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जानें, नीतीश ने ललन सिंह पर क्यों लगाया दांव ?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ललन सिंह को जनता दल यू को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है. यह पहली बार है कि नीतीश ने किसी अगड़ी जाति के नेता को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी है. इसके बावजूद कि ललन सिंह ने एक बार पार्टी छोड़ दी थी और नीतीश पर काफी तल्ख टिप्पणी की थी, उन्हें अध्यक्ष क्यों बनाया गया, क्या उनकी कोई मजबूरी है या रणनीति, विस्तारसे जानें.

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ललन सिंह, नीतीश कुमार
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Published : Aug 1, 2021, 5:53 PM IST

हैदराबाद : आरसीपी सिंह के केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद ही कयास लगाए जा रहे थे जनता दल यू जल्द ही अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनेगा. आखिरकार पार्टी ने ललन सिंह को अपना नया अध्यक्ष चुन लिया. वैसे, आरसीपी सिंह ने मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद कहा था कि वो अपना काम जानते हैं और पार्टी का भी काम करते रहेंगे.

अब सवाल ये उठता है कि जब आरसीपी सिंह ने खुद कहा था कि वह पार्टी का काम देखते रहेंगे, फिर नीतीश कुमार ने उन्हें अध्यक्ष बने रहने पर अपनी सहमति क्यों नहीं दी ? क्या नीतीश और आरसीपी सिंह के बीच मनमुनटाव है ? क्या नीतीश नहीं चाहते थे कि आरसीपी सिंह मोदी कैबिनट में शामिल न हों, क्योंकि जितनी संख्या में उन्होंने मंत्री पद मांगा था, उनकी मांगें पूरी नहीं हुई. नीतीश ने आरसीपी सिंह के मंत्री बनने पर ट्वीटर के जरिए कोई बधाई भी नहीं दी थी, जबकि आजकल वह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहते हैं.

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार नीतीश समर्थक नेताओं का कहना है कि मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने का निर्णय खुद आरसीपी सिंह का था. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने पहले ही आरसीपी सिंह को मंत्री बनने पर राजी कर लिया था. शायद आपको लग रहा होगा कि ललन सिंह का अध्यक्ष बनने से इस मुद्दे का कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. दोनों ही मामले एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.

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जेडीय यू के नेता और कार्यकर्ता

दरअसल, नीतीश कुमार चाहते हैं कि उनका सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला कायम रहे. क्योंकि वह खुद कुर्मी जाति से आते हैं. आरसीपी सिंह भी उसी जाति से हैं. लिहाजा, अगर इसी जाति से किसी को अध्यक्ष बना देते, तो बिहार में यह संदेश जाता कि नीतीश की पार्टी किसी एक जाति की पार्टी है. वह दूसरी जाति के नेताओं को उतना अधिक वैल्यू नहीं देते हैं. नीतीश अपनी छवि को लेकर काफी सजग रहते है. लिहाजा, यह निर्णय उनकी सोची-समझी रणनीति का एक हिस्सा है.

राजनीतिक जगत में यह चर्चा जोरों पर थी कि नीतीश कुमार उपेंद्र कुशवाहा को अध्यक्ष बना सकते हैं. उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय दल की जिम्मेदारी भी दी गई. इसके बाद यह मान लिया गया था कि कुशवाहा ही अगले अध्यक्ष होंगे. कुशवाहा के हावभाव भी ऐसे संकेत दे रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वह कोइरी जाति से आते हैं. कुर्मी-कोइरी को 'लव-कुश' जैसे युग्मों से संबोधित किया जाता है.

ललन सिंह भूमिहार जाति से आते हैं. भूमिहार सवर्ण समुदाय में आता है. नीतीश और ललन सिंह की जोड़ी भी काफी पुरानी है. ललन सिंह किसी भी तरीके से नीतीश को चुनौती नहीं दे सकते हैं. पार्टी के गठन के 18 साल के इतिहास में पहली बार है कि किसी फॉरवर्ड को नीतीश ने पार्टी अध्यक्ष बनाया है. ललन सिंह प्रबंधन के काम में माहिर समझे जाते हैं.

बिहार की राजनीति को करीब से जानने वाले बताते हैं कि जदयू यानी नीतीश कुमार चाहते हैं कि भाजपा का उन पर दबाव न रहे. इसलिए भाजपा के वोट बैंक में जब तक सेंधमारी नहीं की जाएगी, तब तक जदयू अपने ऊपर से दबाव नहीं हटा सकती है. भूमिहार मतदाता भाजपा का मुख्य वोट बैंक माना जाता रहा है.

