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इंडो-पैसिफिक में अमेरिका, जापान के साथ जुड़ा दक्षिण कोरिया, जानें भारत के लिए क्या है संकेत - दक्षिण कोरिया

आज कैंप डेविड में दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन होगा. ईटीवी भारत के अरूनिम भुयान इस रिपोर्ट में बताते हैं कि सियोल की नई इंडो-पैसिफिक रणनीति इस क्षेत्र में क्वाड के रणनीतिक ढांचे के साथ मेल खाती है. इस शिखर सम्मेलन का भारत पर क्या असर पड़ सकता है. पढ़ें पूरी खबर...

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Published : Aug 18, 2023, 11:14 AM IST

नई दिल्ली: अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया के बीच कैंप डेविड में शुक्रवार को त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन होना है. इस सम्मेलन ने एक बार फिर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सियोल की भूमिका को फोकस में ला दिया है. अमेरिका की अपनी यात्रा से पहले, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यूं सुक येओ ने सियोल में एक टेलीविजन भाषण दिया. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि शिखर सम्मेलन कोरियाई प्रायद्वीप और इंडो-पेसिफिक क्षेत्र में शांति और समृद्धि में योगदान देने वाले त्रिपक्षीय सहयोग में एक नया मील का पत्थर साबित होगा.

पिछले साल दिसंबर में, दक्षिण कोरिया ने एक नई इंडो-पैसिफिक रणनीति का अनावरण किया था. पर्यवेक्षकों की राय में कोरिया की यह नीति भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की रणनीतियों के साथ मेल खाती है. बता दें कि भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया क्वाड का हिस्सा हैं जो क्षेत्र में चीन के आधिपत्य का नियंत्रित करने और स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक के लिए काम कर रहे हैं. अपनी नई रणनीति में, दक्षिण कोरिया ने स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए क्षेत्रीय नियम-आधारित व्यवस्था को मजबूत करने का वादा किया है.

राष्ट्रपति यून ने पहले भी लोकतांत्रिक सिद्धांतों की रक्षा के लिए अधिक जिम्मेदारी लेने की बात स्वीकार की है. यह दस्तावेज भी इसका ही विस्तार है. इसके साथ ही यह अमेरिका और उसके सहयोगियों की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीतियों के अनुरूप है. हालांकि, इस दस्तावेज में भी क्षेत्र में चीनी खतरे की तीव्रता को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है. इस बारे में भी यह लगभग उतनी ही बात करता है जितनी अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया एक साथ और अलग-अलग मंचों पर कर चुके हैं.

एशियन कॉन्फ्लुएंस थिंक टैंक के फेलो और इंडो-पैसिफिक मुद्दों के विशेषज्ञ के योहोम ने ईटीवी भारत को बताया कि इंडो-पैसिफिक में चीन की गतिविधियों से दक्षिण कोरिया निश्चित रूप से चिंतित है. हालांकि, दक्षिण कोरिया कभी भी खुल कर चीन के मुकाबले में नहीं दिखना चाहता है. दक्षिण कोरिया चाहता है कि उसकी भूमिका आर्थिक क्षेत्रों में दिखे न कि अमेरिका के साथ खड़े किसी देश के रूप में.

1953 की आपसी रक्षा संधि के तहत अमेरिका का औपचारिक सहयोगी होने के बावजूद, दक्षिण कोरिया के चीन के साथ गहरे आर्थिक संबंध हैं. चीन 2015 के बाद से मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के तहत उसका सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस के रिसर्च एनालिस्ट आर विग्नेश लिखते हैं कि सियोल में मून जे-इन के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती सरकार चीन को नाराज करने से बचने के लिए रणनीतिक अस्पष्टता की सतर्क मुद्रा अपनाती रही है.

विग्नेश के अनुसार, दक्षिण कोरिया की इंडो-पैसिफिक रणनीति यून सरकार की इस रणनीतिक अस्पष्टता से स्पष्ट प्रस्थान का संकेत देती है. उन्होंने कहा कि यह रणनीति वाशिंगटन के आईपीएस (इंडो-पैसिफिक रणनीति) के साथ सियोल के रणनीतिक मेल को दर्शाती है.

