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नगा, मैतेई और बागी मणिपुर में तय करेंगे बीजेपी का भविष्य

मणिपुर में राज्य विधानसभा चुनाव 2022 बीजेपी के लिए भी खास है. मणिपुर में जीत के बाद ही उसे पूर्वोत्तर के 4 अन्य पहाड़ी प्रदेशों में सफलता की राह मिलेगी. मगर उसके लिए अफ्स्पा (AFSPA), नगा, मैतेई के बीच संतुलन साधने की चुनौती बनी है. इसके अलावा बागियों से निपटना भी आसान नहीं होगा.

manipur assembly election
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Published : Feb 12, 2022, 7:12 PM IST

नई दिल्ली : पांच राज्यों में अब विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग की तैयारियां चल रही हैं. पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में भी 28 फरवरी और 5 मार्च को दो चरणों में मतदान होगा. इस बार मणिपुर के बाहर के लोग भी इस राज्य के चुनावी समीकरणों पर नजर गड़ाए बैठे हैं. सभी राजनीतिक विश्लेषक यह तौल रहे हैं कि मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी की वापसी होगी या नहीं. इसके अलावा बीजेपी के रणनीतिकार में केंद्र की एक्ट ईस्ट पॉलिसी के नतीजों को लेकर दिलचस्पी बनी हुई है.

भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने एक्ट ईस्ट पॉलिसी बनाई है, जिसका मकसद साउथ ईस्ट एशियाई देशों के साथ पूर्वोत्तर के सांस्कृतिक और जातीय संबंधों का लाभ उठाना है. इस पॉलिसी के तहत नॉर्थ-ईस्ट के जरिए म्यांमार और जापान तक जुड़ने की तैयारी की गई है. इसके अलावा मणिपुर में विकास का एजेंडे के अलावा दो महत्वपूर्ण मुद्दों का भविष्य भी इस चुनाव परिणाम में तलाशे जा रहे हैं. उनमें से एक है नगा शांति वार्ता और दूसरा है आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (AFSPA). मणिपुर के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के लिए ये दोनों मुद्दे खासा मायने रखते हैं, इसलिए राज्य में सत्ता में आने वाली पार्टी को इसका ख्याल रखना होगा.

नॉर्थ-ईस्ट पर गहरी नजर रखने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर संजय सिंह भी मानते हैं कि इस बार मणिपुर विधानसभा चुनाव आसान नहीं है. इस राज्य में सरकार वही बनाएगा, जो मैतेई समुदाय की भावनाओं का सम्मान करेगा. मैतेई समुदाय के लोग नगा शांति प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं. उनका कहना है कि इस बार एक ओर बीजेपी पर सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच उलझे नगा मुद्दे पर बातचीत को ठंडे बस्ते में डालने का दबाव होगा, दूसरी ओर उसे नगा लोगों से वार्ता जारी रखनी भी होगी. अगर तालमेल नहीं बना तो नगा प्रभुत्व वाला NSCN (IM) मणिपुर के पहाड़ी इलाकों और नगालैंड में विद्रोह को हवा दे सकता है.

आंकड़ों के मुताबिक, राज्य की लगभग 63 प्रतिशत आबादी वाले हिंदू मैतेई ज्यादातर इंफाल घाटी में रहते हैं. यहां की 35 प्रतिशत ट्राइबल आबादी पहाड़ियों में बसी है. इन ट्राइबल्स में लगभग 20 प्रतिशत नगा हैं जबकि लगभग 15 प्रतिशत कुकी-चिन वंश के हैं. बाकी 2 फीसदी आबादी में बंगाली, नेपाली और अन्य शामिल हैं. मणिपुर विधानसभा में सीटों की कुल संख्या 60 है. राजनीतिक तौर से देखें तो इनमें से 40 मैतेई बहुल घाटी में हैं, जबकि शेष 20 सीटों पर नागा और कुकी जनजाति के वोटर जीत-हार तय करते हैं.

