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देहरादून से मसूरी जाने वाले 'किपलिंग ट्रेल' पर बढ़ी चहल-पहल, जानें इसका इतिहास

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Published : Nov 26, 2021, 7:56 PM IST

उत्तराखंड में देहरादून से मसूरी जाने वाले पुराने पैदल मार्ग पर सालों बाद चहल-पहल देखने को मिल रही है. 1880 के दशक में अंग्रेजी उपन्यासकार रुडयार्ड किपलिंग (English novelist Rudyard Kipling) के नाम पर इस रास्ते का नाम रखा गया है. राजपुर रोड की खत्म होती सीमा से शुरू होता हुआ यह मार्ग मसूरी तक जाता है. इस मार्ग पर पहले के जमाने में आवाजाही के लिए टोल भी लिया जाता था. आजकल ये मार्ग किपलिंग ट्रेल (kipling trail) के नाम से प्रसिद्ध हो रहा है.

kipling trail etv bharat
किपलिंग ट्रेल

देहरादून : उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से मसूरी तक जाने वाले ट्रैकिंग रूट किपलिंग ट्रेल (kipling trail) पर एक बार फिर लोगों की आवाजाही बढ़ी है. इस पैदल मार्ग के ऐतिहासिक पहलू को देखें तो यह काफी रोचक रहा है. किसी जमाने में इसी मार्ग से होते हुए अंग्रेज मसूरी पहुंचते थे.

इसी मार्ग पर पहला टोल भी लगाया गया था, जिससे मसूरी और उसके आस-पास की व्यावसायिक गतिविधियां होती थीं. अंग्रेजों के जाने के बाद भी कई सालों तक लोग इसी पैदल मार्ग से सफर करते रहे. धीरे-धीरे सड़कों का जाल बिछने और साधन बढ़ने से लोगों ने इस मार्ग को भुला दिया, मगर अब एक बार फिर ये मार्ग गुलजार होने लगा है.

ऐतिहासिक है ये पैदल मार्ग

लगातार हो रहे विकास ने पुरानी व्यवस्थाओं और धरोहरों को इतिहास में बदल दिया है, मगर आज भी जब हम इतिहास के पुराने पन्नों को पलटकर देखते हैं तो इसमें कई ऐसी चीजें नजर आती हैं जो कभी बेहद खास थीं. बस बदले हुए वक्त ने इनके स्वरूप को बदल दिया है, इनका महत्व आज भी वही है. देहरादून से मसूरी को जोड़ने वाला पुराना ऐतिहासिक मार्ग भी कुछ ऐसी ही धरोहरों में से एक है. ये मार्ग आज किपलिंग ट्रेल (kipling trail) के नाम से मशहूर हो रहा है.

रुडयार्ड किपलिंग के नाम पर पड़ा किपलिंग ट्रेल का नाम

इसका रास्ते का नाम अंग्रेजी उपन्यासकार रुडयार्ड किपलिंग के नाम पर रखा गया है, जिनके बारे में माना जाता है कि वो 1880 के दशक में इसी रास्ते से मसूरी पहुंचे थे. माना जाता है कि 1880 के दशक में रुडयार्ड किपलिंग ने इस मार्ग पर ट्रेकिंग की थी और उनके उपन्यास किम में वर्णित पैदल यात्रा इसी मार्ग से हुई थी. लेखक रस्किन बॉन्ड ने भी अपनी किताब, द किपलिंग रोड में, राजपुर से मसूरी तक पुराने रास्ते पर चलने वाले लोगों की कई कहानियां बताई हैं.

किपलिंग ट्रेल के तौर पर फेमस हो रहा पुराना देहरादून-मसूरी पैदल मार्ग

खड़ी ढलानों के बीच से निकलता है रास्ता

ये रास्ता लगभग 9 किलोमीटर का है, इसको पैदल पूरा करने में 2 से 3 घंटे लगते हैं. राजपुर से होते हुए यह पांच खड़ी ढलानों के बीच से रास्ता बनाता है जिसे स्थानीय रूप से पांच कैंची कहा जाता है. ये पगडंडी राजपुर गांव में शहंशाही आश्रम/क्रिश्चियन रिट्रीट सेंटर के बाहर से शुरू होती है और लगभग 1.8 किमी की खड़ी चढ़ाई के साथ शुरू होती है. पगडंडी की शुरुआत में कुछ ऊंचे पेड़ के साथ झाड़ीदार वनस्पति देखने को मिलते हैं, लेकिन जल्द ही खुला पहाड़ी जंगल आ जाता है.