दूसरी बात यह है कि नीतीश दलित नेता राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी वोट के वोट बैंक को भी हासिल करना चाहती है. क्योंकि चिराग पासवान खुले तौर पर नीतीश का विरोध कर रहे हैं. इसलिए ऐसा कहा जाता है कि उनके इशारे पर ही ललन सिंह ने पशुपति पारस को आगे किया. उनकी पार्टी में फूट डाला और वे मंत्रिमंडल का हिस्सा बन गए. अब जदयू चाहती है कि इनका वोट बैंक, जिसमें दलितों के साथ-साथ सवर्ण मतदाता का भी कुछ हिस्सा उनके पास है, उनके पास चला आए. यह एक बड़ी वजह है कि ललन सिंह को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंपी गई है.

विश्लेषक मानते हैं कि पशुपति पारस अकेले अपने बुते पार्टी को नहीं तोड़ सकते थे. जब तक कि उन्हें किसी की शह न मिली हो, तब तक ऐसा संभव नहीं हो पाता. पारस ने अपने पांच सांसदों को अपने पक्ष में किया और उसके बाद ही मोदी मंत्रिमंडल में शामिल हुए. इसी साल फरवरी में एलजेपी के कई नेता जदयू में शामिल हो गए.

माना जा रहा है कि देर सवेर पशुपति पारस और उनके गुट के सभी नेता भी जदयू का हिस्सा बन सकते हैं. यह निर्णय कब तक लिया जाएगा, यह समय की बात है. इस पूरे प्रकरण में ललन सिंह की निर्णायक भूमिका रही है.

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जेडीयू कार्यकारिणी की बैठक

इससे पहले लोजपा के एकमात्र विधायक को जदयू में लेकर आने का श्रेय भी ललन सिंह को ही दिया जाता है.

ललन सिंह को आगे करने के पीछे लालू फैक्टर भी है. लालू अपनी सजा पूरी करने के बाद जब से राजनीति में सक्रिय हुए हैं, वह दोबारा से सत्ता में आने का प्रयास कर रहे हैं. ललन सिंह और लालू यादव की बिल्कुल ही नहीं पटती है. चारा घोटाले वाले मामले में ललन सिंह ने लालू के खिलाफ बड़ी भूमिका निभाई है. नीतीश चाहते हैं कि लालू पर दबाव बना रहे. ललन सिंह को लालू परिवार पसंद नहीं करता है.

एक बार तो राबड़ी देवी ने ललन सिंह और नीतीश कुमार को लेकर अमर्यादित टिप्पणी भी कर दी थी.

1994 में ललन सिंह का झगड़ा लालू यादव से दिल्ली के बिहार निवास में हुआ था. इसके बाद पार्टी टूट गई थी. तभी समता पार्टी का गठन हुआ था.

ललन सिंह और नीतीश लंबे समय से एक साथ राजनीति करते रहे हैं. समता पार्टी में भी उन्हें कोषाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई थी. जनता दल यू के बनने पर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. 2004 में वह बेगुसराय से सांसद बने. 2014 में चुनाव हारने के बावजूद उन्हें मंत्री बनाया गया.

ललन सिंह के मंत्री बनाए जाने की वजह से जेडीयू में बगावत हो गई थी और 12 विधायकों के साथ ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू भाजपा में चले गए. फरवरी 2015 में उन्हें मंत्री पद से हटा दिया गया. 2015 में दोबारा महागठबंधन सरकार बनने के बाद उन्हें नीतीश कैबिनेट में जगह मिली थी.

2010 के बिहार चुनाव से पहले ललन सिंह ने पार्टी छोड़ दी थी. तब इन्होंने नीतीश कुमार के पेट में कहां-कहां दांत है वाला चर्चित बयान दिया था.

कहने वाले तो ये भी कह रहे हैं कि मंत्री न बनाए जाने के बाद ललन सिंह की नाराजगी उन्हें किसी भी कदम उठाने को मजबूर कर सकती थी. लिहाजा समय रहते नीतीश कुमार ने चीजों को संभाला.

