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मोदी को टैगोर की बजाय रूजवेल्ट की भूमिका में आना चाहिए !

देश में आज कोरोना का संकट हद से ज्यादा बढ़ गया है. दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था गहरी खाई में जा रही है, ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रवींद्रनाथ टैगोर की भूमिका से बाहर निकल अमेरिका को आर्थिक मंदी से निकालने वाले प्रेसिडेंट रूजवेल्ट की भूमिका में जाना चाहिए. दूसरी ओर देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इस कठिन परिस्थिति में कहीं नजर नहीं आ रही हैं. बहुत से अर्थशास्त्री मोदी सरकार से किनारा कर चुके हैं, ऐसे में फिर से एक मनमोहन सिंह की देश को जरूरत है, ऐसा शिवसेना के मुखपत्र दैनिक सामना में कहा गया है. शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने अपने साप्ताहिक कॉलम 'रोखठोक' में ताल ठोक के यह भूमिका स्पष्ट की है. पढ़ें पूरा कॉलम...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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Published : Apr 25, 2021, 8:48 AM IST

मुंबई : देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई है. मंदी की लहर में सभी हिचकोलें खाएंगे, ऐसी अवस्था है. शासक आत्मसंतुष्ट व आत्ममुग्ध होंगे तो ऐसा होगा ही! अर्थव्यवस्था को गतिशील होने के लिए एक नए मनमोहन सिंह की जरूरत है. कम-से-कम प्रधानमंत्री मोदी के लिए रवींद्रनाथ टैगोर की भूमिका से रूजवेल्ट की भूमिका में आना महत्वपूर्ण है.

शेयर बाजार का गिरना अब कोई नई बात नहीं रह गई है. मुकेश अंबानी के घर से एक मील की दूरी के अंदर जिलेटिन की छड़ों से लदी कार मिली. यह कारण भी शेयर बाजार के गिरने के लिए पर्याप्त होता है. हमारी अर्थव्यवस्था इतनी कमजोर नींव पर खड़ी है. अतीत में युद्ध अथवा विश्वयुद्ध के दौरान अर्थव्यवस्था गिरती थी. अब कोरोना संकट के कारण शेयर बाजार में रोज ही गिरावट देखने को मिल रही है. हमारे ही देश में नहीं, बल्कि दुनियाभर में एक भयानक मंदी की लहर आई है.

हिंदुस्तान जैसे देश में उत्पादन की रफ्तार घटी है. नोटबंदी के दौर में लोगों ने अपनी नौकरी गंवाई थीं. इसके बाद लॉकडाउन में बचे हुए लोगों की भी नौकरियां छिन गईं. बाजार में हलचल नहीं है. लोगों की खर्च करने की क्षमता खत्म हो गई है. जो थोड़ी-बहुत पूंजी है, वह भविष्य में चूल्हे जलते रहें इसके लिए ही रखनी होगी. ऐसा लोगों ने तय किया है.

निवेशकों की जल्दबाजी
निर्मला सीतारमण देश की वित्त मंत्री हैं. ऐसे समय में एक नए मनमोहन सिंह को तैयार करके देश की अर्थव्यवस्था को उनके हाथ में सौंपने की आवश्यकता है. आज देश के 60 फीसदी मजदूर बेकार हो गए हैं. राष्ट्रीय आय दो तिहाई तक घट गई है, परंतु हमारे शासक उदासीन एवं आत्मसंतुष्ट हैं. मोदी एक राजनीतिक शख्सियत हैं. विगत कुछ महीनों में कई अच्छे अर्थशास्त्री उन्हें छोड़कर चले गए. गुजरात व्यापारियों का प्रदेश है. 'हम बनिया लोग हैं' ऐसा वे लोग अभिमान के साथ कहते हैं. 'हम व्यापारी हैं' ऐसा मोदी ने भी कई बार कहा है. परंतु व्यापारी ही दुकान बंद करके बैठे हैं.

