रांचीः नेताजी सुभाष चंद्र बोस का छोटानागपुर यानी झारखंड की इस धरती से खासा लगाव रहा है. अपने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई बार उनका झारखंड आना हुआ. सन 1940 और 1941 के बीच में कई बार उनका झारखंड आना हुआ. इस दौरान वो रांची में रहे, खूंटी के रास्ते होते हुए वो रांची आए थे. इसके अलावा रांची से ही वो कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन में हिस्सा लेने के लिए पहुंचे थे. इसके बाद साल 1941 में आखिरी बार उन्हें धनबाद के गोमो रेलवे स्टेशन पर ही देखा गया था.
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झारखंड से नेताजी का गहरा नाता रहा है. वो कई बार झारखंड आए हैं और यहां से आजादी की लड़ाई को नई धार दी है. सन 1940 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन दिवसीय 53वां अधिवेशन में वो शामिल हुए. जमशेदपुर में नेताजी टाटा स्टील कंपनी की लेबर एसोशिएशन में 1928 से 1938 तक अध्यक्ष पद पर रहे और मजदूरों के हित में आवाज उठाई. इसके अलावा वो रांची के आयकट परिवार के साथ कुछ समय बिताया है. 18 जनवरी 1941 को सुभाष चंद्र बोस आखिरी बार देखे गए थे. झारखंड ही वो धरती है, जहां के धनबाद के गोमो रेलवे स्टेशन पर देखे गए थे जहां से वे कालका मेल पकड़कर पेशावर के लिए रवाना हुए थे. कहते हैं कि इसके बाद किसी ने भी नेताजी को नहीं देखा.
रांची का आयकट परिवार और नेताजीः 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस शामिल होने से पहले वह रांची के लालपुर स्थित फणींद्र नाथ आयकट के यहां रुके थे. नेताजी सुभाष चंद्र बोस फणींद्र नाथ पर बहुत भरोसा करते थे. तब फणींद्र आयकट ब्रिटिश सरकार में कांट्रेक्टर थे. यह जानते हुए कि अंग्रेज नेताजी को पसंद नहीं करते हैं, उन्होंने नेताजी को अपने यहां ठहराया था. इस पर अंग्रेजों ने उनसे कई सवाल किए थे. जिसके बाद उन्होंने अंग्रेजों की तरफ से मिलने वाली राय बहादुर की उपाधि भी लेने से इनकार कर दिया था.
नेताजी की याद में रखी है कुर्सीः 1940 में जब नेताजी उनके घर आए थे तब घर पर त्यौहार जैसा माहौल था. जिस रिलैक्सिंग चेयर पर बैठकर नेताजी चिंतन मनन करते थे, वह कुर्सी आज भी जस की तस रखी हुई है. फणींद्र नाथ आयकट के पोते विष्णु आयकट ने बताया कि उनके परिवार के लिए यह कुर्सी एक मंदिर की तरह है. जिसे अगरबत्ती दिखाई जाती है. जिस कुर्सी पर नेताजी बैठे हैं उस कुर्सी पर आगे कोई नहीं बैठा. इसलिए आज तक आयकट परिवार ने उस कुर्सी को सहेज कर रखा है.
रामगढ़ अधिवेशन में नेताजीः साल 1940 में मार्च के महीने में 18 से 20 की वो तारीख इतिहास में दर्ज हो गई. इस कालखंड में झारखंड की धरती भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 53वें अधिवेशन की गवाह बनी. जिसमें नेताजी, बापू समेत आला नेता के कदम इस धरती पर पड़े. इसी धरती से ऐतिहासिक 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' आंदोलन की नींव पड़ी. जिसने स्वतंत्रता के आंदोलन में एक मील का पत्थर साबित हुआ. इसके अलावा नेताजी ने गरम दल के माध्यम से कांग्रेस से हटकर समानांतर सभा कर आजादी के लिए नया मार्ग प्रशस्त किया.