शुक्रवार के त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन का जिक्र करते हुए योहोम ने कहा कि दक्षिण कोरिया की मुख्य प्रेरक शक्ति उत्तर कोरिया के परमाणु खतरे से निपटना है. जिसकी वजह से वह अमेरिका और जापान के साथ सुरक्षा सहयोग को गहरा कर रहा है. उन्होंने कहा कि दक्षिण कोरिया और जापान दोनों लंबे समय से अमेरिका के सहयोगी रहे हैं. उन्होंने कहा कि इसमें कोई शक नहीं किया जा सकता कि दक्षिण कोरिया अब अमेरिका और जापान के साथ अपने संबंधों नई ऊंचाई पर ले जाना चाहता है. खासतौर से उत्तर कोरिया से मिल रही चुनौतियों और धमकियों को देखते हुए.

हालांकि सियोल, वाशिंगटन और टोक्यो ने पहले भी कई बार त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन आयोजित किए हैं. ये हमेशा किसी अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलनों के दौरान अलग हुई एक बैठक की तरह ही देखा जाता था. यह पहली बार है कि इस तरह का एकल शिखर सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है. योहोम ने बताया कि जापान अन्य देशों के साथ रक्षा सहयोग में रूढ़िवादी है. लेकिन चीन के आक्रमक स्वभाव को देखते हुए वह भी दक्षिण कोरिया के साथ गहरे रक्षा संबंधों में शामिल हो रहा है.

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उन्होंने आगे कहा कि दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय रक्षा सहयोग अमेरिका के नेतृत्व में और क्वाड द्वारा प्रतिबिंबित हिंद-प्रशांत में रणनीतिक ढांचे के अनुरूप है. उन्होंने कहा कि यह भारत की इंडो-पैसिफिक नीति के बिल्कुल अनुरूप है और एक स्वागत योग्य कदम है. योहोम ने कहा कि जापान और दक्षिण कोरिया का रक्षा और सुरक्षा क्षेत्र में भी अपने संबंधों को गहरा करना भारत के लिए एक अच्छा संकेत है. इससे चीन को बहुत कड़ा संदेश जाएगा.

नई दिल्ली: अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया के बीच कैंप डेविड में शुक्रवार को त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन होना है. इस सम्मेलन ने एक बार फिर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सियोल की भूमिका को फोकस में ला दिया है. अमेरिका की अपनी यात्रा से पहले, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यूं सुक येओ ने सियोल में एक टेलीविजन भाषण दिया. उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि शिखर सम्मेलन कोरियाई प्रायद्वीप और इंडो-पेसिफिक क्षेत्र में शांति और समृद्धि में योगदान देने वाले त्रिपक्षीय सहयोग में एक नया मील का पत्थर साबित होगा.

पिछले साल दिसंबर में, दक्षिण कोरिया ने एक नई इंडो-पैसिफिक रणनीति का अनावरण किया था. पर्यवेक्षकों की राय में कोरिया की यह नीति भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की रणनीतियों के साथ मेल खाती है. बता दें कि भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया क्वाड का हिस्सा हैं जो क्षेत्र में चीन के आधिपत्य का नियंत्रित करने और स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक के लिए काम कर रहे हैं. अपनी नई रणनीति में, दक्षिण कोरिया ने स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए क्षेत्रीय नियम-आधारित व्यवस्था को मजबूत करने का वादा किया है.

राष्ट्रपति यून ने पहले भी लोकतांत्रिक सिद्धांतों की रक्षा के लिए अधिक जिम्मेदारी लेने की बात स्वीकार की है. यह दस्तावेज भी इसका ही विस्तार है. इसके साथ ही यह अमेरिका और उसके सहयोगियों की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीतियों के अनुरूप है. हालांकि, इस दस्तावेज में भी क्षेत्र में चीनी खतरे की तीव्रता को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है. इस बारे में भी यह लगभग उतनी ही बात करता है जितनी अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया एक साथ और अलग-अलग मंचों पर कर चुके हैं.

