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Cauvery River Water Dispute : नदियां सभी के लिए एक साझा संसाधन - Supreme Courts decision in water dispute

कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के पानी को लेकर विवाद एक बार फिर सड़कों पर आ गया है. अचानक इस विवाद के फिर से उभरने के पीछे क्या कारण हैं, इसके संभावित खतरे क्या हैं और इसके लिए क्या किया जा सकता है. पढ़ें यह विशेष आलेख...

River Waters
प्रतिकात्मक तस्वीर
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Sep 28, 2023, 1:33 PM IST

सदियों पुराना कावेरी जल विवाद एक बार फिर से सड़कों पर आ गया है. कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच सौहार्द फीका पड़ गया है और पानी ने आग लगा दी है. कावेरी के पानी के हितधारकों के बीच विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया है. कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (सीडब्ल्यूएमए) ने अपने हालिया निर्देश में कर्नाटक को 15 दिनों की अवधि में तमिलनाडु को 5,000 क्यूसेक पानी छोड़ने का आदेश दिया है. इस निर्णय को कन्नड़ किसानों और 'कर्नाटक रक्षण वेदिके' के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा. जिसके परिणाम स्वरूप बेंगलुरु बंद रही.

इस विरोध का असर दूरगामी था, जिसका असर शैक्षणिक संस्थानों, छात्रावासों और परिवहन सेवाओं पर पड़ा. तमिलनाडु से आने वाली बसों को सीमावर्ती कृष्णागिरी जिले में रोक दिया गया. इन सूचनाओं से पता चलता है कि स्थिति कितनी गंभीर है. सवाल यह है कि अचानक क्या हुआ कि कावेरी के पानी को लेकर राजनीतिक आग एक बार फिर से भड़क गई.

अगस्त में तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान राज्य में काफी कम बारिश हुई. इसलिए किसानों को फसलों की सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए अदालत कर्नाटक सरकार को शीघ्र पानी छोड़ने का निर्देश दिया जाये. इस मामले में कर्नाटक सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि खराब मॉनसून के कारण ही वह भी तमिलनाडु के लिए कावेरी का पानी नहीं छोड़ सकते हैं.

तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने सीडब्ल्यूएमए के फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया. जिससे कावेरी बेसिन के किसानों और विभिन्न संगठनों के नेतृत्व में पूरे कर्नाटक में व्यापक विरोध प्रदर्शन का मंच तैयार हो गया. इस लंबे विवाद के इतिहास पर दोबारा गौर करना जरूरी है. फरवरी 2007 में एक ऐतिहासिक क्षण आया जब एक विशेष न्यायाधिकरण ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिससे जाहिर तौर पर वर्षों के संघर्ष का अंत हो गया.

सर्वोच्च न्यायालय को एक निश्चित निर्णय जारी करने में ग्यारह साल लग गए, जिसमें यह बताया गया कि कर्नाटक की ओर से तमिलनाडु को सालाना कितना पानी छोड़ा जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने पहले केंद्र को जल प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना करने का निर्देश दिया था, जिसमें इसकी संरचना और जिम्मेदारियों को सबसे छोटे विवरण में परिभाषित किया गया था. अफसोस की बात है कि मौजूदा स्थिति शीर्ष अदालत के आदेश के प्रति निष्ठा पर संदेह पैदा करती है, खासकर खराब मानसून के दौरान. स्थिति बिगड़ने पर कर्नाटक में बढ़ते जन आंदोलन के बीच सीडब्ल्यूएमए ने नए निर्देश जारी किए हैं.

मुख्य निर्देश में कर्नाटक-तमिलनाडु सीमा के दोनों ओर तनाव को कम करने के लिए 28 सितंबर से 15 अक्टूबर तक तीन हजार क्यूसेक की दर से पानी छोड़ना शामिल है. देखना यह है कि क्या यह समझौता दोनों राज्यों के बीच बढ़ते तनावों को शांत कर सकता है. क्योंकि ताजा विवाद दोनों राज्यों के बीच नाजुक संतुलन के लिए खतरा साबित हो सकता है.

पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में स्पष्ट रूप से रेखांकित किया था कि राज्य की सीमाओं से परे नदियां पूरे देश के लिए खजाना हैं. सरकारों के बीच चल रही कलह, जिनमें से प्रत्येक इन जलमार्गों पर दावा करने की होड़ कर रही है, ने केवल संकटों को बढ़ावा दिया है. जो संकीर्ण सोच वाली राजनीतिक अस्थिरता के खतरों की स्पष्ट याद दिलाती है. इस बढ़ती रस्साकशी में, यह याद रखना सर्वोपरि है कि किसानों के हितों को, चाहे उनकी क्षेत्रीय संबद्धता कुछ भी हो, प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

प्रकृति ने हमें पानी का अमूल्य संसाधन प्रदान किया है, एक ऐसा संसाधन जो कोई पूर्वाग्रह या पक्षपात नहीं जानता. दुनिया भर में, कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड और वियतनाम जैसे देशों ने दशकों से अपने साझा मेकांग नदी संसाधनों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया है, जबकि नील बेसिन में, एक उल्लेखनीय 'वॉटर सिम्फनी' प्रचलित है.

इसके बिल्कुल विपरीत, भारत जो कि संविधान के मुताबिक राज्यों का एक संघ है. लगातार जल विवादों से जूझता रहता है, जो सहकारी संघवाद की मूल भावना को कमजोर करता है. कर्नाटक की ओर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बार-बार अवहेलना इस कलह का एक प्रमुख उदाहरण है. सुप्रीम कोर्ट ने सूखे के दौरान भी निचले तटीय राज्यों के लिए पानी के विशिष्ट आवंटन को अनिवार्य माना है.

यह जरूरी है कि ऊपरी तटवर्ती राज्य श्रेष्ठता की किसी भी भावना को त्याग दें, जबकि निचले राज्यों को वंचना का खामियाजा नहीं भुगतना चाहिए. सद्भावना साझा उद्देश्य होना चाहिए. किसी भी एक राज्य को अपने क्षेत्र से होकर बहने वाली नदी पर पूर्ण अधिकार नहीं रखना चाहिए.

अंतरराज्यीय नदियों के न्यायसंगत बंटवारे का आकलन करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय के लिए सुप्रीम कोर्ट का आह्वान कावेरी प्राधिकरण जैसे मौजूदा संस्थानों की अपर्याप्तता को रेखांकित करता है. इसे सुधारने के लिए, एक निष्पक्ष संगठन की स्थापना अनिवार्य है, जिसमें संसद के माध्यम से लोगों के प्रति जवाबदेह विद्वान व्यक्ति शामिल हों. वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित इस इकाई की सिफारिशें सभी राज्यों के लिए मार्गदर्शक के रूप में काम करनी चाहिए. केवल ऐसे मजबूत तंत्र के प्रभावी ढंग से कार्यान्वित होने से ही अंतरराज्यीय नदियां वास्तव में राष्ट्रीय एकता और अखंडता का प्रतीक बन सकती हैं.

सदियों पुराना कावेरी जल विवाद एक बार फिर से सड़कों पर आ गया है. कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच सौहार्द फीका पड़ गया है और पानी ने आग लगा दी है. कावेरी के पानी के हितधारकों के बीच विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया है. कावेरी जल प्रबंधन प्राधिकरण (सीडब्ल्यूएमए) ने अपने हालिया निर्देश में कर्नाटक को 15 दिनों की अवधि में तमिलनाडु को 5,000 क्यूसेक पानी छोड़ने का आदेश दिया है. इस निर्णय को कन्नड़ किसानों और 'कर्नाटक रक्षण वेदिके' के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा. जिसके परिणाम स्वरूप बेंगलुरु बंद रही.

इस विरोध का असर दूरगामी था, जिसका असर शैक्षणिक संस्थानों, छात्रावासों और परिवहन सेवाओं पर पड़ा. तमिलनाडु से आने वाली बसों को सीमावर्ती कृष्णागिरी जिले में रोक दिया गया. इन सूचनाओं से पता चलता है कि स्थिति कितनी गंभीर है. सवाल यह है कि अचानक क्या हुआ कि कावेरी के पानी को लेकर राजनीतिक आग एक बार फिर से भड़क गई.

अगस्त में तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान राज्य में काफी कम बारिश हुई. इसलिए किसानों को फसलों की सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए अदालत कर्नाटक सरकार को शीघ्र पानी छोड़ने का निर्देश दिया जाये. इस मामले में कर्नाटक सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि खराब मॉनसून के कारण ही वह भी तमिलनाडु के लिए कावेरी का पानी नहीं छोड़ सकते हैं.

तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने सीडब्ल्यूएमए के फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया. जिससे कावेरी बेसिन के किसानों और विभिन्न संगठनों के नेतृत्व में पूरे कर्नाटक में व्यापक विरोध प्रदर्शन का मंच तैयार हो गया. इस लंबे विवाद के इतिहास पर दोबारा गौर करना जरूरी है. फरवरी 2007 में एक ऐतिहासिक क्षण आया जब एक विशेष न्यायाधिकरण ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिससे जाहिर तौर पर वर्षों के संघर्ष का अंत हो गया.

