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चौटाला परिवार के लिए चुनाव से बड़ा है विरासत का युद्ध ?

इनेलो-जेजेपी में ताऊ देवीलाल की विरासत के लिए जो जंग कुछ महीनों पहले शुरू हुई थी.लोकसभा चुनाव के दौरान उसमें तेजी आई है और माना ये जा रहा है कि 2019 का ये चुनाव तय कर देगा कि जनता किसे ताऊ देवीलाल की विरासत का हक़दार मानती है.

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Published : Apr 14, 2019, 3:19 PM IST

Updated : Apr 14, 2019, 5:49 PM IST

विरासत का युद्ध ?

चडीगढ़: देश भर में राजनीतिक पार्टियां युद्ध स्तर पर लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं.लेकिन हरियाणा में दो पार्टियां ऐसी हैं जो लोकसभा चुनाव के युद्ध से भी बड़े स्तर पर विरासत का युद्ध लड़ रही हैं.दरअसल कुछ महीनों पहले ही ताऊ देवीलाल के पोते अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला ने अपनी पार्टी बना ली और इनेलो में अभय चौटाला का एकछत्र राज कायम हो गया. इसके बाद जींद विधानसभा में उपचुनाव हुआ तो जेजेपी की तरफ से दिग्विजय चौटाला मैदान उतरे हालांकि वो चुनाव हार गए और बीजेपी के कृष्ण मिड्ढा ने चुनाव जीत लिया लेकिन जेजेपी ने इस हार को भी जीत की तरह पेश किया क्योंकि वोटों के लिहाज से दिग्विजय चौटाला इनेलो प्रत्याशी से कहीं आगे रहे थे.इस चुनाव में दुष्यंत चौटाला ने लगातार कहा कि उनकी पार्टी ताऊ देवीलाल के पदचिन्हों पर चलेगी.मतलब दुष्यंत चौटाला ताऊ देवीलाल की विरासत पर दावा ठोक रहे थे.इसी विरासत के सहारे इनेलो भी अपनी नैया पार लगाने की कोशिश करने में लगी है.

देवीलाल की विरासत पर लड़ाई क्यों ?
ताऊ देवीलाल को आज भी हरियाणा में सबसे बड़े जनाधार वाला नेता माना जाता है.देवीलाल गांव-देहात की नब्ज को गहराई से समझते थे और आखिर तक वो लोगों की नजर में बेहद सीधे-सरल राजनीतिज्ञ बने रहे.वो कभी भी चुनौती स्वीकारने से पीछे नहीं हटते थे.देवीलाल ने न सिर्फ हरियाणा की अलग-अलग सीटों से चुनाव लड़ा बल्कि पंजाब और राजस्थान में जाकर भी वो चुनाव लड़े.जब एसवाइएल को लेकर राजीव-लोंगोवाल समझौता हुआ तो देवीलाल ने हरियाणा में पदयात्रा कर न्याय युद्ध छेड़ दिया.जिसके बाद सत्तारूढ़ कांग्रेस को 1987 के चुनाव में मात्र 5 सीटें ही मिल सकीं और एक बार फिर देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री बने.हरियाणा में बुढ़ापा पेंशन की शुरुआत भी देवीलाल ने ही की थी.1989 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने के लिए उत्तर भारत में तूफानी दौरे किये नतीजा ये हुआ कि वीपी सिंह के मोर्चे ने 146 सीटें हासिल कीं.लेकिन गठबंधन के सांसदों ने देवीलाल को संसदीय दल का नेता चुन लिया.बावजूद इसके देवीलाल ने अपना वादा निभाया और वीपी सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौप दी.इस एक फैसले से हरियाणा में ताऊ के नाम से पहचान रखने वाले देवीलाल पूरे देश में ताऊ के नाम से प्रसिद्ध हो गए.उप प्रधानमंत्री तक के पद पर रहने वाले ताऊ देवीलाल की इसी विरासत पर इनेलो और जेजेपी दोनों कब्जा करना चाहती हैं.क्योंकि ये विरासत उन्हें कुर्सी के करीब लेकर जाएगी.

किसकी दावेदारी कितनी मज़बूत ?
ताऊ देवीलाल की विरासत पर इनेलो और जेजेपी दोनों दावेदारी कर रही हैं.जेजेपी ने तो अपनी पार्टी का नाम ही जननायक जनता पार्टी रखा है और झंडे में देवीलाल को फोटो भी लगाया है.मतलब जेजेपी इनेलो से खुद को अलग करके देवीलाल के नाम को भुनाना चाहती है.लेकिन इनेलो ओपी चौटाला के नाम के साथ देवीलाल की विरासत पर अपना हक बताती है.हालांकि कुछ राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जींद उपचुनाव में जनता ने अपना रुझान दे दिया था जहां इनेलो से जेजेपी काफी आगे रही थी.लेकिन ठीक इसके उलट कुछ लोग ये भी मानते हैं कि किसी एक सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजे से आप पूरे प्रदेश के लिए धारणा नहीं बना सकते.इसीलिए लोकसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार करना चाहिए.उसके बाद साफ हो जाएगा कि ताऊ देवीलाल की विरासत किसे मिली है.

