कोलकाता : 11 फरवरी को कथित रूप से पुलिस की पिटाई के बाद लगी चोटों की वजह से डीवाईएफआई कार्यकर्ता मोइनुल इस्लाम की सोमवार को मौत का मामला वैसा ही है जैसा 2013 में 22 वर्षीय छात्र और एसएफआई कार्यकर्ता सुदीप्तो गुप्ता के साथ हुआ था. दोनों मौतें दुर्भाग्यपूर्ण हैं. इस बार मोइनुल की मौत के राजनीतिक निहितार्थ गुप्ता की मौत से लगभग आठ साल पहले की तुलना में अधिक गहराई से प्रतीत होते हैं.
गिरफ्तारी के बाद बस से जेल ले जाने के दौरान घायल होने के दौरान गुप्ता की मृत्यु हुई थी. पुलिस ने तब दावा किया था कि उसने बस की खिड़की से अपना सिर बाहर निकाल रखा था. इसी दौरान लैंप-पोस्ट से सिर टकराने पर उसे चोट लगी और उसकी मौत हुई. हालांकि एसएफआई का दावा था कि उसे बस में पुलिस ने पीटा था, लेकिन इन दावों के समर्थन में कोई सबूत नहीं थे.
हालांकि मोइनुल की मौत के मामले में अब हालात पहले जैसे नहीं हैं. सोशल मीडिया में कई वीडियो क्लिपिंग और तस्वीरें आई हैं, जो स्पष्ट रूप से कोलकाता की सड़कों पर घायल मोइनुल को दिखाती हैं. इसी वजह ने प्रशासन और पुलिस को बैकफुट पर ला खड़ा कर दिया है.
अप्रैल 2013 में जब गुप्ता की मौत हुई ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की लोकप्रियता चरम पर थी. 2014 में वामपंथी पार्टियां गुप्ता की मौत पर किसी भी राजनीतिक लाभ को भुनाने में असमर्थ थीं. गुप्ता की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद वामपंथियों के लिए स्थिति और खराब हो गई.
अब समय अलग है. तृणमूल अब एक दशक पहले अपने शासन के अंतिम दिनों के दौरान वाम मोर्चे की तरह एक समान सत्ता-विरोधी और राजनीतिक का सामना कर रही है. भ्रष्टाचार, वित्तीय घोटाले, असामाजिक गतिविधियों में वृद्धि और बढ़ती बेरोजगारी के मुद्दों पर तृणमूल कांग्रेस घिरी है. 11 फरवरी के डीवाईएफआई के आंदोलन ने सार्वजनिक शिकायत के कई ऐसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया.
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मोइनुल की मौत का कारण आंदोलन का हिस्सा होना है जिससे जनता का गुस्सा सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति बढ़ गया है. अब केवल समय बताएगा कि मोइनुल की दुर्भाग्यपूर्ण मौत का कांग्रेस-वाम मोर्चा गठबंधन के वोट बैंक पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा या नहीं, लेकिन मौत ने तृणमूल कांग्रेस के लिए वास्तव में एक गहरा राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है.