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कार्यकारिणी की बैठक के बाद फोटो खिंचाते जेडीयू नेता

जातीय समीकरण

राज्य में 26 फीसदी ओबीसी और 26 फीसदी ईबीसी का वोट बैंक है. ओबीसी में बड़ा हिस्सा यादवों का है जो 14 फीसदी के करीब है. यादवों को आरजेडी का परंपरागत वोट बैंक समझा जाता है. इसके अलावा ओबीसी में 8 फीसदी कुशवाहा और 4 फीसदी कुर्मी वोट बैंक है. इन दोनों पर नीतीश कुमार का प्रभाव है. उपेंद्र कुशवाहा आठ फीसदी कुशवाहा समाज पर प्रभाव का दावा करते हैं. 16 फीसदी वोट बैंक मुस्लिमों का है. मौजूदा सियासी समीकरण में इस वोट बैंक पर आरजेडी का प्रभाव दिखता है लेकिन जेडीयू भी उसे अपने पाले में करने की कोशिशों में जुटी हुई है.

बिहार में अति पिछड़ी जाति के मतदाताओं का हिस्सा 26 फीसदी के करीब है. इसके अंतर्गत कहार, सुनार, लोहार, बढ़ई, मल्लाह, केवट, कुम्हार, ततवा, माली, धानुक और नोनी आदि जातियां आती हैं. दलितों का वोट प्रतिशत 16 फीसदी के करीब है. इनमें पांच फीसदी के करीब पासवान हैं बाकी महादलित जातियां ( पासी, रविदास, धोबी, चमार, राजवंशी, मुसहर, डोम आदि ) आती हैं, जिनका करीब 11 फीसदी वोट बैंक है. 15 फीसदी वोट बैंक उच्च जातियों (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ) का है.

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जेडीयू कार्यकारिणी की बैठक

इस समय बिहार विधानसभा में 21 भूमिहार विधायक हैं. 2015 में 17 विधायक थे. सबसे अधिक भूमिहार विधायक भाजपा से हैं. भाजपा के आठ, जदयू से पांच हैं. हम पार्टी से एक विधायक भूमिहार जाति से हैं. कांग्रेस से चार और राजद-सीपआई से एक-एक विधायक भूमिहार जाति से आते हैं.

बिहार विधानसभा सभा में कुल 243 सीटें हैं. 2020 के चुनाव में 64 विधायक अगड़ी जाति से बने. 28 राजपूत, 21 भूमिहार, 12 ब्राह्मण, 52 यादव, नौ कुर्मी,16 कुशवाहा समुदाय, वैश्य 24 और 19 मुस्लिम समाज से आते हैं.

हैदराबाद : आरसीपी सिंह के केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद ही कयास लगाए जा रहे थे जनता दल यू जल्द ही अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनेगा. आखिरकार पार्टी ने ललन सिंह को अपना नया अध्यक्ष चुन लिया. वैसे, आरसीपी सिंह ने मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद कहा था कि वो अपना काम जानते हैं और पार्टी का भी काम करते रहेंगे.

अब सवाल ये उठता है कि जब आरसीपी सिंह ने खुद कहा था कि वह पार्टी का काम देखते रहेंगे, फिर नीतीश कुमार ने उन्हें अध्यक्ष बने रहने पर अपनी सहमति क्यों नहीं दी ? क्या नीतीश और आरसीपी सिंह के बीच मनमुनटाव है ? क्या नीतीश नहीं चाहते थे कि आरसीपी सिंह मोदी कैबिनट में शामिल न हों, क्योंकि जितनी संख्या में उन्होंने मंत्री पद मांगा था, उनकी मांगें पूरी नहीं हुई. नीतीश ने आरसीपी सिंह के मंत्री बनने पर ट्वीटर के जरिए कोई बधाई भी नहीं दी थी, जबकि आजकल वह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहते हैं.

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार नीतीश समर्थक नेताओं का कहना है कि मोदी मंत्रिमंडल में शामिल होने का निर्णय खुद आरसीपी सिंह का था. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने पहले ही आरसीपी सिंह को मंत्री बनने पर राजी कर लिया था. शायद आपको लग रहा होगा कि ललन सिंह का अध्यक्ष बनने से इस मुद्दे का कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. दोनों ही मामले एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.