पगडंडी की सतह ज्यादातर रास्ते के लिए ठोस है, लेकिन यह कुछ हिस्सों में खराब हो गई है और टूट गई है. पगडंडी पर चलते हुए दून घाटी के सुंदर दृश्य दिखाई देते हैं. ओक ग्रोव स्कूल के मुख्य द्वार के पास मसूरी-बार्लोगंज-देहरादून रोड के मोड़ पर पगडंडी समाप्त होती है. यहां से, झरीपानी की ओर बढ़ सकते हैं, जहां सेंट जॉर्ज कॉलेज के गेट के बाहर कुछ रेस्तरां और कैफे हैं.

राजपुर रोड की सीमा खत्म होते ही शुरू होता है पैदल मार्ग

जिस ऐतिहासिक मार्ग से पहली दफा अंग्रेज मसूरी पहुंचे थे, उसके कई सालों तक इसी मार्ग से मसूरी के लिए आवाजाही होती रही. दरअसल, यह मार्ग देहरादून की राजपुर रोड जहां खत्म होती है वहां से शुरू होता है. देहरादून राजपुर रोड की सीमा जहां पर खत्म होती है वहीं से मसूरी नगर पालिका मसूरी की सीमा शुरू होती है.

साथ ही यहीं पर पहली दफा टोल लगाया गया था. टोल की रेट लिस्ट आज भी यहां लगे बोर्ड पर साफ-साफ देखी जा सकती है. राजपुर रोड के आखिरी मुहाने पर लगे इस टोल बोर्ड से अंदाजा लगा सकते हैं कि उस समय यहां किस तरह की व्यवस्था रही होगी.

तब यब केवल एकमात्र पैदल मार्ग था

राजपुर रोड टोल पर स्थित इस बोर्ड पर घोड़े खच्चर और डोली ले जाने का किराया लिखा हुआ है. इससे पता चलता है कि आज भले हम देहरादून से मसूरी का सफर चौड़ी सड़कों से हुए मात्र एक घंटे में पूरा कर लेते हैं, मगर उस दौर में ये यात्रा काफी कठिन हुआ करती थी.

उस जमाने में बकायदा राजपुर रोड के आखिरी मुहाने पर स्थित इस टोल से मसूरी जाने के लिए पैदल का टिकट काटा जाता था. इसके अलावा जिस तरह की व्यवस्था आज गौरीकुंड से केदारनाथ जाने के लिए दिखाई देती है उसी तरह की व्यवस्था पहले इस मार्ग पर भी थी. राजपुर रोड पर लगाया गया टोल न केवल उस समय मसूरी जाने के लिए एकमात्र पैदल मार्ग था बल्कि इस टोल पर आसपास की व्यवसायिक गतिविधियां भी निर्भर थी.

कैप्टन यंग ने की मसूरी की खोज

दरअसल, पहाड़ों की रानी मसूरी की खोज ब्रिटिश अधिकारी 1826 में कैप्टन यंग ने की थी. मसूरी की खोज की कहानी भी काफी रोचक है. कहा जाता है कि ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन यंग अपने कुछ भारतीय सैनिकों और देहरादून के स्थानीय व्यवसायियों के साथ गर्मियों के समय देहरादून के पास मौजूद इसी पहाड़ी इलाके पर शिकार के लिए निकले थे.

कैप्टन यंग अपने साथियों के साथ देहरादून राजपुर रोड के आखिरी मुहाने से ऊपर पहाड़ी पर पगडंडी से होते हुए शिखर पर पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि ऊपर काफी अच्छी रमणीय और सुंदर जगह है. शुरुआत में अंग्रेजों ने मसूरी को एक वेकेशन डेस्टिनेशन के तौर पर विकसित किया. जिसके तहत मसूरी के लंढौर और और लाल टिब्बा क्षेत्र को निखारा गया.

