड़ को मारने के बाद जीवित करने की देव परंपरा निभाई जाती है.

Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं. ETV BHARAT इनकी पुष्टि नहीं करता है.

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Last Updated : Jan 4, 2022, 6:45 PM IST
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