अर्थव्यवस्था जब अस्थिर होने लगती है तब लोगों की अचल संपत्ति में पैसा लगाने में दिलचस्पी बढ़ जाती है. वर्ष 1924-25 में अमेरिका में मंदी आई. वह विश्वयुद्ध का दौर था. उसके बाद फ्लोरिडा क्षेत्र में भूमि खरीदने की लहर आ गई. उससे कई लोग प्रभावित हुए. यात्री परिवहन जबरदस्त बढ़ेगा और फ्लोरिडा क्षेत्र के समुद्र की हवा खाने के लिए अमेरिकी व बाहरी लोगों की भीड़ बढ़ेगी, इस कल्पना से ही लोग पागल हो गए. फिर मुंह मांगी कीमत देकर जमीन खरीदी जाने लगी. लेकिन अपेक्षा के अनुरूप लोग नहीं आ रहे हैं. ऐसा बाद में नजर आया और इससे कई लोगों के जीवनभर की कमाई कौड़ी के मोल की हो गई.

अब दिल्ली, उत्तर प्रदेश के नोएडा, गुड़गांव क्षेत्र के लोग जमीन खरीद रहे हैं. महाराष्ट्र में पुणे, कोकण, मुंबई, ठाणे में पैसे वाले लोग निवेश कर रहे हैं. उनका भविष्य क्या होगा, ये कोई नहीं बता सकता है. मुंबई, ठाणे जैसे शहरों में हजारों फ्लैट बिक्री के अभाव में पड़े हुए हैं. परंतु उनकी कीमतों में गिरावट बिल्कुल भी नजर नहीं आई, क्योंकि इसमें ज्यादातर निवेशक विदेशी होंगे. उन्हें मंदी से कोई सरोकार नहीं है.

अमेरिका की मंदी
29 अक्टूबर, 1929 को अमेरिकी वायदा बाजार धराशायी हो गया और वहां मंदी की जबरदस्त लहर आ गई, परंतु तत्कालीन राष्ट्रपति हुवर ने सालभर पहले अमेरिकी कांग्रेस को भेजे अपने संदेश में कहा था कि देश में सब कुछ ठीक-ठाक है. वैसा ही राजनीतिक माहौल आज हमारे देश में भी है. अस्पताल और राजनीति को छोड़ दें तो हमारे देश में कुछ भी चालू नहीं है. श्मशान और कब्रिस्तान भी 24 घंटे खुले हैं. श्मशान में लकड़ियों की कमी है और कब्रिस्तान में जमीन कम पड़ रही है. यह लोगों के आबाद होने के लक्षण नहीं हैं.

मध्य प्रदेश के रीवा की एक घटना झकझोरने वाली है. सरहद पर कर्तव्य निभाने वाला एक जवान अपनी कोरोना पॉजिटिव पत्नी को गाड़ी में रखकर 10 घंटे घूमता रहा, परंतु उसे पत्नी के लिए 'बेड' नहीं मिला. रास्ते में दिखने वाले हर शख्स से वह मदद के लिए विनती करता रहा. उसने रो कर, हाथ जोड़कर अपने जवान होने की दुहाई देते हुए कहा कि 'मैं चार दिन पहले सीमा से छुट्टी लेकर घर आया हूं. बीवी बीमार पड़ गई. उसे कोरोना हो गया है. कोई बेड नहीं दे रहा है. मैंने कश्मीर की बर्फ में कई बार दुश्मनों की गोलियों को झेला है. आज पत्नी के इलाज के लिए दर-दर भटक रहा हूं!' उस जवान की तरह दर-दर भटकने की नौबत सभी पर आ गई है.

क्या कर रहे हो? मंदी से उबरने के लिए. अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए हम निश्चित तौर पर क्या कर रहे हैं, इस पर देश के प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कुछ भी कहने को तैयार नहीं हैं. पश्चिम बंगाल के चुनाव में ममता बनर्जी निश्चित तौर पर हार जाएंगी, ऐसा नरेंद्र मोदी कहते हैं. ये कोई गिरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए 'रेमडेसिविर' इलाज नहीं है. महाराष्ट्र की सरकार अपने ही बोझ से गिर जाएगी, ऐसा अमित शाह कहते हैं. ये भी मंदी और बेरोजगारी के सवाल का कोई जवाब नहीं है. देश की वित्त मंत्री तो कहीं नजर ही नहीं आती हैं.