95 साल पुराना है ये टोल

धीरे-धीरे जैसे-जैसे मसूरी का विकास हुआ वैसे-वैसे मोटर मार्ग भी मसूरी तक जाने लगा, जिसके बाद लोग इस पैदल मार्ग को भूलने लगे. मसूरी टोल पर लंबे समय तक काम करने वाले उदय सिंह भंडारी बताते हैं कि, आजादी के बाद तक पुराने लोग इस मार्ग का इस्तेमाल किया करते थे.

उन्होंने बताया मसूरी जाने वाले पैदल मार्ग की शुरुआत में लगाया जाने वाला टोल 95 साल पुराना है, जो 1929 में लगाया गया था. यहां से कुछ ऊपर जड़ीपानी नामक जगह पर चेक पोस्ट भी हुआ करता था. अगर कोई बिना टिकट या फिर टोल की फीस दिए मसूरी जाता था तो उसे चेक पोस्ट पर पकड़ लिया जाता था.

देहरादून में चला करती थी ग्वालियर कंपनी की बसें

उदय सिंह भंडारी बताते हैं कि जब देश में अंग्रेजों का शासन था उस वक्त देहरादून में राजपुर रोड तक भारत सरकार नहीं बल्कि ग्वालियर कंपनी की बसें चला करती थी. साल 1930 से लेकर देश की आजादी तक अलग-अलग चरणों में हिल स्टेशन मसूरी को मोटर मार्ग से जोड़ा गया. आजादी के बाद पहली दफा मसूरी नगर पालिका में भारतीय चेयरमैन के रूप में आरके वर्मा को नगरपालिका अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद उन्होंने मसूरी तक मोटर मार्ग का निर्माण करवाया.

आजादी के बाद भी बनी रही चहल-पहल

मसूरी जाने वाला मोटर मार्ग राजपुर रोड से जाने वाले पैदल मार्च से काफी दूर है. यही वजह है कि जैसे-जैसे मोटर मार्ग पर लोगों की आवाजाही बढ़ी, वैसे ही लोग इस पैदल मार्ग को भूलने लगे. लोगों की आवाजाही बंद होने से यह पैदल मार्ग वीरान पड़ गया. उदय भंडारी बताते हैं कि आजादी के बाद जब मसूरी सड़क पहुंची उसके सालों बाद तक भी इस पैदल मार्ग पर खूब चहल पहल हुआ करती थी. लोग इस पैदल मार्ग के साथ ज्यादा अनुकूल थे. तब वाहनों की संख्या कम थी. जिसके कारण ये पैदल मार्ग लोगों का बड़ा सहारा था.

मसूरी का पैदल मार्ग किपलिंग ट्रेल के नाम से प्रसिद्ध

आज देहरादून से मसूरी जाने का ये पैदल मार्ग एक नए स्वरूप में सामने आ रहा है. दरअसल, मसूरी जाने वाला ये रास्ता ट्रैकिंग करने वालों को खूब भा रहा है. जब से कोविड-19 ने कहर बरपाया है तब से लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक हुए हैं. अब लोग मसूरी जाने वाले इस पैदल मार्ग का ट्रैकिंग के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. उदय सिंह भंडारी बताते हैं कि पिछले लॉकडाउन के बाद इस पैदल मार्ग पर लोगों की आवाजाही बढ़ी है. मसूरी-देहरादून के कुछ युवा मसूरी जाने वाले इस पैदल मार्ग को इन दिनों किलपिंग ट्रेल के नाम से जाना जा रहा है.