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जेडीय यू के नेता और कार्यकर्ता

दरअसल, नीतीश कुमार चाहते हैं कि उनका सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला कायम रहे. क्योंकि वह खुद कुर्मी जाति से आते हैं. आरसीपी सिंह भी उसी जाति से हैं. लिहाजा, अगर इसी जाति से किसी को अध्यक्ष बना देते, तो बिहार में यह संदेश जाता कि नीतीश की पार्टी किसी एक जाति की पार्टी है. वह दूसरी जाति के नेताओं को उतना अधिक वैल्यू नहीं देते हैं. नीतीश अपनी छवि को लेकर काफी सजग रहते है. लिहाजा, यह निर्णय उनकी सोची-समझी रणनीति का एक हिस्सा है.

राजनीतिक जगत में यह चर्चा जोरों पर थी कि नीतीश कुमार उपेंद्र कुशवाहा को अध्यक्ष बना सकते हैं. उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय दल की जिम्मेदारी भी दी गई. इसके बाद यह मान लिया गया था कि कुशवाहा ही अगले अध्यक्ष होंगे. कुशवाहा के हावभाव भी ऐसे संकेत दे रहे थे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वह कोइरी जाति से आते हैं. कुर्मी-कोइरी को 'लव-कुश' जैसे युग्मों से संबोधित किया जाता है.

ललन सिंह भूमिहार जाति से आते हैं. भूमिहार सवर्ण समुदाय में आता है. नीतीश और ललन सिंह की जोड़ी भी काफी पुरानी है. ललन सिंह किसी भी तरीके से नीतीश को चुनौती नहीं दे सकते हैं. पार्टी के गठन के 18 साल के इतिहास में पहली बार है कि किसी फॉरवर्ड को नीतीश ने पार्टी अध्यक्ष बनाया है. ललन सिंह प्रबंधन के काम में माहिर समझे जाते हैं.

बिहार की राजनीति को करीब से जानने वाले बताते हैं कि जदयू यानी नीतीश कुमार चाहते हैं कि भाजपा का उन पर दबाव न रहे. इसलिए भाजपा के वोट बैंक में जब तक सेंधमारी नहीं की जाएगी, तब तक जदयू अपने ऊपर से दबाव नहीं हटा सकती है. भूमिहार मतदाता भाजपा का मुख्य वोट बैंक माना जाता रहा है.

दूसरी बात यह है कि नीतीश दलित नेता राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी वोट के वोट बैंक को भी हासिल करना चाहती है. क्योंकि चिराग पासवान खुले तौर पर नीतीश का विरोध कर रहे हैं. इसलिए ऐसा कहा जाता है कि उनके इशारे पर ही ललन सिंह ने पशुपति पारस को आगे किया. उनकी पार्टी में फूट डाला और वे मंत्रिमंडल का हिस्सा बन गए. अब जदयू चाहती है कि इनका वोट बैंक, जिसमें दलितों के साथ-साथ सवर्ण मतदाता का भी कुछ हिस्सा उनके पास है, उनके पास चला आए. यह एक बड़ी वजह है कि ललन सिंह को पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेवारी सौंपी गई है.

विश्लेषक मानते हैं कि पशुपति पारस अकेले अपने बुते पार्टी को नहीं तोड़ सकते थे. जब तक कि उन्हें किसी की शह न मिली हो, तब तक ऐसा संभव नहीं हो पाता. पारस ने अपने पांच सांसदों को अपने पक्ष में किया और उसके बाद ही मोदी मंत्रिमंडल में शामिल हुए. इसी साल फरवरी में एलजेपी के कई नेता जदयू में शामिल हो गए.

माना जा रहा है कि देर सवेर पशुपति पारस और उनके गुट के सभी नेता भी जदयू का हिस्सा बन सकते हैं. यह निर्णय कब तक लिया जाएगा, यह समय की बात है. इस पूरे प्रकरण में ललन सिंह की निर्णायक भूमिका रही है.

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जेडीयू कार्यकारिणी की बैठक

इससे पहले लोजपा के एकमात्र विधायक को जदयू में लेकर आने का श्रेय भी ललन सिंह को ही दिया जाता है.

ललन सिंह को आगे करने के पीछे लालू फैक्टर भी है. लालू अपनी सजा पूरी करने के बाद जब से राजनीति में सक्रिय हुए हैं, वह दोबारा से सत्ता में आने का प्रयास कर रहे हैं. ललन सिंह और लालू यादव की बिल्कुल ही नहीं पटती है. चारा घोटाले वाले मामले में ललन सिंह ने लालू के खिलाफ बड़ी भूमिका निभाई है. नीतीश चाहते हैं कि लालू पर दबाव बना रहे. ललन सिंह को लालू परिवार पसंद नहीं करता है.

