पिछले दिनों एक घटना ने सबको झकझोर कर रख दिया, जब संभ्रांत परिवारों के बच्चों के एक समूह की सोशल नेटवर्किंग साइट पर हुई चैट सबके सामने आई. रेप तथा लड़कियों के लिए अभद्र भाषा से भरी नवकिशोरों की बातों से साफ झलक रहा था कि वह किस कदर अपराध की तरफ आकर्षित थे. ये ऐसा पहला मामला नहीं था, इसके अलावा भी छोटी उम्र में शारीरिक अपराधों के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही हैं. यही नहीं सेक्स, नशा और अभद्र भाषा आज की नई युवा पीढ़ी के लिए बहुत सामान्य मुद्दें बन गए है, आपसी चर्चा के दौरान. आखिर इसका कारण क्या है.
दुनिया जेब में
समय से पहले जवान होते बच्चों की मनोस्थिति को जानने के लिए सुखीभवा की टीम ने मनोचिकित्सक डॉ. वीना कृष्णन से बात की. टीनएज यानि 12 से 17 साल तक की उम्र बहुत नाजुक होती है. जहां बच्चे शारीरिक, मानसिक विकास और हार्मोनल बदलाव के दौर में जीते है. यह वह दौर होता है, जहां हर कोई काल्पनिक दुनिया में रहता हैं. साथ ही अपने अस्तित्व को समझने की जद्दोजहद में लगा हुआ होता है. लेकिन आज के दौर में युवा होने की दहलीज पर कदम रखते ये बच्चे डिजिटलीकरण का शिकार बन अपनी सोच को गलत दिशा में जाने से नहीं रोक पा रहे हैं.
जेब में दुनिया लेकर घूमने वाले बच्चे समय से पहले ही जवान हो रहे हैं. शारीरिक संबंधों में उत्सुकता और उससे जुड़े अपराध और उसपर हर तरह की निषेध जानकारियां, जो उनका फोन उन्हें उपलब्ध कराता है, उन्हें एक ऐसे जाल में फंसा रहा है, जहां फंस कर उनका भविष्य दांव पर लग सकता है.
व्यस्क सिनेमा का जाल
टीवी हो या फिल्म आज कल लगभग सभी माध्यम बेरोक-टोक अश्लील दृश्यों, गाली-गलौच वाली भाषा और अपराध परोसती हैं. हर इंसान जिसके पास फोन है, वह कभी भी कुछ भी देख सकता है. महिलाओं को तो ज्यादातर भोग की वस्तु के रूप में ही प्रचारित किया जाने लगा है. अपने चहेते कलाकारों की तरह व्यवहार करने और कई बार दूसरों के सामने अपने आपको ज्यादा कूल दिखाने की चाह में किशोर बच्चे उसी भाषा और सोच का अनुसरण करने लगते है, जो वह देखते है.
कूल या अनकूल
स्कूल में आजकल गर्लफ्रेंड और ब्वायफ्रेंड रखना एक फैशन बन गया है. फिल्मी संस्कृति को देखते हुए उनमें अंतरंगता बनाने को लेकर तथा दूसरों के सामने अपने प्यार का प्रदर्शन करने में कोई हिचक नहीं होती है. हिंदी गालियों को ये बच्चे स्लैंग कहते हैं और बिना किसी कारण के अपनी साधारण बोलचाल में भी इस्तेमाल में लाते हैं. और जो ऐसा नहीं करते हैं, वह 'अनकूल' कहलाते हैं.
डॉ. कृष्णन बताती हैं कि उनके पास ऐसे कई युवा आते हैं, जो स्कूल में पढ़ाई के 'परफार्मेंस फीयर' यानि पढ़ाई में बेहतर कर दिखाने की चिंता में नहीं, बल्कि अपनी कूल इमेज के खराब होने के डर के चलते तनाव में आ जाते हैं. और कई बार ऐसे बच्चे भी आते है, जो किसी न किसी तरह से अपने सहपाठियों द्वारा ही शारीरिक और मानसिक शोषण का शिकार बन जाते हैं.
खुद को परिपक्व दिखाने की होड़
उम्र के इस दौर में बच्चे ज्यादातर माता-पिता की बातें नहीं सुनते हैं. उन्हें लगता है कि उनके माता-पिता हर छोटी-बड़ी चीजों को लेकर निर्णयात्मक रवैया अपनाते हैं. न बड़ों और न छोटों की श्रेणी में आने वाले बच्चे इस समय स्वयं को दूसरों से परिपक्व और ज्यादा समझदार दिखाने की होड़ में लगे रहते है. जिससे कहीं न कहीं अभिभावकों के साथ उनकी बातचीत जरूरत आधारित ही रह जाती है. वहीं इस समय दोस्त और सहेलियां उन्हें सच्चे हमदर्द नजर आते हैं, जो उन्हें समझ सकते हैं. लेकिन जब वह एक समूह में चर्चा करते हैं, तो चाहे वह कोई नेटवर्किंग साइट हो या आमने सामने की बातचीत, उनके लिए स्वयं की श्रेष्ठता दिखाना या दूसरों से एक सीढ़ी उपर रहना ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. जिसके चलते कई बार वे अनैतिक हरकतों का सहारा लेने से भी नहीं हिचकते हैं.