यह भी पढ़ें- international flights : केंद्र का बड़ा फैसला, 15 दिसंबर से शुरू होंगी अंतरराष्ट्रीय उड़ानें

वहीं, प्रसिद्ध इतिहासकार गणेश शैली (Ganesh Saili) का कहना है कि यह किलपिंग ट्रेल नहीं है, बल्कि यह राजपुर मार्ग है. ब्रिटिश अधिकारी के किपलिंग 1888 में मसूरी आया था. उसी के नाम पर इस मार्ग के एक छोटे से हिस्से का नाम रखा गया है. ये मसूरी जेपी होटल के गेट से आने वाला शॉर्टकट था जो कि तकरीबन 200 से 250 गज का हिस्सा है. आजकल युवा इस पूरे मार्ग को किपलिंग मार्ग के नाम से जान रहे हैं.

देहरादून : उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से मसूरी तक जाने वाले ट्रैकिंग रूट किपलिंग ट्रेल (kipling trail) पर एक बार फिर लोगों की आवाजाही बढ़ी है. इस पैदल मार्ग के ऐतिहासिक पहलू को देखें तो यह काफी रोचक रहा है. किसी जमाने में इसी मार्ग से होते हुए अंग्रेज मसूरी पहुंचते थे.

इसी मार्ग पर पहला टोल भी लगाया गया था, जिससे मसूरी और उसके आस-पास की व्यावसायिक गतिविधियां होती थीं. अंग्रेजों के जाने के बाद भी कई सालों तक लोग इसी पैदल मार्ग से सफर करते रहे. धीरे-धीरे सड़कों का जाल बिछने और साधन बढ़ने से लोगों ने इस मार्ग को भुला दिया, मगर अब एक बार फिर ये मार्ग गुलजार होने लगा है.

ऐतिहासिक है ये पैदल मार्ग

लगातार हो रहे विकास ने पुरानी व्यवस्थाओं और धरोहरों को इतिहास में बदल दिया है, मगर आज भी जब हम इतिहास के पुराने पन्नों को पलटकर देखते हैं तो इसमें कई ऐसी चीजें नजर आती हैं जो कभी बेहद खास थीं. बस बदले हुए वक्त ने इनके स्वरूप को बदल दिया है, इनका महत्व आज भी वही है. देहरादून से मसूरी को जोड़ने वाला पुराना ऐतिहासिक मार्ग भी कुछ ऐसी ही धरोहरों में से एक है. ये मार्ग आज किपलिंग ट्रेल (kipling trail) के नाम से मशहूर हो रहा है.

रुडयार्ड किपलिंग के नाम पर पड़ा किपलिंग ट्रेल का नाम

इसका रास्ते का नाम अंग्रेजी उपन्यासकार रुडयार्ड किपलिंग के नाम पर रखा गया है, जिनके बारे में माना जाता है कि वो 1880 के दशक में इसी रास्ते से मसूरी पहुंचे थे. माना जाता है कि 1880 के दशक में रुडयार्ड किपलिंग ने इस मार्ग पर ट्रेकिंग की थी और उनके उपन्यास किम में वर्णित पैदल यात्रा इसी मार्ग से हुई थी. लेखक रस्किन बॉन्ड ने भी अपनी किताब, द किपलिंग रोड में, राजपुर से मसूरी तक पुराने रास्ते पर चलने वाले लोगों की कई कहानियां बताई हैं.

किपलिंग ट्रेल के तौर पर फेमस हो रहा पुराना देहरादून-मसूरी पैदल मार्ग

खड़ी ढलानों के बीच से निकलता है रास्ता

ये रास्ता लगभग 9 किलोमीटर का है, इसको पैदल पूरा करने में 2 से 3 घंटे लगते हैं. राजपुर से होते हुए यह पांच खड़ी ढलानों के बीच से रास्ता बनाता है जिसे स्थानीय रूप से पांच कैंची कहा जाता है. ये पगडंडी राजपुर गांव में शहंशाही आश्रम/क्रिश्चियन रिट्रीट सेंटर के बाहर से शुरू होती है और लगभग 1.8 किमी की खड़ी चढ़ाई के साथ शुरू होती है. पगडंडी की शुरुआत में कुछ ऊंचे पेड़ के साथ झाड़ीदार वनस्पति देखने को मिलते हैं, लेकिन जल्द ही खुला पहाड़ी जंगल आ जाता है.