अधिवेशन में नेताजी ने सीतारमैया को हराया थाः नेताजी सुभाष चंद्र बोस की यादों के उन लम्हों को रामगढ़ अपने इतिहास में समेटे हुए है. नेताजी की वो यादें लोगों के जेहन में आज भी ताजा है. रामगढ़ की धरती से ही स्वाधीनता संग्राम के लिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग का एलान किया गया था. रामगढ़ में साल 1940 में 18 से 20 मार्च तक कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ. जिसमें देश के सभी बड़े नेता भाग लेने आए थे. नेताजी सुभाष चंद्र बोस खूंटी होते हुए रांची आए और यहां लालपुर में फ्रीडम फाइटर फणींद्रनाथ आयकत के यहां रुके थे. रांची से रामगढ़ आकर वो कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में शामिल हुए, वो अध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे. कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में उन्होंने सीतारमैया को 203 मतों से हराकर जीत हासिल की थी.
नेताजी ने किया था समानांतर अधिवेशनः रामगढ़ की धरती से ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अलग राह भी पकड़ ली और उन्होंने समानांतर अधिवेशन किया. शहर में हरहरी नाला के किनारे नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, एमएन राय वादी और वामपंथी समूहों के साथ मिलकर वैकल्पिक रणनीति तैयार की थी. नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ रामगढ़ में समानांतर अधिवेश किया. उस वक्त पूरे नगर में एक विशाल शोभा यात्रा निकली थी.
जिसमें महंथ धनराज पुरी, कैप्टन शाहनवाज खां, कैप्टन लक्ष्मी बाई सहगल, शीलभद्र जैसे दिग्गज लोग शामिल हुए. नेताजी के साथ उनके निकट सलाहकार डॉ. यदु मुखर्जी समेत कई अन्य नेता भी शामिल हुए थे. नेताजी ने अपने सम्मेलन में कहा था कि यह साम्राज्यवादी युद्ध है और यही मौका है, जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ चौतरफा युद्ध छेड़कर आजादी हासिल कर ली जाए. उन्होंने कहा था कि हम अवसर का उपयोग करें और समय रहते काम करें. रामगढ़ में नेताजी की ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग लड़ने की घोषणा से प्रभावित लोग नेताजी के साथ जुड़ते चले गए.
नेताजी ने यहां पर बनाया गरम दलः नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस से अलग होकर कुछ प्रमुख नेताओं के साथ अपना अलग एक गरम दल बनाया. जिसमें उन्होंने संपूर्ण आजादी के लिए कोई समझौता नहीं का नारा बुलंद करते हुए 19 मार्च 1940 को स्वामी सहजानंद सरस्वती के आह्वान पर रामगढ़ में सम्मेलन किया था. रामगढ़ अधिवेशन के दो वर्ष बाद आठ अगस्त 1942 में पूरे देश में अगस्त क्रांति के तहत अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा पूरे देश में गूंजने लगा. झारखंड की धरती रामगढ़ से उठी भारत छोड़ो आंदोलन की चिंगारी ने पूरे भारत को एक सूत्र बांध दिया. जिसका नतीजा ये रहा कि अंग्रेजों को सन 1947 में भारत छोड़ना ही पड़ा.
टाटा स्टील कंपनी के लेबर यूनियन अध्यक्ष बने नेताजीः भारत के स्वतंत्रता सेनानी आजाद हिंद फौज की स्थापना करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस ना सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि मजदूरों के भी नेता थे. आजादी की लड़ाई से पहले जमशेदपुर में स्थापित टाटा स्टील कंपनी के लेबर यूनियन के तीसरे अध्यक्ष रहे हैं. नेताजी के अध्यक्षीय कार्यकाल में कंपनी और मजदूरों को लेकर लिए गए फैसले मील का पत्थर साबित हुआ.
औद्योगिक संबंधों नेताजी का जुड़ावः भारतीय औद्योगिक संबंधों के साथ नेताजी का पहला जुड़ाव वर्ष 1922 में हुआ. नेताजी के राजनीतिक गुरु देशबंधु चित्तरंजन दास ने उन्हें लाहौर ट्रेड यूनियन कांग्रेस से जोड़ा. साल 1923 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और बंगाल राज्य कांग्रेस के सचिव बने. चित्तरंजन दास द्वारा स्थापित समाचार पत्र फॉरवर्ड के संपादक भी थे. अपने गुरु सीआर दास की सलाह पर मजदूर वर्ग के प्रति उनकी रुचि को देखते हुए महात्मा गांधी ने उन्हें टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी में मजदूरों की समस्या को हल करने के लिए जमशेदपुर भेज दिया.
