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sc on religious writ petitions : धार्मिक नेता की समुदाय के सदस्य को बहिष्कृत करने पर फैसला सुरक्षित - dawdi bohra

सुप्रीम कोर्ट ने 1986 की एक रिट याचिका पर आदेश सुरक्षित रखा है, जिसमें धार्मिक नेता की समुदाय से एक सदस्य को बहिष्कृत करने की शक्ति को चुनौती दी गई थी. पांच जजों की बेंच इस पर फैसला करेगी कि क्या इस पर फैसला सुनाया जाए, या फिर इसे नौ जजों की बेंच को भेज दें.

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Published : Oct 11, 2022, 12:09 PM IST

Updated : Oct 11, 2022, 7:23 PM IST

नई दिल्ली : दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार की प्रथा से संबंधित याचिका (Excommunication Among Dawoodi Bohra case) को क्या निर्णय के लिए एक बड़ी पीठ को भेजा जाए, इस पर उच्चतम न्यायालय के पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने मंगलवार को अपना आदेश सुरक्षित रख लिया. न्यायमूर्ति एसके कौल के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस बात पर विचार कर रही थी कि क्या कई देशों में फैले 10 लाख से कम लोगों के इस शिया मुस्लिम समुदाय को अपने असंतुष्ट सदस्यों को बहिष्कृत करने का अधिकार है. पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति एएस ओका, न्यायमूर्ति विक्रमनाथ और न्यायमूर्ति जेके माहेश्वरी भी हैं.

पीठ ने कहा, 'तथ्य यह है कि 1986 से लंबित यह मामला हमें परेशान करता है. हमारे सामने विकल्प, हमारे समक्ष मौजूद सीमित मुद्दे को निर्धारित करने, या इसे नौ-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजने का है.' सुनवाई की शुरुआत में केंद्र की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि पांच न्यायाधीशों द्वारा दिए गए दाऊदी बोहरा के बहिष्कार से संबंधित फैसले पर पुनर्विचार उतनी ही संख्या वाले न्यायाधीशों की पीठ द्वारा संभव नहीं हो सकता. मामले के पक्षों में से एक की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता फाली एस नरीमन ने सुझाव दिया कि मामले को बड़ी पीठ के समक्ष भेजा जाना चाहिए.

पीठ को पहले बताया गया था कि बंबई बहिष्कार रोकथाम कानून 1949 निरस्त कर दिया गया है और महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार से लोगों का संरक्षण (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2016 प्रभावी हो गया है. पीठ को बताया गया था कि 2016 के कानून की धारा तीन में समुदाय के एक सदस्य का 16 प्रकार से सामाजिक बहिष्कार किए जाने का उल्लेख है और धारा चार में कहा गया है कि सामाजिक बहिष्कार निषिद्ध है और ऐसा करना अपराध है. इसके तहत सजा का प्रावधान है. इन 16 में से एक प्रकार समुदाय से किसी सदस्य के निष्कासन से संबंधित है.

इस अधिनियम में कहा गया है कि अपराध के दोषी व्यक्ति को कारावास, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माने से जो 1 लाख रुपये तक हो सकता है, या दोनों से दंडित किया जाएगा. शीर्ष अदालत की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1962 में फैसला सुनाया था कि बंबई बहिष्कार रोकथाम कानून 1949 संविधान के अनुरूप नहीं है. बाद में, 1986 में एक याचिका दायर कर 1962 में सरदार सैयदना ताहिर सैफुद्दीन साहेब बनाम बंबई राज्य के मामले में दिए गए फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया गया था. दिसंबर 2004 में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि मामले को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए रखा जाना चाहिए, न कि सात न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के समक्ष.

नई दिल्ली : दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार की प्रथा से संबंधित याचिका (Excommunication Among Dawoodi Bohra case) को क्या निर्णय के लिए एक बड़ी पीठ को भेजा जाए, इस पर उच्चतम न्यायालय के पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने मंगलवार को अपना आदेश सुरक्षित रख लिया. न्यायमूर्ति एसके कौल के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस बात पर विचार कर रही थी कि क्या कई देशों में फैले 10 लाख से कम लोगों के इस शिया मुस्लिम समुदाय को अपने असंतुष्ट सदस्यों को बहिष्कृत करने का अधिकार है. पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति एएस ओका, न्यायमूर्ति विक्रमनाथ और न्यायमूर्ति जेके माहेश्वरी भी हैं.

पीठ ने कहा, 'तथ्य यह है कि 1986 से लंबित यह मामला हमें परेशान करता है. हमारे सामने विकल्प, हमारे समक्ष मौजूद सीमित मुद्दे को निर्धारित करने, या इसे नौ-न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजने का है.' सुनवाई की शुरुआत में केंद्र की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि पांच न्यायाधीशों द्वारा दिए गए दाऊदी बोहरा के बहिष्कार से संबंधित फैसले पर पुनर्विचार उतनी ही संख्या वाले न्यायाधीशों की पीठ द्वारा संभव नहीं हो सकता. मामले के पक्षों में से एक की तरफ से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता फाली एस नरीमन ने सुझाव दिया कि मामले को बड़ी पीठ के समक्ष भेजा जाना चाहिए.

पीठ को पहले बताया गया था कि बंबई बहिष्कार रोकथाम कानून 1949 निरस्त कर दिया गया है और महाराष्ट्र सामाजिक बहिष्कार से लोगों का संरक्षण (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2016 प्रभावी हो गया है. पीठ को बताया गया था कि 2016 के कानून की धारा तीन में समुदाय के एक सदस्य का 16 प्रकार से सामाजिक बहिष्कार किए जाने का उल्लेख है और धारा चार में कहा गया है कि सामाजिक बहिष्कार निषिद्ध है और ऐसा करना अपराध है. इसके तहत सजा का प्रावधान है. इन 16 में से एक प्रकार समुदाय से किसी सदस्य के निष्कासन से संबंधित है.

इस अधिनियम में कहा गया है कि अपराध के दोषी व्यक्ति को कारावास, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है, या जुर्माने से जो 1 लाख रुपये तक हो सकता है, या दोनों से दंडित किया जाएगा. शीर्ष अदालत की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1962 में फैसला सुनाया था कि बंबई बहिष्कार रोकथाम कानून 1949 संविधान के अनुरूप नहीं है. बाद में, 1986 में एक याचिका दायर कर 1962 में सरदार सैयदना ताहिर सैफुद्दीन साहेब बनाम बंबई राज्य के मामले में दिए गए फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया गया था. दिसंबर 2004 में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि मामले को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए रखा जाना चाहिए, न कि सात न्यायाधीशों की बड़ी पीठ के समक्ष.

Last Updated : Oct 11, 2022, 7:23 PM IST
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