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कानपुर देहात का दमादनपुरवा गांव, जहां दुल्हन विदा नहीं होती, दूल्हा डंके की चोट पर घरजवांई बनता है - दामादन का पुरवा

उत्तर भारत में हिंदू मतालंबियों के बीच परंपरा है कि शादी के बाद दुल्हन अपने मायके से विदा होकर पति के घर यानी ससुराल जाती है. मगर कानपुर देहात का दमादनपुरवा गांव, जहां दुल्हन विदा नहीं होती, दूल्हा डंके की चोट पर घरजमाई बनता है. यह परंपरा नई नहीं है. जानिए क्या है यहां घरजंवाई बनने की कहानी.

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कानपुर देहात का दमादनपुरवा गांव
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Published : Aug 20, 2022, 8:25 PM IST

कानपुर देहात : शादी के बाद दुल्हन की मायके से विदाई तो प्रचलित परंपरा है. मगर दूल्हे का घरजमाई बनना आम नहीं है. भारत के कई ट्राइब्स में घरजवांई या घर में दामाद को रखने की परंपरा पुरानी है, मगर हिंदी पट्टी में ऐसा नहीं देखा जाता है. कानपुर देहात का दमादनपुरवा गांव इसमें अपवाद है, जहां पिछले तीन पीढ़ियों से लोग शादी के बाद अपनी बेटी की विदाई नहीं करते हैं बल्कि दामाद को ही एक घर और जमीन देकर घरजंवाई या घरदामाद बना लेते हैं.

यह परंपरा इतनी पक्की हो गई कि गांव का नाम ही बदल गया. पहले कानपुर देहात के सरियापुर गांव का मजरा रहे गांव को पुरवा नाम से जाना जाता था. मगर जब लोगों ने दामादों को बसाना शुरू कर दिया तो पुरवा भी दमादन के पुरवा नाम से प्रसिद्ध हो गया. उत्तर प्रदेश सरकार ने भी गांव के नए नाम को मान्यता दे दी. यानी अब यह गांव आधिकारिक तौर से दामादों का गांव है. ग्राम प्रधान प्रीति श्रीवास्तव इस परंपरा के पीछे की कहानी बताती हैं. प्रीति के अनुसार, सन 1970 में राजरानी की शादी सांवरे कठेरिया से हुई थी. शादी के बाद उन्हें गांव में ही बसा लिया गया. इसके बाद गांव के लोग अपनी बेटी-दामाद को गांव में घर-जमीन देकर बसाने लगे. 2005 में घरजमाई की संख्या 40 हो गई. इन दामादों ने गांव में जमीन भी खरीद ली. धीरे-धीरे सरियापुर गांव का पुरवा दामादन का पुरवा बन गया.

कानपुर देहात के दमादनपुरवा गांव में दुल्हन विदा नहीं होती.

सन 1960 में पहली बार घरजमाई बने राम प्रसाद बताते हैं कि पुरवा दामादन गांव में हर तीसरा घर घरजमाई का ही है. अपने मायके में बसने वाली तारा देवी ने बताया कि जब उन्हें शादी के बाद गांव में बसने का ऑफर दिया गया तो उन्होंने कबूल कर लिया. सभी लोग चाहते हैं कि वह अपनों के बीच रहे, यह उनके लिए अच्छा मौका मिला. उनके पति भी गांव में बसने के लिए तैयार हो गए.

गांव प्रधान के पति अशोक श्रीवास्तव ने बताया कि पहले यह सरियापुर गांव का माजरा था, यानी सरियापुर का एक हिस्सा. मगर जब यहां बसने वालों दामादों की तादाद बढ़ गई तो नाम भी बदल गया. अब तो आधिकारिक तौर से गांव में बने प्राथमिक स्कूल पर भी दमादनपुरवा लिखा हुआ है. दो साल पहले सरकारी कागजों में भी इसे दमादनपुरवा का नाम मिल गया. यहां बूढ़े से लेकर जवान तक शादी के बाद घरदामाद बन गए. इस गांव की आबादी लगभग 500 है, इनमें 253 मतदाता भी हैं. दलित बहुसंख्यक इस गांव में कुछ लोगों को ससुराल से जमीन मिल गई तो कई लोगों को सरकार की ओर से पट्टे की जमीन पर हक मिल गया. सरकार भी इन्हें खेती के लिए जमीन मुहैया करा चुकी है.

गांव के बुजुर्ग राम प्रसाद ने बताया कि आर्थिक स्थिति सही नहीं होने के चलते दामादों ने घरजमाई बनना कबूल किया. फिर धीरे-धीरे यह प्रथा बन गई. गांव में रहने वाली शशि की शादी 12 साल पहले हुई थी. अब वह मायके में ही बस गई हैं. शशि ने बताया कि यहां ज्यादातर लोग अपने लड़कों की शादी शायद इस वजह से भी करते हैं क्योंकि वह बेटे को घरजमाई के तौर पर देखना पसंद करते हैं. एक तो उन्हें शादी के गिफ्ट के तौर पर मकान और जमीन मिल जाती है, दूसरी ओर पट्टे की जमीन मिलने के कारण जिंदगी आसान हो जाती है. शशि को भी जमीन मिली है, जिस पर वह अपने पति और परिवार के साथ रहती है.

