हैदराबाद: मानसून ने केरल में अपनी दस्तक दे दी है. जिससे किसानों को काफी राहत मिली है. भारत में मानसून थोड़े देर से आया है जो कि चिंता का विषय है. मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बार औसत से कम बारिश होगी.
एक निजी मौसम भविष्यवक्ता स्काईमेट वेदर के अनुसार देश में प्री-मॉनसून वर्षा 65 वर्षों में दूसरी सबसे कम थी. तीन महीने के प्री-मॉनसून सीजन - मार्च, अप्रैल और मई में बारिश 25 प्रतिशत की कमी के साथ समाप्त हुई, जो कि चिंता का विषय है.
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इस साल एलपीए के 96-104% बराबर बारिश के लिए 'लगभग सामान्य' की नई कैटेगरी बनाई गई है. पिछले साल के पूर्वानुमान में 96-104% एलपीए के बराबर की बारिश को 'सामान्य' बताया गया था. एलपीए के 90-96% रहने पर 'सामान्य से कम' जबकि 96% को 'सामान्य से कम' और 'सामान्य' के बीच वाला स्तर माना जाता है. साल 1951-2000 की अवधि के लिए पूरे देश की बारिश का एलपीए 89 सेमी है.
यदि एलपीए 90-96 प्रतिशत के बीच में रहता है तो मानसून को सामान्य से नीचे माना जाएगा. एलपीए अगर 110 प्रतिशत से अधिक रहता है तो इसे सामान्य से अधिक माना जाएगा.
मानसून में भारत की खरीफ फसलों का पोषण होता है. जो जून और जुलाई में होती हैं. इसमें मुख्य रूप से अनाज - चावल, गेहूं, जौ, कपास, गन्ना और कई प्रकार की दालें शामिल होती हैं.
प्री-मॉनसून वर्षा को आम तौर पर सामान्य बारिश के रूप में संदर्भित किया जाता है, जो देश के कई हिस्सों के लिए महत्वपूर्ण है. ओडिशा, पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों और पश्चिमी घाटों में इस दौरान जुताई की जाती है. यह समय इन इलाकों के लिए फसल बोने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है.
हिमालय के वन क्षेत्र में सेब के रोपण के लिए प्री-मॉनसून वर्षा आवश्यक है. इस समय मानसून जंगल की आग को कम करने में मदद भी करती है.
चूंकि इस वर्ष प्री-मानसून कम था, किसानों को फसलों के रोपण के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ा. अब सामान्य या औसत से कम मानसून कृषि उत्पादन को और नुकसान पहुंचा सकते हैं.
अगर बारिश कम होती है तो कृषि उत्पादन को काफी प्रभावित होगा और अंततः फसल की कीमतों में तेजी से गिरावट का कारण बनेगी. इस तरह से किसानों की आय में कमी आएगी. बारिश की कमी के कारण कपड़ा और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के विकास कम होंगे.
वित्त वर्ष 2017-18 और 2018-19 में कृषि औसतन 4.7% रही और दो साल पहले की तुलना में दोगुनी तेजी से बढ़ी.
हालांकि, इस वित्तीय वर्ष में विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्षा में कमी के कारण उपभोक्ताओं को खाद्य पदार्थों के लिए अधिक भुगतान करना पड़ेगा.