पगडंडी की सतह ज्यादातर रास्ते के लिए ठोस है, लेकिन यह कुछ हिस्सों में खराब हो गई है और टूट गई है. पगडंडी पर चलते हुए दून घाटी के सुंदर दृश्य दिखाई देते हैं. ओक ग्रोव स्कूल के मुख्य द्वार के पास मसूरी-बार्लोगंज-देहरादून रोड के मोड़ पर पगडंडी समाप्त होती है. यहां से, झरीपानी की ओर बढ़ सकते हैं, जहां सेंट जॉर्ज कॉलेज के गेट के बाहर कुछ रेस्तरां और कैफे हैं.

राजपुर रोड की सीमा खत्म होते ही शुरू होता है पैदल मार्ग

जिस ऐतिहासिक मार्ग से पहली दफा अंग्रेज मसूरी पहुंचे थे, उसके कई सालों तक इसी मार्ग से मसूरी के लिए आवाजाही होती रही. दरअसल, यह मार्ग देहरादून की राजपुर रोड जहां खत्म होती है वहां से शुरू होता है. देहरादून राजपुर रोड की सीमा जहां पर खत्म होती है वहीं से मसूरी नगर पालिका मसूरी की सीमा शुरू होती है.

साथ ही यहीं पर पहली दफा टोल लगाया गया था. टोल की रेट लिस्ट आज भी यहां लगे बोर्ड पर साफ-साफ देखी जा सकती है. राजपुर रोड के आखिरी मुहाने पर लगे इस टोल बोर्ड से अंदाजा लगा सकते हैं कि उस समय यहां किस तरह की व्यवस्था रही होगी.

तब यब केवल एकमात्र पैदल मार्ग था

राजपुर रोड टोल पर स्थित इस बोर्ड पर घोड़े खच्चर और डोली ले जाने का किराया लिखा हुआ है. इससे पता चलता है कि आज भले हम देहरादून से मसूरी का सफर चौड़ी सड़कों से हुए मात्र एक घंटे में पूरा कर लेते हैं, मगर उस दौर में ये यात्रा काफी कठिन हुआ करती थी.

उस जमाने में बकायदा राजपुर रोड के आखिरी मुहाने पर स्थित इस टोल से मसूरी जाने के लिए पैदल का टिकट काटा जाता था. इसके अलावा जिस तरह की व्यवस्था आज गौरीकुंड से केदारनाथ जाने के लिए दिखाई देती है उसी तरह की व्यवस्था पहले इस मार्ग पर भी थी. राजपुर रोड पर लगाया गया टोल न केवल उस समय मसूरी जाने के लिए एकमात्र पैदल मार्ग था बल्कि इस टोल पर आसपास की व्यवसायिक गतिविधियां भी निर्भर थी.

कैप्टन यंग ने की मसूरी की खोज

दरअसल, पहाड़ों की रानी मसूरी की खोज ब्रिटिश अधिकारी 1826 में कैप्टन यंग ने की थी. मसूरी की खोज की कहानी भी काफी रोचक है. कहा जाता है कि ब्रिटिश अधिकारी कैप्टन यंग अपने कुछ भारतीय सैनिकों और देहरादून के स्थानीय व्यवसायियों के साथ गर्मियों के समय देहरादून के पास मौजूद इसी पहाड़ी इलाके पर शिकार के लिए निकले थे.

कैप्टन यंग अपने साथियों के साथ देहरादून राजपुर रोड के आखिरी मुहाने से ऊपर पहाड़ी पर पगडंडी से होते हुए शिखर पर पहुंचे, जहां उन्होंने देखा कि ऊपर काफी अच्छी रमणीय और सुंदर जगह है. शुरुआत में अंग्रेजों ने मसूरी को एक वेकेशन डेस्टिनेशन के तौर पर विकसित किया. जिसके तहत मसूरी के लंढौर और और लाल टिब्बा क्षेत्र को निखारा गया.

95 साल पुराना है ये टोल

धीरे-धीरे जैसे-जैसे मसूरी का विकास हुआ वैसे-वैसे मोटर मार्ग भी मसूरी तक जाने लगा, जिसके बाद लोग इस पैदल मार्ग को भूलने लगे. मसूरी टोल पर लंबे समय तक काम करने वाले उदय सिंह भंडारी बताते हैं कि, आजादी के बाद तक पुराने लोग इस मार्ग का इस्तेमाल किया करते थे.