अमेरिका में मंदी के समय वहां के शासक आत्मसंतुष्ट थे. आत्ममुग्धता में मशगूल थे. जून 1930 में एक शिष्टमंडल राष्ट्रपति हुवर के पास स्थिति की जानकारी देने गया, लेकिन हुवर ने उनसे कहा, 'मित्रों! आप दो महीने देर से आए, क्योंकि मंदी दो महीने पहले ही खत्म हो गई!' जबकि वो वास्तविकता नहीं थी, परंतु राजनीतिज्ञों को दोष क्यों दिया जाए? वायदा बाजार के धराशायी होने से कुछ दिन पहले सब कुछ ठीक-ठाक होने का दावा हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों की एक समिति ने किया था. इन अर्थशास्त्रियों को वायदा बाजार गिरेगा और आर्थिक मंदी आएगी, इसका अनुमान ही नहीं था. बाद में उनकी संस्था बंद हो गई. उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति हुवर आत्मसंतुष्ट थे, फिर भी उनके विरोधी जे. फ्रैंकलिन रूजवेल्ट वैसे नहीं थे. वे राष्ट्रपति का चुनाव लड़े और सरकारी खर्च में कटौती, उत्पादन वृद्धि और बेरोजगारों, निराश्रितों की सहायता की योजना बनाई. इससे वे चुनाव जीत गए. परंतु अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गतिमान करने के लिए उन्हें सरकारी खर्च में कटौती करने की बजाय प्रचंड वृद्धि करनी पड़ी. बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्य उन्होंने हाथ में लिए. इससे रोजगार बढ़ा. बड़े बांध, सड़क, बिजली उत्पादन आदि कार्य उन्होंने हाथ में लिए.

रूजवेल्ट ने अमेरिका के बेहद होशियार, लोकहित दक्ष, बुद्धिमान लोगों को अपने साथ लिया. उनमें मार्गेन्था, लिविस डगलस, हैरी हाफकिन्स जैसे लोग थे. अपनी नई आर्थिक योजना रूजवेल्ट ने घोषित की. उस दौरान अमेरिकी बैंक आठ दिन बंद थे. आठ दिन बाद रूजवेल्ट ने आकाशवाणी पर अपने 'मन की बात' व्यक्त करके अमेरिकी लोगों को अपनी योजना बताई. बाद में उनकी योजना मतलब 'मन की बात' दिनचर्या ही बन गई. रूजवेल्ट के भाषण का लोग इंतजार करने लगे. रूजवेल्ट का भाषण खत्म होते ही अमेरिकी लोगों में आत्मविश्वास का संचार हो गया. इस भाषण के बाद पहले तीन महीने में सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने, आर्थिक संस्थाओं ने जोरदार ढंग से कारोबार शुरू कर दिया. नया सकारात्मक माहौल तैयार हुआ. मायूसी और उदासीनता खत्म हो गई.

यह भी पढ़ें- भारत बायोटेक ने 'कोवैक्सीन' के दाम तय किए, जानें कितने चुकाने होंगे आपको

रूजवेल्ट ने शराबबंदी के सख्त कानून को शिथिल करके अमेरिकी कांग्रेस से सबसे पहले बियर बनाने की अनुमति हासिल की. लोगों को विश्वास हो गया कि रूजवेल्ट की सरकार सिर्फ गतिमान और प्रगतिशील ही नहीं है, बल्कि खुशहाल और आनंदवर्धक भी है. 'जियो और जीने दो' की नीति वाली है. दुख भूलकर काम में जुट जाओ. आनंद के नए क्षितिज खोजो, ऐसा कहने वाली है. लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया और आर्थिक मंदी का रूपांतर गतिमान अर्थव्यवस्था में हो गया.