पहले भी बिखरा है चौटाला परिवार
दुष्यंत चौटाला का अपने दादा और चाचा को छोड़ नई पार्टी बनाना चौटाला परिवार के लिए ये गाथा कोई नई नहीं है इससे पहले जब देवीलाल जिंदा थे तब भी चौटाला परिवार ने ऐसे दिन देखे थे क्योंकि देवीलाल के 4 बेटों में से दो सक्रिय राजनीति का हिस्सा हैं ओमप्रकाश चौटाला और रणजीत चौटाला.दोनों के बीच एक वक्त उत्तराधिकार के लिए जंग शुरु हुई जिसमें ओपी चौटाला जीते और रणजीत चौटाला कांग्रेस में शामिल हो गए.यही अब भी हुआ ओपी चौटाला और अजय चौटाला के जेल जाने के बाद चाचा-भतीजों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई शुरू हुई जिसका नतीजा जेजेपी के रूप में आपके सामने है.

चडीगढ़: देश भर में राजनीतिक पार्टियां युद्ध स्तर पर लोकसभा चुनाव लड़ रही हैं.लेकिन हरियाणा में दो पार्टियां ऐसी हैं जो लोकसभा चुनाव के युद्ध से भी बड़े स्तर पर विरासत का युद्ध लड़ रही हैं.दरअसल कुछ महीनों पहले ही ताऊ देवीलाल के पोते अजय चौटाला के बेटे दुष्यंत चौटाला ने अपनी पार्टी बना ली और इनेलो में अभय चौटाला का एकछत्र राज कायम हो गया. इसके बाद जींद विधानसभा में उपचुनाव हुआ तो जेजेपी की तरफ से दिग्विजय चौटाला मैदान उतरे हालांकि वो चुनाव हार गए और बीजेपी के कृष्ण मिड्ढा ने चुनाव जीत लिया लेकिन जेजेपी ने इस हार को भी जीत की तरह पेश किया क्योंकि वोटों के लिहाज से दिग्विजय चौटाला इनेलो प्रत्याशी से कहीं आगे रहे थे.इस चुनाव में दुष्यंत चौटाला ने लगातार कहा कि उनकी पार्टी ताऊ देवीलाल के पदचिन्हों पर चलेगी.मतलब दुष्यंत चौटाला ताऊ देवीलाल की विरासत पर दावा ठोक रहे थे.इसी विरासत के सहारे इनेलो भी अपनी नैया पार लगाने की कोशिश करने में लगी है.

देवीलाल की विरासत पर लड़ाई क्यों ?
ताऊ देवीलाल को आज भी हरियाणा में सबसे बड़े जनाधार वाला नेता माना जाता है.देवीलाल गांव-देहात की नब्ज को गहराई से समझते थे और आखिर तक वो लोगों की नजर में बेहद सीधे-सरल राजनीतिज्ञ बने रहे.वो कभी भी चुनौती स्वीकारने से पीछे नहीं हटते थे.देवीलाल ने न सिर्फ हरियाणा की अलग-अलग सीटों से चुनाव लड़ा बल्कि पंजाब और राजस्थान में जाकर भी वो चुनाव लड़े.जब एसवाइएल को लेकर राजीव-लोंगोवाल समझौता हुआ तो देवीलाल ने हरियाणा में पदयात्रा कर न्याय युद्ध छेड़ दिया.जिसके बाद सत्तारूढ़ कांग्रेस को 1987 के चुनाव में मात्र 5 सीटें ही मिल सकीं और एक बार फिर देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री बने.हरियाणा में बुढ़ापा पेंशन की शुरुआत भी देवीलाल ने ही की थी.1989 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो देवीलाल ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने के लिए उत्तर भारत में तूफानी दौरे किये नतीजा ये हुआ कि वीपी सिंह के मोर्चे ने 146 सीटें हासिल कीं.लेकिन गठबंधन के सांसदों ने देवीलाल को संसदीय दल का नेता चुन लिया.बावजूद इसके देवीलाल ने अपना वादा निभाया और वीपी सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौप दी.इस एक फैसले से हरियाणा में ताऊ के नाम से पहचान रखने वाले देवीलाल पूरे देश में ताऊ के नाम से प्रसिद्ध हो गए.उप प्रधानमंत्री तक के पद पर रहने वाले ताऊ देवीलाल की इसी विरासत पर इनेलो और जेजेपी दोनों कब्जा करना चाहती हैं.क्योंकि ये विरासत उन्हें कुर्सी के करीब लेकर जाएगी.