उन्होंने बताया मसूरी जाने वाले पैदल मार्ग की शुरुआत में लगाया जाने वाला टोल 95 साल पुराना है, जो 1929 में लगाया गया था. यहां से कुछ ऊपर जड़ीपानी नामक जगह पर चेक पोस्ट भी हुआ करता था. अगर कोई बिना टिकट या फिर टोल की फीस दिए मसूरी जाता था तो उसे चेक पोस्ट पर पकड़ लिया जाता था.

देहरादून में चला करती थी ग्वालियर कंपनी की बसें

उदय सिंह भंडारी बताते हैं कि जब देश में अंग्रेजों का शासन था उस वक्त देहरादून में राजपुर रोड तक भारत सरकार नहीं बल्कि ग्वालियर कंपनी की बसें चला करती थी. साल 1930 से लेकर देश की आजादी तक अलग-अलग चरणों में हिल स्टेशन मसूरी को मोटर मार्ग से जोड़ा गया. आजादी के बाद पहली दफा मसूरी नगर पालिका में भारतीय चेयरमैन के रूप में आरके वर्मा को नगरपालिका अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद उन्होंने मसूरी तक मोटर मार्ग का निर्माण करवाया.

आजादी के बाद भी बनी रही चहल-पहल

मसूरी जाने वाला मोटर मार्ग राजपुर रोड से जाने वाले पैदल मार्च से काफी दूर है. यही वजह है कि जैसे-जैसे मोटर मार्ग पर लोगों की आवाजाही बढ़ी, वैसे ही लोग इस पैदल मार्ग को भूलने लगे. लोगों की आवाजाही बंद होने से यह पैदल मार्ग वीरान पड़ गया. उदय भंडारी बताते हैं कि आजादी के बाद जब मसूरी सड़क पहुंची उसके सालों बाद तक भी इस पैदल मार्ग पर खूब चहल पहल हुआ करती थी. लोग इस पैदल मार्ग के साथ ज्यादा अनुकूल थे. तब वाहनों की संख्या कम थी. जिसके कारण ये पैदल मार्ग लोगों का बड़ा सहारा था.

मसूरी का पैदल मार्ग किपलिंग ट्रेल के नाम से प्रसिद्ध

आज देहरादून से मसूरी जाने का ये पैदल मार्ग एक नए स्वरूप में सामने आ रहा है. दरअसल, मसूरी जाने वाला ये रास्ता ट्रैकिंग करने वालों को खूब भा रहा है. जब से कोविड-19 ने कहर बरपाया है तब से लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक हुए हैं. अब लोग मसूरी जाने वाले इस पैदल मार्ग का ट्रैकिंग के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. उदय सिंह भंडारी बताते हैं कि पिछले लॉकडाउन के बाद इस पैदल मार्ग पर लोगों की आवाजाही बढ़ी है. मसूरी-देहरादून के कुछ युवा मसूरी जाने वाले इस पैदल मार्ग को इन दिनों किलपिंग ट्रेल के नाम से जाना जा रहा है.

यह भी पढ़ें- international flights : केंद्र का बड़ा फैसला, 15 दिसंबर से शुरू होंगी अंतरराष्ट्रीय उड़ानें

वहीं, प्रसिद्ध इतिहासकार गणेश शैली (Ganesh Saili) का कहना है कि यह किलपिंग ट्रेल नहीं है, बल्कि यह राजपुर मार्ग है. ब्रिटिश अधिकारी के किपलिंग 1888 में मसूरी आया था. उसी के नाम पर इस मार्ग के एक छोटे से हिस्से का नाम रखा गया है. ये मसूरी जेपी होटल के गेट से आने वाला शॉर्टकट था जो कि तकरीबन 200 से 250 गज का हिस्सा है. आजकल युवा इस पूरे मार्ग को किपलिंग मार्ग के नाम से जान रहे हैं.

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