यह मैं क्यों कह रहा हूं? हमें वर्तमान संकट से छुटकारा पाने के लिए एक मनमोहन सिंह और एक रूजवेल्ट चाहिए. कोई कुछ भी कहे परंतु पश्चिम बंगाल का चुनाव खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी को कम-से-कम अब तो रवींद्रनाथ टैगोर की भूमिका से बाहर निकलकर प्रेसिडेंट रूजवेल्ट की भूमिका अपनानी चाहिए! देश को इसी की आवश्यकता है. देश को अब विश्वास और सकारात्मक ऊर्जा की जरूरत है. वह जल्द-से-जल्द मिले!

(संजय राउत / कार्यकारी संपादक- सामना)

मुंबई : देश की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई है. मंदी की लहर में सभी हिचकोलें खाएंगे, ऐसी अवस्था है. शासक आत्मसंतुष्ट व आत्ममुग्ध होंगे तो ऐसा होगा ही! अर्थव्यवस्था को गतिशील होने के लिए एक नए मनमोहन सिंह की जरूरत है. कम-से-कम प्रधानमंत्री मोदी के लिए रवींद्रनाथ टैगोर की भूमिका से रूजवेल्ट की भूमिका में आना महत्वपूर्ण है.

शेयर बाजार का गिरना अब कोई नई बात नहीं रह गई है. मुकेश अंबानी के घर से एक मील की दूरी के अंदर जिलेटिन की छड़ों से लदी कार मिली. यह कारण भी शेयर बाजार के गिरने के लिए पर्याप्त होता है. हमारी अर्थव्यवस्था इतनी कमजोर नींव पर खड़ी है. अतीत में युद्ध अथवा विश्वयुद्ध के दौरान अर्थव्यवस्था गिरती थी. अब कोरोना संकट के कारण शेयर बाजार में रोज ही गिरावट देखने को मिल रही है. हमारे ही देश में नहीं, बल्कि दुनियाभर में एक भयानक मंदी की लहर आई है.

हिंदुस्तान जैसे देश में उत्पादन की रफ्तार घटी है. नोटबंदी के दौर में लोगों ने अपनी नौकरी गंवाई थीं. इसके बाद लॉकडाउन में बचे हुए लोगों की भी नौकरियां छिन गईं. बाजार में हलचल नहीं है. लोगों की खर्च करने की क्षमता खत्म हो गई है. जो थोड़ी-बहुत पूंजी है, वह भविष्य में चूल्हे जलते रहें इसके लिए ही रखनी होगी. ऐसा लोगों ने तय किया है.

निवेशकों की जल्दबाजी
निर्मला सीतारमण देश की वित्त मंत्री हैं. ऐसे समय में एक नए मनमोहन सिंह को तैयार करके देश की अर्थव्यवस्था को उनके हाथ में सौंपने की आवश्यकता है. आज देश के 60 फीसदी मजदूर बेकार हो गए हैं. राष्ट्रीय आय दो तिहाई तक घट गई है, परंतु हमारे शासक उदासीन एवं आत्मसंतुष्ट हैं. मोदी एक राजनीतिक शख्सियत हैं. विगत कुछ महीनों में कई अच्छे अर्थशास्त्री उन्हें छोड़कर चले गए. गुजरात व्यापारियों का प्रदेश है. 'हम बनिया लोग हैं' ऐसा वे लोग अभिमान के साथ कहते हैं. 'हम व्यापारी हैं' ऐसा मोदी ने भी कई बार कहा है. परंतु व्यापारी ही दुकान बंद करके बैठे हैं.

अर्थव्यवस्था जब अस्थिर होने लगती है तब लोगों की अचल संपत्ति में पैसा लगाने में दिलचस्पी बढ़ जाती है. वर्ष 1924-25 में अमेरिका में मंदी आई. वह विश्वयुद्ध का दौर था. उसके बाद फ्लोरिडा क्षेत्र में भूमि खरीदने की लहर आ गई. उससे कई लोग प्रभावित हुए. यात्री परिवहन जबरदस्त बढ़ेगा और फ्लोरिडा क्षेत्र के समुद्र की हवा खाने के लिए अमेरिकी व बाहरी लोगों की भीड़ बढ़ेगी, इस कल्पना से ही लोग पागल हो गए. फिर मुंह मांगी कीमत देकर जमीन खरीदी जाने लगी. लेकिन अपेक्षा के अनुरूप लोग नहीं आ रहे हैं. ऐसा बाद में नजर आया और इससे कई लोगों के जीवनभर की कमाई कौड़ी के मोल की हो गई.

