प्रयागराज : जाने-माने सहित्यकार और पद्मश्री शम्सुर रहमान फारूकी का शुक्रवार को निधन हो गया. उन्होंने प्रयागराज स्थित अपने घर में अंतिम सांस ली. उन्हें 23 नवंबर को दिल्ली के हॉस्पिटल से छुट्टी मिली थी. कोरोना संक्रमित होने के बाद उन्हें यहां भर्ती किया गया था. लेकिन, कोरोना से उबरने के बाद उनकी सेहत लगातार बिगड़ती जा रही थी. उनके निधन से पूरे सहित्य जगत में शोक की लहर है. डॉक्टरों की सलाह पर शुक्रवार को ही एयर एंबुलेंस से बड़ी बेटी वर्जीनिया में प्रोफेसर मेहर अफशां और भतीजे महमूद गजाली नई दिल्ली से उन्हें इलाहाबाद लेकर पहुंचे थे. घर पहुंचने के करीब एक घंटे बाद ही उनकी सांसे थम गयीं.
शम्सुर रहमान के निधन से प्रयागराज समेत पूरा साहित्य जगत में शोक की लहर है. निधन की खबर सुनकर न्याय मार्ग स्थित आवास पर करीबियों-शुभचिंतकों के आने का सिलसिला जारी है.
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित पद्मश्री फारूकी का जाना उर्दू अदब का बहुत बड़ा नुकसान है. उनके इंतकाल की खबर सुनकर न्याय मार्ग स्थित आवास पर करीबियों शुभचिंतकों के आने का सिलसिला शुरू हो गया.
साहित्यकार शम्सुर रहमान का जन्म 30 सितंबर 1935 में प्रयागराज में हुआ था. उन्होंने 1955 में इलाहाबाद विश्वविद्याल से अंग्रेजी में (एमए) की डिग्री ली थी. उनके माता-पिता अलग-अलग पृष्ठभूमि के थे - पिता देवबंदी मुसलमान थे, जबकि मां का घर काफी उदार था. उनकी परवरिश उदार वातावरण में हुई, वह मुहर्रम और शबे बारात के साथ होली भी मनाते थे.
शम्सुर फारुकी कवि, उर्दू आलोचक और विचारक के रूप में प्रख्यात हैं. उनको उर्दू आलोचना को टीएस इलिएट के रूप में माना जाता है और सिर्फ यही नहीं उन्होंने साहित्यिक समीक्षा के नए प्रारूप भी विकसित किए हैं. इनके द्वारा रचित एक समालोचना तनकीदी अफकार के लिए उन्हें सन 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार (उर्दू) से भी सम्मानित किया गया था.
वरिष्ठ सहित्यकार और आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि शम्सुर रहमान उर्दू के ही नहीं बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं की बड़ी प्रतिभा थे. बड़े आलोचक होने के साथ-साथ एक उपान्यासकार के रूप में उन्हें प्रसिद्धी प्राप्त थी. यह अत्यन्त दुर्लभ है. फारूखी साहब हिन्दुस्तानी बौद्धिक परंपरा के शीर्ष प्रतिनिधि थे. उनके निधन से समूचे भारतीय सहित्य की बड़ी क्षति हुई है. समस्त सहित्य समाज उनकी कमी को हमेशा महसूस करता रहेगा.
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साहित्यकार, पत्रकार और प्रोफेसर धनंजय चोपड़ा ने कहा कि फारूकी साहब समाज को जोड़े रखने वाली विरासत को आगे बढ़ाने में लगे थे. साहित्य की दुनिया उन्हें उर्दू के बड़े समालोचक की तरह देखती है, लेकिन वे इससे कहीं आगे बढ़कर एक ऐसे रचनाधर्मी थे, जो साहित्य को इंसानियत के लिए जरूरी मानते थे. वे कहते थे कि साहित्य ही है, जो हमारी गंगा-जमुनी विरासत को बचाए रख सकता है.