सर्वोच्च न्यायालय को एक निश्चित निर्णय जारी करने में ग्यारह साल लग गए, जिसमें यह बताया गया कि कर्नाटक की ओर से तमिलनाडु को सालाना कितना पानी छोड़ा जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने पहले केंद्र को जल प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना करने का निर्देश दिया था, जिसमें इसकी संरचना और जिम्मेदारियों को सबसे छोटे विवरण में परिभाषित किया गया था. अफसोस की बात है कि मौजूदा स्थिति शीर्ष अदालत के आदेश के प्रति निष्ठा पर संदेह पैदा करती है, खासकर खराब मानसून के दौरान. स्थिति बिगड़ने पर कर्नाटक में बढ़ते जन आंदोलन के बीच सीडब्ल्यूएमए ने नए निर्देश जारी किए हैं.

मुख्य निर्देश में कर्नाटक-तमिलनाडु सीमा के दोनों ओर तनाव को कम करने के लिए 28 सितंबर से 15 अक्टूबर तक तीन हजार क्यूसेक की दर से पानी छोड़ना शामिल है. देखना यह है कि क्या यह समझौता दोनों राज्यों के बीच बढ़ते तनावों को शांत कर सकता है. क्योंकि ताजा विवाद दोनों राज्यों के बीच नाजुक संतुलन के लिए खतरा साबित हो सकता है.

पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में स्पष्ट रूप से रेखांकित किया था कि राज्य की सीमाओं से परे नदियां पूरे देश के लिए खजाना हैं. सरकारों के बीच चल रही कलह, जिनमें से प्रत्येक इन जलमार्गों पर दावा करने की होड़ कर रही है, ने केवल संकटों को बढ़ावा दिया है. जो संकीर्ण सोच वाली राजनीतिक अस्थिरता के खतरों की स्पष्ट याद दिलाती है. इस बढ़ती रस्साकशी में, यह याद रखना सर्वोपरि है कि किसानों के हितों को, चाहे उनकी क्षेत्रीय संबद्धता कुछ भी हो, प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

प्रकृति ने हमें पानी का अमूल्य संसाधन प्रदान किया है, एक ऐसा संसाधन जो कोई पूर्वाग्रह या पक्षपात नहीं जानता. दुनिया भर में, कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड और वियतनाम जैसे देशों ने दशकों से अपने साझा मेकांग नदी संसाधनों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित किया है, जबकि नील बेसिन में, एक उल्लेखनीय 'वॉटर सिम्फनी' प्रचलित है.

इसके बिल्कुल विपरीत, भारत जो कि संविधान के मुताबिक राज्यों का एक संघ है. लगातार जल विवादों से जूझता रहता है, जो सहकारी संघवाद की मूल भावना को कमजोर करता है. कर्नाटक की ओर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बार-बार अवहेलना इस कलह का एक प्रमुख उदाहरण है. सुप्रीम कोर्ट ने सूखे के दौरान भी निचले तटीय राज्यों के लिए पानी के विशिष्ट आवंटन को अनिवार्य माना है.

यह जरूरी है कि ऊपरी तटवर्ती राज्य श्रेष्ठता की किसी भी भावना को त्याग दें, जबकि निचले राज्यों को वंचना का खामियाजा नहीं भुगतना चाहिए. सद्भावना साझा उद्देश्य होना चाहिए. किसी भी एक राज्य को अपने क्षेत्र से होकर बहने वाली नदी पर पूर्ण अधिकार नहीं रखना चाहिए.

अंतरराज्यीय नदियों के न्यायसंगत बंटवारे का आकलन करने के लिए एक स्वतंत्र निकाय के लिए सुप्रीम कोर्ट का आह्वान कावेरी प्राधिकरण जैसे मौजूदा संस्थानों की अपर्याप्तता को रेखांकित करता है. इसे सुधारने के लिए, एक निष्पक्ष संगठन की स्थापना अनिवार्य है, जिसमें संसद के माध्यम से लोगों के प्रति जवाबदेह विद्वान व्यक्ति शामिल हों. वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित इस इकाई की सिफारिशें सभी राज्यों के लिए मार्गदर्शक के रूप में काम करनी चाहिए. केवल ऐसे मजबूत तंत्र के प्रभावी ढंग से कार्यान्वित होने से ही अंतरराज्यीय नदियां वास्तव में राष्ट्रीय एकता और अखंडता का प्रतीक बन सकती हैं.

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