अब दिल्ली, उत्तर प्रदेश के नोएडा, गुड़गांव क्षेत्र के लोग जमीन खरीद रहे हैं. महाराष्ट्र में पुणे, कोकण, मुंबई, ठाणे में पैसे वाले लोग निवेश कर रहे हैं. उनका भविष्य क्या होगा, ये कोई नहीं बता सकता है. मुंबई, ठाणे जैसे शहरों में हजारों फ्लैट बिक्री के अभाव में पड़े हुए हैं. परंतु उनकी कीमतों में गिरावट बिल्कुल भी नजर नहीं आई, क्योंकि इसमें ज्यादातर निवेशक विदेशी होंगे. उन्हें मंदी से कोई सरोकार नहीं है.

अमेरिका की मंदी
29 अक्टूबर, 1929 को अमेरिकी वायदा बाजार धराशायी हो गया और वहां मंदी की जबरदस्त लहर आ गई, परंतु तत्कालीन राष्ट्रपति हुवर ने सालभर पहले अमेरिकी कांग्रेस को भेजे अपने संदेश में कहा था कि देश में सब कुछ ठीक-ठाक है. वैसा ही राजनीतिक माहौल आज हमारे देश में भी है. अस्पताल और राजनीति को छोड़ दें तो हमारे देश में कुछ भी चालू नहीं है. श्मशान और कब्रिस्तान भी 24 घंटे खुले हैं. श्मशान में लकड़ियों की कमी है और कब्रिस्तान में जमीन कम पड़ रही है. यह लोगों के आबाद होने के लक्षण नहीं हैं.

मध्य प्रदेश के रीवा की एक घटना झकझोरने वाली है. सरहद पर कर्तव्य निभाने वाला एक जवान अपनी कोरोना पॉजिटिव पत्नी को गाड़ी में रखकर 10 घंटे घूमता रहा, परंतु उसे पत्नी के लिए 'बेड' नहीं मिला. रास्ते में दिखने वाले हर शख्स से वह मदद के लिए विनती करता रहा. उसने रो कर, हाथ जोड़कर अपने जवान होने की दुहाई देते हुए कहा कि 'मैं चार दिन पहले सीमा से छुट्टी लेकर घर आया हूं. बीवी बीमार पड़ गई. उसे कोरोना हो गया है. कोई बेड नहीं दे रहा है. मैंने कश्मीर की बर्फ में कई बार दुश्मनों की गोलियों को झेला है. आज पत्नी के इलाज के लिए दर-दर भटक रहा हूं!' उस जवान की तरह दर-दर भटकने की नौबत सभी पर आ गई है.

क्या कर रहे हो? मंदी से उबरने के लिए. अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए हम निश्चित तौर पर क्या कर रहे हैं, इस पर देश के प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कुछ भी कहने को तैयार नहीं हैं. पश्चिम बंगाल के चुनाव में ममता बनर्जी निश्चित तौर पर हार जाएंगी, ऐसा नरेंद्र मोदी कहते हैं. ये कोई गिरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए 'रेमडेसिविर' इलाज नहीं है. महाराष्ट्र की सरकार अपने ही बोझ से गिर जाएगी, ऐसा अमित शाह कहते हैं. ये भी मंदी और बेरोजगारी के सवाल का कोई जवाब नहीं है. देश की वित्त मंत्री तो कहीं नजर ही नहीं आती हैं.