किसकी दावेदारी कितनी मज़बूत ?
ताऊ देवीलाल की विरासत पर इनेलो और जेजेपी दोनों दावेदारी कर रही हैं.जेजेपी ने तो अपनी पार्टी का नाम ही जननायक जनता पार्टी रखा है और झंडे में देवीलाल को फोटो भी लगाया है.मतलब जेजेपी इनेलो से खुद को अलग करके देवीलाल के नाम को भुनाना चाहती है.लेकिन इनेलो ओपी चौटाला के नाम के साथ देवीलाल की विरासत पर अपना हक बताती है.हालांकि कुछ राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जींद उपचुनाव में जनता ने अपना रुझान दे दिया था जहां इनेलो से जेजेपी काफी आगे रही थी.लेकिन ठीक इसके उलट कुछ लोग ये भी मानते हैं कि किसी एक सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजे से आप पूरे प्रदेश के लिए धारणा नहीं बना सकते.इसीलिए लोकसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार करना चाहिए.उसके बाद साफ हो जाएगा कि ताऊ देवीलाल की विरासत किसे मिली है.

पहले भी बिखरा है चौटाला परिवार
दुष्यंत चौटाला का अपने दादा और चाचा को छोड़ नई पार्टी बनाना चौटाला परिवार के लिए ये गाथा कोई नई नहीं है इससे पहले जब देवीलाल जिंदा थे तब भी चौटाला परिवार ने ऐसे दिन देखे थे क्योंकि देवीलाल के 4 बेटों में से दो सक्रिय राजनीति का हिस्सा हैं ओमप्रकाश चौटाला और रणजीत चौटाला.दोनों के बीच एक वक्त उत्तराधिकार के लिए जंग शुरु हुई जिसमें ओपी चौटाला जीते और रणजीत चौटाला कांग्रेस में शामिल हो गए.यही अब भी हुआ ओपी चौटाला और अजय चौटाला के जेल जाने के बाद चाचा-भतीजों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई शुरू हुई जिसका नतीजा जेजेपी के रूप में आपके सामने है.

Intro:चंडीगढ़, लोकसभा के आम चुनावो में एक महीना भर भी नहीं बचा है। हरियाणा में सभी दस सीटों के लिए चुनावों के छठे चरण में 12 मई को वोट पड़ेंगे। कांग्रेस ने अपने छह उम्मीदवार मैदान में उतार दिए है तो वहीं भाजपा ने आठ उम्मीदवार फ़ाइनल कर प्रचार में लगा दिए हैं। इधर चुनावों से ठीक पहले इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) दो फाड़ हो कर अपने वर्चस्व को बचाने में लगी है। इनेलो के वरिष्ठ नेता अभय सिंह चौटाला विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा दे चुके हैं। पार्टी के दो विधायक रणबीर सिंह गंगवा और केहर सिंह रावत भी अपने पदों से इस्तीफे दे कर भाजपा का दामन थाम चुके हैं। पार्टी के चार अन्य विधायक नैना सिंह चौटाला, अनूप धानक, राजदीप फौगाट और पृथ्वी सिंह नंबरदार की आस्था इनेलो के बजाये नई बनी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) में है।

   इन चारों विधायकों की सदस्यता खत्म कराने के लिए विपक्ष के नेता के तौर पर अभय चौटाला ने विधानसभा अध्यक्ष कंवरपाल सिंह को चिट्ठी दी हुई है। चारों विधायकों को स्पीकर ने जवाब देने के लिए कहा है। जवाब के लिए इन सभी ने स्पीकर से चार हफ्ते का समय मांग लिया है। इस मामले में कब तक फैसला आएगा, अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना ज़रूर है कि इससे दोनों पक्षों में तल्खियां और बढ़ सकती हैं। इस लड़ाई के बाद ही यह सवाल उठने लगे हैं कि पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल के इतने बड़े राजनीतिक कद तक आखिर कौन पहुँचेगा ?

 


Body:अभी हालही में जींद विधानसभा क्षेत्र के लिए उप चुनाव हो चुका है। उप चुनाव में भाजपा उम्मीदवार डॉ. कृष्ण मिड्ढा ने जीत दर्ज की थी। जेजेपी के उम्मीदवार दिग्विजय सिंह चौटाला दूसरे स्थान पर रहे थे और इनेलो उम्मीदवार उमेद लोहान की जमानत जब्त हो गई थी। राजनीति के जानकारों का कहना है कि उप चुनाव में इनेलो से जेजेपी बहुत आगे थी और इससे लोगों के रुझान को समझा जा सकता है कि दोनों पार्टियों में वे किसको ज्यादा महत्व दे रहे हैं। लेकिन कुछ राजनीतिक पंडितों का मानना है कि एक सीट के उप चुनाव के नतीजे से कोई धारणा बनाने के बजाये लोकसभा चुनावों के परिणाम आने तक इन्तजार करना चाहिए। 