भाजपा के लिए यह विधानसभा चुनाव जीतना चुनौती बन गई है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में वोटिंग हो चुकी है, जहां किसान आंदोलन का असर चुनाव पर होने की उम्मीद है. अगर पूर्वोत्तर में बीजेपी को बने रहना है तो मणिपुर में जीत हासिल करनी होगी, क्योंकि उसकी जीत का पहिया पूर्वी भारत में रुक गया है. ममता बनर्जी ने बंगाल और नवीन पटनायक के बीजू जनता दल ने ओडिशा में भारतीय जनता पार्टी को रोक रखा है. झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा ने बीजेपी को सत्ता से बाहर कर रखा है. तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भी भाजपा को नुकसान हुआ है.

राजनीतिक एक्सपर्ट मानते हैं कि अगर बीजेपी मणिपुर में हार जाती है तो इसका असर ईसाई बहुल नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में दिखेगा. इन राज्यों में बीजेपी गठबंधन के सहारे सत्ता हासिल करना चाहती है. पूर्वोत्तर भारत में असम, मणिपुर, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश ऐसे चार राज्य हैं, जहां भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने की उम्मीद कर सकती है.

अब मणिपुर में भाजपा को कई चुनौतियों से रूबरू होना पड़ सकता है. इसकी कई वजहें हैं. राज्य में कांग्रेस मजबूत है और उसके संगठन का ढांचा बरकरार है. 2017 के राज्य चुनावों में भी भाजपा को 21 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस ने 28 सीटों पर जीत हासिल की थी. नागालैंड के सीएम नेफियू रियो के समर्थन वाली नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ), मेघालय के सीएम कोनराड संगमा के नेतृत्व वाली नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और जनता दल (यूनाइटेड) भी चुनाव मैदान में मजबूती के साथ ताल ठोंक रही है. प्रोफेसर संजय सिंह बताते हैं कि नगा पीपुल्स फ्रंट आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (AFSPA) का चुनावी प्रतिक्रिया से वाकिफ है, इसलिए वह चुनाव से पहले ही गठबंधन से अलग हो गई.

बीजेपी की एक और दिक्कत यह है कि चुनाव से पहले उसके दावेदारों में होड़ मच गई और वह नाराज होकर पार्टी से अलग हो गए. इस बार विधानसभा चुनाव में जनता दल (यूनाइटेड) ने 42 कैंडिडेट उतारे हैं. दिलचस्प यह है कि इनमें से 10 उम्मीदवार भाजपा के बागी हैं.

पढ़ें : मणिपुर में कांग्रेस के गठबंधन से बीजेपी का होगा तगड़ा मुकाबला

नई दिल्ली : पांच राज्यों में अब विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग की तैयारियां चल रही हैं. पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में भी 28 फरवरी और 5 मार्च को दो चरणों में मतदान होगा. इस बार मणिपुर के बाहर के लोग भी इस राज्य के चुनावी समीकरणों पर नजर गड़ाए बैठे हैं. सभी राजनीतिक विश्लेषक यह तौल रहे हैं कि मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी की वापसी होगी या नहीं. इसके अलावा बीजेपी के रणनीतिकार में केंद्र की एक्ट ईस्ट पॉलिसी के नतीजों को लेकर दिलचस्पी बनी हुई है.

भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने एक्ट ईस्ट पॉलिसी बनाई है, जिसका मकसद साउथ ईस्ट एशियाई देशों के साथ पूर्वोत्तर के सांस्कृतिक और जातीय संबंधों का लाभ उठाना है. इस पॉलिसी के तहत नॉर्थ-ईस्ट के जरिए म्यांमार और जापान तक जुड़ने की तैयारी की गई है. इसके अलावा मणिपुर में विकास का एजेंडे के अलावा दो महत्वपूर्ण मुद्दों का भविष्य भी इस चुनाव परिणाम में तलाशे जा रहे हैं. उनमें से एक है नगा शांति वार्ता और दूसरा है आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (AFSPA). मणिपुर के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के लिए ये दोनों मुद्दे खासा मायने रखते हैं, इसलिए राज्य में सत्ता में आने वाली पार्टी को इसका ख्याल रखना होगा.

