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मैला ढोने वालों और सफाई कर्मचारियों के जीवन में कोई बदलाव नहीं - मानवाधिकारों का उल्लंघन

सरकार ने 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम के खिलाफ एक कानून बनाया. राज्यों की ज़िदगी रवैये के कारण किसी भी स्तर पर कानून को ठीक से लागू नहीं किया. बीस साल बाद, 2013 में, मानव मलमूत्र को साफ करने के लिए मनुष्यों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने और उनके पुनर्वास के लिए कानूनी गारंटी प्रदान करने के लिए एक और कानून पारित किया गया. लेकिन इसके बाद भी मैला ढोने वालों और सफाई कर्मचारियों के जीवन में कोई बदलाव नहीं हुआ है.

मैला ढोने वालों के जीवन में कोई बदलाव नहीं
मैला ढोने वालों के जीवन में कोई बदलाव नहीं
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Published : Dec 24, 2020, 10:56 AM IST

हैदराबाद : ऐसा क्यों है कि मनुष्य के तौर पर आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार कुछ लोगों के लिए ही सुरक्षित कर दिया जाता है? इस देश में लाखों लोग आज भी दूसरे मनुष्यों का मैला और गंदगी को साफ करने के लिए मजबूर हैं? जब हम अपने इस तरह की जीवन शैली पर उठने वाले सवालों के जवाब की तलाश में निकलते हैं, तो कानून और सरकार को दोष देना आम सी बात लगती है. कोई भी विश्लेषण सतही रूप से बाहरी स्थितियों को छू सकता है. लेकिन समस्या की जड़ तक पहुंचना अहम है. कुछ वर्गों के खिलाफ समाज के सदियों पुराने भेदभाव ने उन्हें शिक्षा और आर्थिक समानता से वंचित रखा है. इसका एक प्रत्यक्ष और शर्मनाक उदाहरण है आज भी कुछ लोग मनुष्यों का मैला ढोते हैं. मानव मलमूत्र को साफ़ करने का काम करने के लिए मनुष्यों का उपयोग करने की यह प्रथा इस देश में अभी भी प्रचलन में है. यह सरकारों की अक्षमता का एक कलंक है, जो अधिनियमित कानूनों को सख्ती से लागू करने में असमर्थ हैं, जो वर्षों से चले आ रहे इस तरह के अनैतिक व्यवहार को अनदेखा कर रही है.

मानवाधिकारों का उल्लंघन

संविधान व्यक्तियों की गरिमा की गारंटी देता है. सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है. जिसे सुनिश्चित करने के लिए, सरकार ने 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम के खिलाफ एक कानून बनाया. राज्यों की ज़िदगी रवैये के कारण किसी भी स्तर पर कानून को ठीक से लागू नहीं किया. बीस साल बाद, 2013 में, मानव मलमूत्र को साफ करने के लिए मनुष्यों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने और उनके पुनर्वास के लिए कानूनी गारंटी प्रदान करने के लिए एक और कानून पारित किया गया. कानून में मानव के मलमूत्र को साफ करने के काम पर नियुक्त करने के लिए पांच साल तक की जेल और पांच लाख रुपये के जुर्माने का प्रस्ताव है. लेकिन विचित्र बात यह है कि देश में लाखों लोग अभी भी उस पेशे को जारी रखने के लिए मजबूर हैं - 2013 के कानून के तहत इन सात वर्षों में किसी को भी दंडित या जुर्माना देने का कोई रिकॉर्ड नहीं है. देश भर में अभी भी 7.7 लाख लोग मैला ढोने का काम कर रहे हैं. हजारों लोग अपने हाथों से मानव मल को उठाने और उसे टोकरियों में ले जाने के क्रूर व्यवसाय में लगे हुए हैं. यह अनुमान लगाया जाता है कि हजारों लोग अभी भी भारतीय रेलवे में मैला ढोने का काम करते हैं. आधिकारिक आंकड़े चाहे जो भी कहें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि देश भर में हर साल औसतन 1,700 लोग बीमारी, सीवर की सफाई के कारण, सेप्टिक टैंक विषाक्त गैसों के संपर्क में आने से मर जाते हैं.

चूंकि पहले ही लागू किए गए दो कानूनों ने वांछित परिणाम नहीं दिए थे, हाल ही में संसदीय सत्रों में कानून में संशोधन किया गया ताकि मैला ढोने वालों की नियुक्ति पर रोक लगाई जा सके. अतीत की तुलना में सजा की गंभीरता बढ़ा दी गई है. जब तक दलित समुदाय पर इस पेशे को थोपने वाला और उन्हें 'अछूत' मानने वाले घृणित रवैये में बदलाव नहीं आ जाता, तब तक इस तरह के कानून सिर्फ़ कागज़ तक ही सीमित रहेंगे. जब तक स्वच्छता कर्मचारियों की औसत जीवन प्रत्याशा पचास वर्ष से अधिक नहीं होती है और जो लोग सेप्टिक टैंक में उतरकर उन्हें साफ करते रहेंगे और अक्सर गंभीर बीमारियों से पीड़ित होते रहेंगे, जिनमें दमा और हेपेटाइटिस शामिल हैं, और एक दयनीय जीवन जीते रहेंगे, यह साबित होता रहेगा कि आज भी भारतीय लोकतंत्र है सुशासन स्थापित करने की दिशा में प्रगति नहीं कर रहा है.