एशियन कॉन्फ्लुएंस थिंक टैंक के फेलो और इंडो-पैसिफिक मुद्दों के विशेषज्ञ के योहोम ने ईटीवी भारत को बताया कि इंडो-पैसिफिक में चीन की गतिविधियों से दक्षिण कोरिया निश्चित रूप से चिंतित है. हालांकि, दक्षिण कोरिया कभी भी खुल कर चीन के मुकाबले में नहीं दिखना चाहता है. दक्षिण कोरिया चाहता है कि उसकी भूमिका आर्थिक क्षेत्रों में दिखे न कि अमेरिका के साथ खड़े किसी देश के रूप में.

1953 की आपसी रक्षा संधि के तहत अमेरिका का औपचारिक सहयोगी होने के बावजूद, दक्षिण कोरिया के चीन के साथ गहरे आर्थिक संबंध हैं. चीन 2015 के बाद से मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के तहत उसका सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस के रिसर्च एनालिस्ट आर विग्नेश लिखते हैं कि सियोल में मून जे-इन के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती सरकार चीन को नाराज करने से बचने के लिए रणनीतिक अस्पष्टता की सतर्क मुद्रा अपनाती रही है.

विग्नेश के अनुसार, दक्षिण कोरिया की इंडो-पैसिफिक रणनीति यून सरकार की इस रणनीतिक अस्पष्टता से स्पष्ट प्रस्थान का संकेत देती है. उन्होंने कहा कि यह रणनीति वाशिंगटन के आईपीएस (इंडो-पैसिफिक रणनीति) के साथ सियोल के रणनीतिक मेल को दर्शाती है.

शुक्रवार के त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन का जिक्र करते हुए योहोम ने कहा कि दक्षिण कोरिया की मुख्य प्रेरक शक्ति उत्तर कोरिया के परमाणु खतरे से निपटना है. जिसकी वजह से वह अमेरिका और जापान के साथ सुरक्षा सहयोग को गहरा कर रहा है. उन्होंने कहा कि दक्षिण कोरिया और जापान दोनों लंबे समय से अमेरिका के सहयोगी रहे हैं. उन्होंने कहा कि इसमें कोई शक नहीं किया जा सकता कि दक्षिण कोरिया अब अमेरिका और जापान के साथ अपने संबंधों नई ऊंचाई पर ले जाना चाहता है. खासतौर से उत्तर कोरिया से मिल रही चुनौतियों और धमकियों को देखते हुए.

हालांकि सियोल, वाशिंगटन और टोक्यो ने पहले भी कई बार त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन आयोजित किए हैं. ये हमेशा किसी अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलनों के दौरान अलग हुई एक बैठक की तरह ही देखा जाता था. यह पहली बार है कि इस तरह का एकल शिखर सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है. योहोम ने बताया कि जापान अन्य देशों के साथ रक्षा सहयोग में रूढ़िवादी है. लेकिन चीन के आक्रमक स्वभाव को देखते हुए वह भी दक्षिण कोरिया के साथ गहरे रक्षा संबंधों में शामिल हो रहा है.

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उन्होंने आगे कहा कि दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय रक्षा सहयोग अमेरिका के नेतृत्व में और क्वाड द्वारा प्रतिबिंबित हिंद-प्रशांत में रणनीतिक ढांचे के अनुरूप है. उन्होंने कहा कि यह भारत की इंडो-पैसिफिक नीति के बिल्कुल अनुरूप है और एक स्वागत योग्य कदम है. योहोम ने कहा कि जापान और दक्षिण कोरिया का रक्षा और सुरक्षा क्षेत्र में भी अपने संबंधों को गहरा करना भारत के लिए एक अच्छा संकेत है. इससे चीन को बहुत कड़ा संदेश जाएगा.

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