पढ़ें : माल खाने में 20 साल से कैद हैं भगवान श्री कृष्ण और उनके परिजनों की मूर्तियां, जानें वजह

कानपुर देहात : शादी के बाद दुल्हन की मायके से विदाई तो प्रचलित परंपरा है. मगर दूल्हे का घरजमाई बनना आम नहीं है. भारत के कई ट्राइब्स में घरजवांई या घर में दामाद को रखने की परंपरा पुरानी है, मगर हिंदी पट्टी में ऐसा नहीं देखा जाता है. कानपुर देहात का दमादनपुरवा गांव इसमें अपवाद है, जहां पिछले तीन पीढ़ियों से लोग शादी के बाद अपनी बेटी की विदाई नहीं करते हैं बल्कि दामाद को ही एक घर और जमीन देकर घरजंवाई या घरदामाद बना लेते हैं.

यह परंपरा इतनी पक्की हो गई कि गांव का नाम ही बदल गया. पहले कानपुर देहात के सरियापुर गांव का मजरा रहे गांव को पुरवा नाम से जाना जाता था. मगर जब लोगों ने दामादों को बसाना शुरू कर दिया तो पुरवा भी दमादन के पुरवा नाम से प्रसिद्ध हो गया. उत्तर प्रदेश सरकार ने भी गांव के नए नाम को मान्यता दे दी. यानी अब यह गांव आधिकारिक तौर से दामादों का गांव है. ग्राम प्रधान प्रीति श्रीवास्तव इस परंपरा के पीछे की कहानी बताती हैं. प्रीति के अनुसार, सन 1970 में राजरानी की शादी सांवरे कठेरिया से हुई थी. शादी के बाद उन्हें गांव में ही बसा लिया गया. इसके बाद गांव के लोग अपनी बेटी-दामाद को गांव में घर-जमीन देकर बसाने लगे. 2005 में घरजमाई की संख्या 40 हो गई. इन दामादों ने गांव में जमीन भी खरीद ली. धीरे-धीरे सरियापुर गांव का पुरवा दामादन का पुरवा बन गया.

कानपुर देहात के दमादनपुरवा गांव में दुल्हन विदा नहीं होती.

सन 1960 में पहली बार घरजमाई बने राम प्रसाद बताते हैं कि पुरवा दामादन गांव में हर तीसरा घर घरजमाई का ही है. अपने मायके में बसने वाली तारा देवी ने बताया कि जब उन्हें शादी के बाद गांव में बसने का ऑफर दिया गया तो उन्होंने कबूल कर लिया. सभी लोग चाहते हैं कि वह अपनों के बीच रहे, यह उनके लिए अच्छा मौका मिला. उनके पति भी गांव में बसने के लिए तैयार हो गए.

गांव प्रधान के पति अशोक श्रीवास्तव ने बताया कि पहले यह सरियापुर गांव का माजरा था, यानी सरियापुर का एक हिस्सा. मगर जब यहां बसने वालों दामादों की तादाद बढ़ गई तो नाम भी बदल गया. अब तो आधिकारिक तौर से गांव में बने प्राथमिक स्कूल पर भी दमादनपुरवा लिखा हुआ है. दो साल पहले सरकारी कागजों में भी इसे दमादनपुरवा का नाम मिल गया. यहां बूढ़े से लेकर जवान तक शादी के बाद घरदामाद बन गए. इस गांव की आबादी लगभग 500 है, इनमें 253 मतदाता भी हैं. दलित बहुसंख्यक इस गांव में कुछ लोगों को ससुराल से जमीन मिल गई तो कई लोगों को सरकार की ओर से पट्टे की जमीन पर हक मिल गया. सरकार भी इन्हें खेती के लिए जमीन मुहैया करा चुकी है.

गांव के बुजुर्ग राम प्रसाद ने बताया कि आर्थिक स्थिति सही नहीं होने के चलते दामादों ने घरजमाई बनना कबूल किया. फिर धीरे-धीरे यह प्रथा बन गई. गांव में रहने वाली शशि की शादी 12 साल पहले हुई थी. अब वह मायके में ही बस गई हैं. शशि ने बताया कि यहां ज्यादातर लोग अपने लड़कों की शादी शायद इस वजह से भी करते हैं क्योंकि वह बेटे को घरजमाई के तौर पर देखना पसंद करते हैं. एक तो उन्हें शादी के गिफ्ट के तौर पर मकान और जमीन मिल जाती है, दूसरी ओर पट्टे की जमीन मिलने के कारण जिंदगी आसान हो जाती है. शशि को भी जमीन मिली है, जिस पर वह अपने पति और परिवार के साथ रहती है.

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