समाधान जन जागरूकता के माध्यम से प्राप्त होगा

यदि विकास के मार्ग में तेजी से प्रगति करने वाले समाज में अभी भी शुष्क शौचालय हैं, तो इसका मतलब है कि वह प्रगति में मानवीय संवेदना विहीन है. यदि देश भर में अभी भी लाखों ‘शुष्क शौचालय’ मौजूद हैं, तो इसका मतलब है कि उन्हें साफ करने के लिए अधिक हाथों की आवश्यकता है. इसीलिए सफ़ाई कर्मचारी अंडोलन (एसकेए) ने शुष्क शौचालयों को ख़त्म करने के लिए कार्यक्रम चलाये हैं. यह अमानवीय है कि नागरिक समाज अभी भी इन शौचालयों का उपयोग किया जा रहा है और कुछ लोगों को पीढ़ियों से मल ढोने का काम करने के लिए नियुक्त किए जा रहे हैं. यही अमानवीय रवैया कुछ लोगों को सम्मानजनक बताकर समाज में उनका स्थान ऊंचा करते हुए कुछ समुदायों का बेइंतेहा उत्पीड़न करते हुए उन्हें अछूत साबित कर देते हैं. इस तरह की मानसिक- सामाजिक संकीर्णता को ख़त्म करना और कानूनों को लागू करने की तुलना में समाज में जागरूकता पैदा करना अधिक महत्वपूर्ण है. स्थानीय संस्थानों को उस सीमा तक तैयार करना और लोगों में जागरूकता बढ़ाना एक आंदोलन के रूप में किया जाना चाहिए. इसके अलावा, सरकारों को सीवर प्रणाली के आधुनिकीकरण, मानव अपशिष्ट के उपचार और परिवहन के लिए मशीनरी के उपयोग पर पूरा ध्यान देना चाहिए. जब तक समाज को स्वच्छता और अच्छे स्वास्थ्य के बीच के संबंध के बारे में जागरूक नहीं किया जाता है और एक मजबूत कार्य योजना के साथ कदम उठाया जाता है, तब तक मैला ढोने वालों और स्वच्छता कर्मियों की सेवाओं को अमूल्य बताकर उनके प्रति दिखाई जाने वाली नकली सहानुभूति बेमानी है. उन्हें इस अमानवीय पेशे से सही मायनों में छुटकारा दिलाया जाना चाहिए.

हैदराबाद : ऐसा क्यों है कि मनुष्य के तौर पर आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार कुछ लोगों के लिए ही सुरक्षित कर दिया जाता है? इस देश में लाखों लोग आज भी दूसरे मनुष्यों का मैला और गंदगी को साफ करने के लिए मजबूर हैं? जब हम अपने इस तरह की जीवन शैली पर उठने वाले सवालों के जवाब की तलाश में निकलते हैं, तो कानून और सरकार को दोष देना आम सी बात लगती है. कोई भी विश्लेषण सतही रूप से बाहरी स्थितियों को छू सकता है. लेकिन समस्या की जड़ तक पहुंचना अहम है. कुछ वर्गों के खिलाफ समाज के सदियों पुराने भेदभाव ने उन्हें शिक्षा और आर्थिक समानता से वंचित रखा है. इसका एक प्रत्यक्ष और शर्मनाक उदाहरण है आज भी कुछ लोग मनुष्यों का मैला ढोते हैं. मानव मलमूत्र को साफ़ करने का काम करने के लिए मनुष्यों का उपयोग करने की यह प्रथा इस देश में अभी भी प्रचलन में है. यह सरकारों की अक्षमता का एक कलंक है, जो अधिनियमित कानूनों को सख्ती से लागू करने में असमर्थ हैं, जो वर्षों से चले आ रहे इस तरह के अनैतिक व्यवहार को अनदेखा कर रही है.