नॉर्थ-ईस्ट पर गहरी नजर रखने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर संजय सिंह भी मानते हैं कि इस बार मणिपुर विधानसभा चुनाव आसान नहीं है. इस राज्य में सरकार वही बनाएगा, जो मैतेई समुदाय की भावनाओं का सम्मान करेगा. मैतेई समुदाय के लोग नगा शांति प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं. उनका कहना है कि इस बार एक ओर बीजेपी पर सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच उलझे नगा मुद्दे पर बातचीत को ठंडे बस्ते में डालने का दबाव होगा, दूसरी ओर उसे नगा लोगों से वार्ता जारी रखनी भी होगी. अगर तालमेल नहीं बना तो नगा प्रभुत्व वाला NSCN (IM) मणिपुर के पहाड़ी इलाकों और नगालैंड में विद्रोह को हवा दे सकता है.

आंकड़ों के मुताबिक, राज्य की लगभग 63 प्रतिशत आबादी वाले हिंदू मैतेई ज्यादातर इंफाल घाटी में रहते हैं. यहां की 35 प्रतिशत ट्राइबल आबादी पहाड़ियों में बसी है. इन ट्राइबल्स में लगभग 20 प्रतिशत नगा हैं जबकि लगभग 15 प्रतिशत कुकी-चिन वंश के हैं. बाकी 2 फीसदी आबादी में बंगाली, नेपाली और अन्य शामिल हैं. मणिपुर विधानसभा में सीटों की कुल संख्या 60 है. राजनीतिक तौर से देखें तो इनमें से 40 मैतेई बहुल घाटी में हैं, जबकि शेष 20 सीटों पर नागा और कुकी जनजाति के वोटर जीत-हार तय करते हैं.

भाजपा के लिए यह विधानसभा चुनाव जीतना चुनौती बन गई है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में वोटिंग हो चुकी है, जहां किसान आंदोलन का असर चुनाव पर होने की उम्मीद है. अगर पूर्वोत्तर में बीजेपी को बने रहना है तो मणिपुर में जीत हासिल करनी होगी, क्योंकि उसकी जीत का पहिया पूर्वी भारत में रुक गया है. ममता बनर्जी ने बंगाल और नवीन पटनायक के बीजू जनता दल ने ओडिशा में भारतीय जनता पार्टी को रोक रखा है. झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा ने बीजेपी को सत्ता से बाहर कर रखा है. तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भी भाजपा को नुकसान हुआ है.

राजनीतिक एक्सपर्ट मानते हैं कि अगर बीजेपी मणिपुर में हार जाती है तो इसका असर ईसाई बहुल नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में दिखेगा. इन राज्यों में बीजेपी गठबंधन के सहारे सत्ता हासिल करना चाहती है. पूर्वोत्तर भारत में असम, मणिपुर, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश ऐसे चार राज्य हैं, जहां भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने की उम्मीद कर सकती है.

अब मणिपुर में भाजपा को कई चुनौतियों से रूबरू होना पड़ सकता है. इसकी कई वजहें हैं. राज्य में कांग्रेस मजबूत है और उसके संगठन का ढांचा बरकरार है. 2017 के राज्य चुनावों में भी भाजपा को 21 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस ने 28 सीटों पर जीत हासिल की थी. नागालैंड के सीएम नेफियू रियो के समर्थन वाली नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ), मेघालय के सीएम कोनराड संगमा के नेतृत्व वाली नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और जनता दल (यूनाइटेड) भी चुनाव मैदान में मजबूती के साथ ताल ठोंक रही है. प्रोफेसर संजय सिंह बताते हैं कि नगा पीपुल्स फ्रंट आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (AFSPA) का चुनावी प्रतिक्रिया से वाकिफ है, इसलिए वह चुनाव से पहले ही गठबंधन से अलग हो गई.

बीजेपी की एक और दिक्कत यह है कि चुनाव से पहले उसके दावेदारों में होड़ मच गई और वह नाराज होकर पार्टी से अलग हो गए. इस बार विधानसभा चुनाव में जनता दल (यूनाइटेड) ने 42 कैंडिडेट उतारे हैं. दिलचस्प यह है कि इनमें से 10 उम्मीदवार भाजपा के बागी हैं.

पढ़ें : मणिपुर में कांग्रेस के गठबंधन से बीजेपी का होगा तगड़ा मुकाबला

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