एक बार तो राबड़ी देवी ने ललन सिंह और नीतीश कुमार को लेकर अमर्यादित टिप्पणी भी कर दी थी.

1994 में ललन सिंह का झगड़ा लालू यादव से दिल्ली के बिहार निवास में हुआ था. इसके बाद पार्टी टूट गई थी. तभी समता पार्टी का गठन हुआ था.

ललन सिंह और नीतीश लंबे समय से एक साथ राजनीति करते रहे हैं. समता पार्टी में भी उन्हें कोषाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई थी. जनता दल यू के बनने पर उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. 2004 में वह बेगुसराय से सांसद बने. 2014 में चुनाव हारने के बावजूद उन्हें मंत्री बनाया गया.

ललन सिंह के मंत्री बनाए जाने की वजह से जेडीयू में बगावत हो गई थी और 12 विधायकों के साथ ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू भाजपा में चले गए. फरवरी 2015 में उन्हें मंत्री पद से हटा दिया गया. 2015 में दोबारा महागठबंधन सरकार बनने के बाद उन्हें नीतीश कैबिनेट में जगह मिली थी.

2010 के बिहार चुनाव से पहले ललन सिंह ने पार्टी छोड़ दी थी. तब इन्होंने नीतीश कुमार के पेट में कहां-कहां दांत है वाला चर्चित बयान दिया था.

कहने वाले तो ये भी कह रहे हैं कि मंत्री न बनाए जाने के बाद ललन सिंह की नाराजगी उन्हें किसी भी कदम उठाने को मजबूर कर सकती थी. लिहाजा समय रहते नीतीश कुमार ने चीजों को संभाला.

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कार्यकारिणी की बैठक के बाद फोटो खिंचाते जेडीयू नेता

जातीय समीकरण

राज्य में 26 फीसदी ओबीसी और 26 फीसदी ईबीसी का वोट बैंक है. ओबीसी में बड़ा हिस्सा यादवों का है जो 14 फीसदी के करीब है. यादवों को आरजेडी का परंपरागत वोट बैंक समझा जाता है. इसके अलावा ओबीसी में 8 फीसदी कुशवाहा और 4 फीसदी कुर्मी वोट बैंक है. इन दोनों पर नीतीश कुमार का प्रभाव है. उपेंद्र कुशवाहा आठ फीसदी कुशवाहा समाज पर प्रभाव का दावा करते हैं. 16 फीसदी वोट बैंक मुस्लिमों का है. मौजूदा सियासी समीकरण में इस वोट बैंक पर आरजेडी का प्रभाव दिखता है लेकिन जेडीयू भी उसे अपने पाले में करने की कोशिशों में जुटी हुई है.

बिहार में अति पिछड़ी जाति के मतदाताओं का हिस्सा 26 फीसदी के करीब है. इसके अंतर्गत कहार, सुनार, लोहार, बढ़ई, मल्लाह, केवट, कुम्हार, ततवा, माली, धानुक और नोनी आदि जातियां आती हैं. दलितों का वोट प्रतिशत 16 फीसदी के करीब है. इनमें पांच फीसदी के करीब पासवान हैं बाकी महादलित जातियां ( पासी, रविदास, धोबी, चमार, राजवंशी, मुसहर, डोम आदि ) आती हैं, जिनका करीब 11 फीसदी वोट बैंक है. 15 फीसदी वोट बैंक उच्च जातियों (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ) का है.

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जेडीयू कार्यकारिणी की बैठक

इस समय बिहार विधानसभा में 21 भूमिहार विधायक हैं. 2015 में 17 विधायक थे. सबसे अधिक भूमिहार विधायक भाजपा से हैं. भाजपा के आठ, जदयू से पांच हैं. हम पार्टी से एक विधायक भूमिहार जाति से हैं. कांग्रेस से चार और राजद-सीपआई से एक-एक विधायक भूमिहार जाति से आते हैं.

बिहार विधानसभा सभा में कुल 243 सीटें हैं. 2020 के चुनाव में 64 विधायक अगड़ी जाति से बने. 28 राजपूत, 21 भूमिहार, 12 ब्राह्मण, 52 यादव, नौ कुर्मी,16 कुशवाहा समुदाय, वैश्य 24 और 19 मुस्लिम समाज से आते हैं.

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