मानवाधिकारों का उल्लंघन

संविधान व्यक्तियों की गरिमा की गारंटी देता है. सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करना राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है. जिसे सुनिश्चित करने के लिए, सरकार ने 1993 में सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम के खिलाफ एक कानून बनाया. राज्यों की ज़िदगी रवैये के कारण किसी भी स्तर पर कानून को ठीक से लागू नहीं किया. बीस साल बाद, 2013 में, मानव मलमूत्र को साफ करने के लिए मनुष्यों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने और उनके पुनर्वास के लिए कानूनी गारंटी प्रदान करने के लिए एक और कानून पारित किया गया. कानून में मानव के मलमूत्र को साफ करने के काम पर नियुक्त करने के लिए पांच साल तक की जेल और पांच लाख रुपये के जुर्माने का प्रस्ताव है. लेकिन विचित्र बात यह है कि देश में लाखों लोग अभी भी उस पेशे को जारी रखने के लिए मजबूर हैं - 2013 के कानून के तहत इन सात वर्षों में किसी को भी दंडित या जुर्माना देने का कोई रिकॉर्ड नहीं है. देश भर में अभी भी 7.7 लाख लोग मैला ढोने का काम कर रहे हैं. हजारों लोग अपने हाथों से मानव मल को उठाने और उसे टोकरियों में ले जाने के क्रूर व्यवसाय में लगे हुए हैं. यह अनुमान लगाया जाता है कि हजारों लोग अभी भी भारतीय रेलवे में मैला ढोने का काम करते हैं. आधिकारिक आंकड़े चाहे जो भी कहें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि देश भर में हर साल औसतन 1,700 लोग बीमारी, सीवर की सफाई के कारण, सेप्टिक टैंक विषाक्त गैसों के संपर्क में आने से मर जाते हैं.

चूंकि पहले ही लागू किए गए दो कानूनों ने वांछित परिणाम नहीं दिए थे, हाल ही में संसदीय सत्रों में कानून में संशोधन किया गया ताकि मैला ढोने वालों की नियुक्ति पर रोक लगाई जा सके. अतीत की तुलना में सजा की गंभीरता बढ़ा दी गई है. जब तक दलित समुदाय पर इस पेशे को थोपने वाला और उन्हें 'अछूत' मानने वाले घृणित रवैये में बदलाव नहीं आ जाता, तब तक इस तरह के कानून सिर्फ़ कागज़ तक ही सीमित रहेंगे. जब तक स्वच्छता कर्मचारियों की औसत जीवन प्रत्याशा पचास वर्ष से अधिक नहीं होती है और जो लोग सेप्टिक टैंक में उतरकर उन्हें साफ करते रहेंगे और अक्सर गंभीर बीमारियों से पीड़ित होते रहेंगे, जिनमें दमा और हेपेटाइटिस शामिल हैं, और एक दयनीय जीवन जीते रहेंगे, यह साबित होता रहेगा कि आज भी भारतीय लोकतंत्र है सुशासन स्थापित करने की दिशा में प्रगति नहीं कर रहा है.

समाधान जन जागरूकता के माध्यम से प्राप्त होगा

यदि विकास के मार्ग में तेजी से प्रगति करने वाले समाज में अभी भी शुष्क शौचालय हैं, तो इसका मतलब है कि वह प्रगति में मानवीय संवेदना विहीन है. यदि देश भर में अभी भी लाखों ‘शुष्क शौचालय’ मौजूद हैं, तो इसका मतलब है कि उन्हें साफ करने के लिए अधिक हाथों की आवश्यकता है. इसीलिए सफ़ाई कर्मचारी अंडोलन (एसकेए) ने शुष्क शौचालयों को ख़त्म करने के लिए कार्यक्रम चलाये हैं. यह अमानवीय है कि नागरिक समाज अभी भी इन शौचालयों का उपयोग किया जा रहा है और कुछ लोगों को पीढ़ियों से मल ढोने का काम करने के लिए नियुक्त किए जा रहे हैं. यही अमानवीय रवैया कुछ लोगों को सम्मानजनक बताकर समाज में उनका स्थान ऊंचा करते हुए कुछ समुदायों का बेइंतेहा उत्पीड़न करते हुए उन्हें अछूत साबित कर देते हैं. इस तरह की मानसिक- सामाजिक संकीर्णता को ख़त्म करना और कानूनों को लागू करने की तुलना में समाज में जागरूकता पैदा करना अधिक महत्वपूर्ण है. स्थानीय संस्थानों को उस सीमा तक तैयार करना और लोगों में जागरूकता बढ़ाना एक आंदोलन के रूप में किया जाना चाहिए. इसके अलावा, सरकारों को सीवर प्रणाली के आधुनिकीकरण, मानव अपशिष्ट के उपचार और परिवहन के लिए मशीनरी के उपयोग पर पूरा ध्यान देना चाहिए. जब तक समाज को स्वच्छता और अच्छे स्वास्थ्य के बीच के संबंध के बारे में जागरूक नहीं किया जाता है और एक मजबूत कार्य योजना के साथ कदम उठाया जाता है, तब तक मैला ढोने वालों और स्वच्छता कर्मियों की सेवाओं को अमूल्य बताकर उनके प्रति दिखाई जाने वाली नकली सहानुभूति बेमानी है. उन्हें इस अमानवीय पेशे से सही मायनों में छुटकारा दिलाया जाना चाहिए.

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