नई दिल्ली: हिंदी साहित्य के आलोचक और साहित्यकार नामवर सिंह ने मंगलवार को इस दुनिया को अलविदा कह दिया. उन्होंने दिल्ली के एम्स अस्पताल में मंगलवार को ही11: 51 मिनट पर अंतिम सांस ली. उनका अंतिम संस्कार लोधी रोड पर स्थित श्मशान घाट पर किया गया है. जहां पर उनको मुखाग्नि उनके बेटे ने दिया.
बता दें कि उनके अंतिम दर्शन के लिए हिंदी साहित्य जगत कई बड़े साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार पहुंचे. इस दौरान उनके अंतिम दर्शन के लिए पहुंचे कवि अशोक चक्रधर ने कहा कि उनका जाने से अपूर्णीय क्षति है. अब हम दूसरा नामवर ला नहीं सकते हैं. दूसरा नामवर लाने के लिए सामाजिक हालात, संवेदनशीलता, मानवीय सरोकार जो आज के दौर में इतने घनत्व के साथ उपलब्ध नहीं है. उन्होंने बताया कि वर्ष 1970 के समय से उनसे मेरी मुलाकात है.
आखिरी बार मुलाकात एम्स में हुई
चक्रधर ने बताया कि उन्होंने विश्वविद्यालय में नियुक्ति कराई और पदोन्नति भी करवाया. उन्होंने कहा कि इतने महान प्रगतिशील और मार्क्सवादी समीक्षक अब मिलना मुश्किल है. साथ ही कहा कि मैं जिस भी पद पर रहा मुझे अगर किसी भी परामर्श की जरूरत हुई तो मैं उनके पास गया और मुझे निराशा नहीं हुई. उनका जाना मेरे लिए सबसे ज्यादा बड़ा नुकसान है. चक्रधर ने कहा कि उनके साथ हमारे पारिवारिक संबंध भी थे. वह मेरी पत्नी से पुत्री की तरह स्नेह करते थे.
उसका एक कारण रहा मेरी पत्नी का नाम बागेश्वरी और उनकी माता का नाम भी बागेश्वरी था. वो जब भी बागेश्वरी से मुलाकात करते थे उन्हें अपनी मां की याद आती थी. उन्हें मेरे घर के दही बड़े खाने में काफी आनंद आता था तो जब वक्त मिलता था बागेश्वरी भी उनके लिए दही बड़े बनाकर भेज देती थी और कई बार उनके दक्षिण दिल्ली में स्थित अलकनंदा में उनके घर जाते रहते थे. उन्होंने बताया कि हाल ही में उनसे आखिरी बार मुलाकात एम्स में हुई थी.
'आलोचना राजा के लिए भी जरूरी है'
वहीं नामवर सिंह को लेकर हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा ने कहा कि उन्होंने जिंदगी बिताया नहीं जिंदगी को जिया है. कोई व्यक्ति अगर एक उम्र के बाद जाता है तो मृत्यु नहीं मुक्ति होती है. आलोचना हर क्षेत्र में कर्मशील लोगों को सही राह दिखाती है. उन्होंने कहा कि अगर आलोचक नहीं होंगे तो लिखने - पढ़ने में हम अपनी मनमानी नहीं कर सकेंगे.
उन्होंने कहा कि आलोचना राजा के लिए भी जरूरी है अगर कोई राजा आलोचना बर्दाश्त नहीं करता है तो समझ लेना उसकी उल्टी गिनती शुरू होने वाली है. आलोचना व्यक्ति को सही राह दिखाती है उसमें नामवर सिंह जी का एक बड़ा नाम था जोकि अब हमारे बीच नहीं रहे हैं.
'वैचारिक मतभेद थे'
वहीं कवि अशोक वाजपेई ने कहा कि नामवर सिंह का जाना सिर्फ हिंदी जगत के लिए क्षति नहीं है, बल्कि व्यापक भारतीय साहित्य जगत के लिए क्षति है. अब उनके जैसा आलोचक साहित्य के क्षेत्र में कोई नहीं है. जितनी ख्याति उन्हें हिंदी के आलोचक के रूप में मिली वैसी किसी भी भाषा के क्षेत्र में आलोचक को नहीं मिली है.
उन्होंने बताया कि उन्हें पढ़ने लिखने का काफी शौक था. साथ ही कहा कि उनमें एक अद्भुत क्षमता थी जो कि साहित्य और राजनीतिक दोनों क्षेत्र को जोड़कर देखते थे. इसको लेकर उनके साथ कई बार मतभेद भी होता था. हिंदी के क्षेत्र में उनके जैसा अब कोई दूसरा वक्ता नहीं है. उनके जाने से इस क्षेत्र में शून्य आ गया है. वाजपेई ने कहा कि उनसे वैचारिक मतभेद भी रहे लेकिन उन्होंने कभी उन बातों का बुरा नहीं माना. साथ ही कहा कि वैचारिक मतभेदों के चलते कभी संबंधों में कटुता नहीं आई. इसके अलावा उन्होंने कहा कि वह अपने वैचारिक विरोधियों को शत्रु मानते थे, लेकिन इस दौर में तो और भी चीज का डर है.
'चुनाव जीतने के बारे में नहीं सोचते थे'
वही कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि उन्होंने प्रगतिशील आलोचना में सामाजिक वैचारिक साहित्य है का एक एजेंडा स्थापित कर दिया है. उनका इसमें एक बड़ा योगदान है. आज प्रगतिशील आलोचना डॉ नामवर सिंह की पद्धति से ही प्रभावित है. उन्होंने कहा कि हिंदी में वामपंथी आलोचना लाने में उनका बहुत बड़ा योगदान है. उनसे पहले हिंदी में सैद्धांतिक आलोचना थी.
उन्होंने कहा कि डॉ नामवर सिंह ने कहानी में भी एक नया एजेंडा तय किया जो कि उनकी कहानी में देखने को मिलती है. वहीं उनके राजनीति में हाथ आजमाने को लेकर मंगलेश डबराल ने कहा कि वह मार्क्सवादी पार्टी से जुड़े हुए थे लेकिन वह राजनीति में जाना नहीं चाहते थे. पार्टी का आदेश था तो उन्होंने चुनाव लड़ा पर जीतने के बारे में नहीं सोचते थे.