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पॉक्सो के मामले में पीड़िता की उम्र पर SC ने कहा, स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट पर भरोसा नहीं कर सकते

सुप्रीम कोर्ट ने पॉक्सो के मामले में पीड़िता की उम्र तय करने के संबंध में कहा कि स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट और एडमिशन रजिस्टर पर भरोसा नहीं किया जा सकता. इसके बदले हड्डी परीक्षण अधिक प्रामाणिक है.

Etv BharatSupreme Court says cant's rely on school transfer certificate
Etv BhaSC ने पॉक्सो के मामले में उम्र तय करने के संबंध में कहा, स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट पर भरोसा नहीं कर सकतेrat
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Published : Jul 19, 2023, 2:27 PM IST

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने पॉक्सो के मामले में पीड़िता की उम्र के संबंध में कहा कि स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट और एडमिशन रजिस्टर बतौर सबूत पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. इसके बजाय ओसिफिकेशन या हड्डी परीक्षण के परिणाम अधिक प्रामाणिक सबूत हैं. अदालत ने इस मामले में एक शख्स को बरी कर दिया. उसे पॉक्सो के तहत दोषी ठहराते हुए 10 साल की सजा सुनाई गई थी.

न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने कहा कि प्रस्तुत किए गए दस्तावेज यानी स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट और एडमिशन रजिस्टर बतौर सबूत किशोर न्याय (जेजे) अधिनियम की धारा 94 (2) (i) के अनुसार नहीं हैं न ही वे धारा 94 (2) (ii) के अनुरूप हैं क्योंकि एक गवाह ने स्पष्ट रूप से कहा था कि पीड़िता के जन्म से संबंधित कोई रिकॉर्ड नहीं थे. सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई को फैसला सुनाया.

पीठ ने कहा कि इन परिस्थितियों में जेजे अधिनियम की धारा 94 के अनुरूप साक्ष्य का एकमात्र दस्तावेज मेडिकल ऑसिफिकेशन परीक्षण था, जहां एक डॉक्टरों की राय में पीड़िता की उम्र 18-20 वर्ष के बीच थी. पीठ ने कहा, 'इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए इस अदालत की राय है कि ऑसिफिकेशन या हड्डी परीक्षण का परिणाम सबसे प्रामाणिक सबूत है. इसकी जांच करने वाले डॉक्टर ने पुष्टि की थी.

पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत उसके बयान में पीड़िता ने गवाही दी थी कि वह अपीलकर्ता से प्यार करती थी. पीठ ने कहा, 'इन तथ्यों के मद्देनजर, इस अदालत की राय है कि अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने में सक्षम नहीं था कि अपीलकर्ता की ओर से जबरदस्ती के परिणामस्वरूप कोई यौन उत्पीड़न हुआ था.'

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में सभी तथ्य स्पष्ट रूप से पीड़िता की अपीलकर्ता के साथ जाने और यहां तक कि उनकी शादी का जश्न मनाने की इच्छा का संकेत देते हैं. हालाँकि, उसने धारा 164 सीआर के तहत बयान का समर्थन नहीं किया. शीर्ष अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता के खिलाफ पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के साथ-साथ बाल विवाह निषेध अधिनियम की धारा 10 के तहत आरोप बरकरार नहीं रखे जा सकते. लिहाजा उसके खिलाफ सुनाई गई सजा को रद्द किया जाता है.

ये भी पढ़ें- SC ने Marital Rape से संबंधित याचिका को सूचीबद्ध करने का आश्वासन दिया

वर्ष 2015 में पीड़िता के परिवार द्वारा अपीलकर्ता और उसके सहयोगियों पर लड़की का अपहरण करने और उससे जबरन शादी करने का आरोप लगाते हुए एक शिकायत दर्ज की गई थी. अपीलकर्ता के खिलाफ पीड़िता पर बार-बार यौन हमला करने का भी आरोप लगाया गया था. पीड़ित लड़की ने मजिस्ट्रेट को बताया कि यौन कृत्य सहमति से किए गए थे, हालांकि, मुकदमे के दौरान वह अपने बयान से मुकर गई. ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को पॉक्सो के तहत दोषी ठहराया. दिसंबर 2016 में मद्रास उच्च न्यायालय ने पॉक्सो के तहत अपीलकर्ता की सजा को बरकरार रखा, लेकिन अपहरण के लिए सजा को रद्द कर दिया. उच्च न्यायालय ने सजा को कठोर आजीवन कारावास से दस वर्ष के कठोर कारावास में बदल दिया. अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया.