अमेरिका में मंदी के समय वहां के शासक आत्मसंतुष्ट थे. आत्ममुग्धता में मशगूल थे. जून 1930 में एक शिष्टमंडल राष्ट्रपति हुवर के पास स्थिति की जानकारी देने गया, लेकिन हुवर ने उनसे कहा, 'मित्रों! आप दो महीने देर से आए, क्योंकि मंदी दो महीने पहले ही खत्म हो गई!' जबकि वो वास्तविकता नहीं थी, परंतु राजनीतिज्ञों को दोष क्यों दिया जाए? वायदा बाजार के धराशायी होने से कुछ दिन पहले सब कुछ ठीक-ठाक होने का दावा हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्रियों की एक समिति ने किया था. इन अर्थशास्त्रियों को वायदा बाजार गिरेगा और आर्थिक मंदी आएगी, इसका अनुमान ही नहीं था. बाद में उनकी संस्था बंद हो गई. उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति हुवर आत्मसंतुष्ट थे, फिर भी उनके विरोधी जे. फ्रैंकलिन रूजवेल्ट वैसे नहीं थे. वे राष्ट्रपति का चुनाव लड़े और सरकारी खर्च में कटौती, उत्पादन वृद्धि और बेरोजगारों, निराश्रितों की सहायता की योजना बनाई. इससे वे चुनाव जीत गए. परंतु अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गतिमान करने के लिए उन्हें सरकारी खर्च में कटौती करने की बजाय प्रचंड वृद्धि करनी पड़ी. बड़े-बड़े सार्वजनिक कार्य उन्होंने हाथ में लिए. इससे रोजगार बढ़ा. बड़े बांध, सड़क, बिजली उत्पादन आदि कार्य उन्होंने हाथ में लिए.

रूजवेल्ट ने अमेरिका के बेहद होशियार, लोकहित दक्ष, बुद्धिमान लोगों को अपने साथ लिया. उनमें मार्गेन्था, लिविस डगलस, हैरी हाफकिन्स जैसे लोग थे. अपनी नई आर्थिक योजना रूजवेल्ट ने घोषित की. उस दौरान अमेरिकी बैंक आठ दिन बंद थे. आठ दिन बाद रूजवेल्ट ने आकाशवाणी पर अपने 'मन की बात' व्यक्त करके अमेरिकी लोगों को अपनी योजना बताई. बाद में उनकी योजना मतलब 'मन की बात' दिनचर्या ही बन गई. रूजवेल्ट के भाषण का लोग इंतजार करने लगे. रूजवेल्ट का भाषण खत्म होते ही अमेरिकी लोगों में आत्मविश्वास का संचार हो गया. इस भाषण के बाद पहले तीन महीने में सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों ने, आर्थिक संस्थाओं ने जोरदार ढंग से कारोबार शुरू कर दिया. नया सकारात्मक माहौल तैयार हुआ. मायूसी और उदासीनता खत्म हो गई.

यह भी पढ़ें- भारत बायोटेक ने 'कोवैक्सीन' के दाम तय किए, जानें कितने चुकाने होंगे आपको

रूजवेल्ट ने शराबबंदी के सख्त कानून को शिथिल करके अमेरिकी कांग्रेस से सबसे पहले बियर बनाने की अनुमति हासिल की. लोगों को विश्वास हो गया कि रूजवेल्ट की सरकार सिर्फ गतिमान और प्रगतिशील ही नहीं है, बल्कि खुशहाल और आनंदवर्धक भी है. 'जियो और जीने दो' की नीति वाली है. दुख भूलकर काम में जुट जाओ. आनंद के नए क्षितिज खोजो, ऐसा कहने वाली है. लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया और आर्थिक मंदी का रूपांतर गतिमान अर्थव्यवस्था में हो गया.

यह मैं क्यों कह रहा हूं? हमें वर्तमान संकट से छुटकारा पाने के लिए एक मनमोहन सिंह और एक रूजवेल्ट चाहिए. कोई कुछ भी कहे परंतु पश्चिम बंगाल का चुनाव खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी को कम-से-कम अब तो रवींद्रनाथ टैगोर की भूमिका से बाहर निकलकर प्रेसिडेंट रूजवेल्ट की भूमिका अपनानी चाहिए! देश को इसी की आवश्यकता है. देश को अब विश्वास और सकारात्मक ऊर्जा की जरूरत है. वह जल्द-से-जल्द मिले!

(संजय राउत / कार्यकारी संपादक- सामना)

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