 


Conclusion:यहां यह उल्लेखनीय है कि चौधरी देवीलाल का परिवार विपरीत परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोता। लड़ाई में पीछे नहीं हटता। किसी चुनाव परिणाम से उसका हौंसला कमजोर नहीं पड़ता, लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि हार से पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल जरूर टूटता है। इनेलो पिछले पंद्रह साल से सत्ता में नहीं है और परिवार की फूट ने आगे की संभावनाओं पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। लोकसभा चुनावों में पार्टी को ऐसी कामयाबी मिलने की उम्मीद नहीं हैं, जो पार्टी के वरिष्ठ नेता अभय चौटाला और सांसद दुष्यंत चौटाला के एकजुट रहते मिल सकती थी। 

  इनेलो की टूट से खाली हुई जगह पर भाजपा कब्जे करने की कोशिश में है। राज्य में इनेलो के मजबूत रहते चुनावी लड़ाई के तिकोनी रहने के आसार थे, लेकिन अभी संघर्ष में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस रहती नजर आ रही है। भाजपा ने पिछले चुनाव में राज्य की दस में से सात सीटों पर जीत हासिल की थी और अब पार्टी सभी दस सीटों पर जीत का दावा करने लगी है। इसमें कोई शक नहीं है कि केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ होने की वजह से भाजपा कार्यकर्ताओं के हौंसले काफी बढे हुए हैं।  

  अपने बलबूते देश की राजनीति की दिशा-दशा बदलने वाले पूर्व उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की पुण्य तिथि 6 अप्रैल को मनाई गई है। उन्होंने 6 अप्रैल, 2001 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। तब वे 87 वर्ष के थे। भले ही लंबे समय वे सत्ता में नहीं रहे हों, लेकिन हरियाणा की राजनीति में आज भी उन्हें सबसे बड़े जनाधार वाला नेता माना जाता है। गांव-देहात की नब्ज को गहराई से समझने वाले देवीलाल ने राजनीति में कितनी ही ऊंचाइयां क्यों न छुई हों, लेकिन आखिर तक लोगों की नजर में वे एक बेहद सीधे-सरल राजनीतिज्ञ थे। सत्ता में रहते हुए भी उनका व्यवहार विपक्ष के नेताओं जैसा ही रहता था।  

  राजनीति के मैदान में रहते देवीलाल किसी चुनौती को स्वीकार करने में कभी पीछे नहीं हटे। हर चुनाव उनके लिए एक पर्व की तरह होता था। वे कहीं से भी खड़े हो जाते थे। वे हरियाणा में ही अलग-अलग सीटों से नहीं लड़े, बल्कि राजस्थान और पंजाब से भी लड़ने में गुरेज नहीं किया था। देवीलाल ने राजीव-लौंगोवाल समझौते के खिलाफ, हरियाणा में पद यात्रा कर न्याय युद्ध के जरिए जहां 1987 के विधानसभा चुनावों में सत्तारूढ़ कांग्रेस को राज्य की कुल 90 सीटों में केवल 5 सीटों पर समेट दिया था। इससे पहले वे 1977 में जनता पार्टी की लहार के दौरान भी हरियाणा के मुख्यमंत्री बन चुके थे।

  इसके बाद वर्ष 1989 के लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत के राज्यों का तूफानी दौरा कर पूर्व केंद्रीय मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में भी देवीलाल ने अहम भूमिका निभाई थी। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के नजदीक पहुंच कर भी देवीलाल ने जनता से किया वादा निभाया और उन्होंने संसदीय दल का नेता चुने जाने के बावजूद खुद प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बजाये लोगों से किये वादे के मुताबिक विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया। अपने इस एक फैसले से हरियाणा में ताऊ के नाम से जाने जाने वाले देवीलाल सचमुच जगत ताऊ हो गए थे। 

   मुख्यमंत्री रहते देवीलाल ने ही बुजुर्गों को सम्मान दिलाने के लिए सौ रुपए महीना पेंशन शुरु की थी। बाद की सरकारें इसे बंद करने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं। बुढ़ापा पेंशन की राशि अब बढ़ते-बढ़ते दो हजार रुपए महीने हो गई है। आने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, बुजुर्गों के वोट हासिल करने के इरादे से अब ज्यादातर पार्टियां सत्ता में आने के बाद बुजुर्ग सम्मान पेंशन की राशि को बढ़ा कर तीन हजार रुपए कर देने का वादा कर रही हैं। ऐसे चुनावी माहौल में यह सवाल उठने ही थे कि आने वाले समय में चौधरी देवीलाल की राजनीतिक विरासत का असली वारिस कौन होगा? 

Last Updated : Apr 14, 2019, 5:49 PM IST
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