मजदूरों के हितकर नेताजीः सुभाष चंद्र बोस ने जमशेदपुर का दौरा किया. इस दौरान तीन महीने से कंपनी के कर्मचारी हड़ताल पर थे. 19 अगस्त 1928 को नेताजी बिष्टुपर टाउन मैदान में 10 हजार हड़ताली मजदूरों को संबोधित किया और उनसे अनुशासन बनाए रखने और बेहतरी के लिए संगठित होने का अनुरोध किया. 20 अगस्त 1928 को उन्हें जमशेदपुर लेबर एसोसिएशन में तीसरे अध्यक्ष के रूप में चुना गया. मजदूरों और प्रबंधन के साथ कई बैठकें करने के बाद 12 सितंबर 1928 को हड़ताल समाप्त हुई, जो 3 महीने 12 दिनों तक चली थी. यह कंपनी का आखिरी हड़ताल थी.
नेताजी के संघर्षों के परिणामस्वरूप अध्यक्ष एनबी सकलतवाला, महाप्रबंधक सीए अलेक्जेंडर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बीच ऐतिहासिक समझौता हुआ था. नेताजी ने टाटा स्टील में प्रमुख पदों पर अधिक से अधिक भारतीयों को नियुक्त की जाए. इसको लेकर प्रबंधन के साथ संघर्ष किया. ट्रेड यूनियन नेता के रूप में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी. टाटा स्टील के तत्कालीन अध्यक्ष एनबी सकलतवाला को नेताजी ने 12 नवंबर 1928 के अपने पत्र के माध्यम से कहा कि कंपनी के सामने सबसे महत्वपूर्ण समस्या भारत के वरिष्ठ अधिकारियों की कमी है. यदि आप टिस्को के भारतीयकरण की अपनी नीति के साथ आगे बढ़ते हैं तो आप अपने भारतीय कर्मचारियों और मजदूरों को अपनाने में सक्षम होंगे.
इस पत्र को टाटा ने गंभीरता से लिया और उस कंपनी में प्रमुख पदों पर अधिक भारतीयों की नियुक्ति की गई. नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रयास से टिस्को की महिला कर्मचारियों के लिए मातृत्व लाभ को लागू किया गया और टिस्को श्रमिकों के सभी वर्गों के लिए ग्रेच्युटी और पेंशन की शुरुआत की गई. उनके प्रयास से ही टाटा स्टील के कर्मचारियों के लिए बोनस की शुरुआत हुई. भारतीय श्रमिकों के लिए लाभ-साझाकरण बोनस केवल वर्ष 1965 में बोनस भुगतान अधिनियम 1965 की शुरुआत के साथ स्वतंत्र भारत में वैधानिक हो गया था.
8 अप्रैल 1929 को नेताजी टिनप्लेट वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष चुने गए. 1928 से 1937 तक नौ वर्षों के लिए टाटा यूनियन के अध्यक्ष थे. नेताजी ने न्यूनतम मजदूरी के लिए रॉयल श्रम आयोग की सिफारिशों का कड़ा विरोध किया था. पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए मजदूरी की समानता की पुरजोर वकालत करने वाले पहले नेताओं में थे. 4 जुलाई 1931 को ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अपने भाषण में नेताजी ने घोषणा की कि मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि भारत की मुक्ति, दुनिया के रूप में समाजवाद पर निर्भर करती है. लेकिन भारत को अपना पर्यावरण विकसित करने में सक्षम होना चाहिए.
नेताजी से जुड़ी यादें आज भी यूनियन के कार्यालय में रखा गया है. नेताजी द्वारा लिखे गए पत्र के अलावा कई ऐसे दस्तावेज है, जो सुरक्षित रखा गया है. सुभाष चंद्र बोस के कार्यकाल में कई अहम फैसले लिए गए, जो आज मजदूरों के लिए मील का पत्थर साबित हो रहा है.