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने पॉक्सो के मामले में पीड़िता की उम्र के संबंध में कहा कि स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट और एडमिशन रजिस्टर बतौर सबूत पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. इसके बजाय ओसिफिकेशन या हड्डी परीक्षण के परिणाम अधिक प्रामाणिक सबूत हैं. अदालत ने इस मामले में एक शख्स को बरी कर दिया. उसे पॉक्सो के तहत दोषी ठहराते हुए 10 साल की सजा सुनाई गई थी.

न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने कहा कि प्रस्तुत किए गए दस्तावेज यानी स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट और एडमिशन रजिस्टर बतौर सबूत किशोर न्याय (जेजे) अधिनियम की धारा 94 (2) (i) के अनुसार नहीं हैं न ही वे धारा 94 (2) (ii) के अनुरूप हैं क्योंकि एक गवाह ने स्पष्ट रूप से कहा था कि पीड़िता के जन्म से संबंधित कोई रिकॉर्ड नहीं थे. सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई को फैसला सुनाया.

पीठ ने कहा कि इन परिस्थितियों में जेजे अधिनियम की धारा 94 के अनुरूप साक्ष्य का एकमात्र दस्तावेज मेडिकल ऑसिफिकेशन परीक्षण था, जहां एक डॉक्टरों की राय में पीड़िता की उम्र 18-20 वर्ष के बीच थी. पीठ ने कहा, 'इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए इस अदालत की राय है कि ऑसिफिकेशन या हड्डी परीक्षण का परिणाम सबसे प्रामाणिक सबूत है. इसकी जांच करने वाले डॉक्टर ने पुष्टि की थी.

पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 164 के तहत उसके बयान में पीड़िता ने गवाही दी थी कि वह अपीलकर्ता से प्यार करती थी. पीठ ने कहा, 'इन तथ्यों के मद्देनजर, इस अदालत की राय है कि अभियोजन पक्ष यह स्थापित करने में सक्षम नहीं था कि अपीलकर्ता की ओर से जबरदस्ती के परिणामस्वरूप कोई यौन उत्पीड़न हुआ था.'

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में सभी तथ्य स्पष्ट रूप से पीड़िता की अपीलकर्ता के साथ जाने और यहां तक कि उनकी शादी का जश्न मनाने की इच्छा का संकेत देते हैं. हालाँकि, उसने धारा 164 सीआर के तहत बयान का समर्थन नहीं किया. शीर्ष अदालत ने कहा कि अपीलकर्ता के खिलाफ पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के साथ-साथ बाल विवाह निषेध अधिनियम की धारा 10 के तहत आरोप बरकरार नहीं रखे जा सकते. लिहाजा उसके खिलाफ सुनाई गई सजा को रद्द किया जाता है.

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वर्ष 2015 में पीड़िता के परिवार द्वारा अपीलकर्ता और उसके सहयोगियों पर लड़की का अपहरण करने और उससे जबरन शादी करने का आरोप लगाते हुए एक शिकायत दर्ज की गई थी. अपीलकर्ता के खिलाफ पीड़िता पर बार-बार यौन हमला करने का भी आरोप लगाया गया था. पीड़ित लड़की ने मजिस्ट्रेट को बताया कि यौन कृत्य सहमति से किए गए थे, हालांकि, मुकदमे के दौरान वह अपने बयान से मुकर गई. ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को पॉक्सो के तहत दोषी ठहराया. दिसंबर 2016 में मद्रास उच्च न्यायालय ने पॉक्सो के तहत अपीलकर्ता की सजा को बरकरार रखा, लेकिन अपहरण के लिए सजा को रद्द कर दिया. उच्च न्यायालय ने सजा को कठोर आजीवन कारावास से दस वर्ष के कठोर कारावास में बदल दिया. अपीलकर्ता ने उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया.

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