हमारे हिन्दू धर्म में कार्तिक महीने में कई सारे त्योहार मनाए जाते हैं. दीपावली के दौरान पांच त्योहारों की एक सीरीज शुरू होती है और धनतेरस से लेकर भाई दूज तक चलता है. सर्वप्रथम मनाए जाने वाले त्योहार धनतेरस को लेकर हमारे धर्मशास्त्रों व पुराणों में कई कहानियां चर्चित हैं, जिन्हें लोग सुनाते और बताते हैं. इन्हीं कहानियों से इस त्योहार का कनेक्शन है. कुछ कहानियां इस त्योहार को मनाने की परंपरा से लेकर हैं, तो कुछ कहानियां इससे होने वाले लाभ से संबंधित हैं. ईटीवी भारत धनतेरस 2022 के अवसर पर आपको इन सभी कहानियों से परिचित कराने की पहल कर रहा है.
पहली कथा - समुद्र मंथन
हमारे पौराणिक ग्रंथों में मिलने वाली कथा के अनुसार, जब अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और दानवों के द्वारा समुद्र मंथन किया गया था, तो एक-एक करके उससे क्रमशः चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई थी. इसके बाद सबसे अंत में भगवान धनवंतरी जब पृथ्वी लोक में प्रकट हुए तो वह हाथ में कलश लेकर आए थे. हमारे धर्म में ऐसी पौराणिक मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय भगवान धनवंतरी अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे. धनवंतरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथों में अमृत से भरा कलश था. धनवंतरी ने कलश में भरे हुए अमृत से देवताओं को अजर अमर बना दिया. धनवंतरी के हाथ में अमृत भरे कलश को आरोग्य सुख अर्थात् स्वास्थ्य लाभ का प्रतीक माना जाता है. इसके प्राप्त होने के बाद हमारे जीवन से कष्ट खत्म हो जाते हैं. स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मन आज के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है. इसीलिए हर कोई आरोग्यता प्राप्त करने के लिए तरह तरह के उपाय करते हैं. भगवान धनवंतरी देवताओं के वैद्य कहे जाते हैं. इनकी भक्ति और पूजा से आरोग्य सुख अर्थात् स्वास्थ्य लाभ मिलता है.
दूसरी कथा- वामन रुप भगवान
धनतेरस से जुड़ी एक दूसरी कथा है कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन देवताओं के कार्य में बाधा डालने के कारण भगवान विष्णु ने असुरों के गुरू शुक्राचार्य की एक आंख फोड़ दी थी. कथा के अनुसार, देवताओं को राजा बलि के भय से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और राजा बलि के यज्ञ स्थल पर पहुंच गये थे. इस दौरान शुक्राचार्य ने वामन रूप में भी भगवान विष्णु को पहचान लिया और राजा बलि से आग्रह किया कि वामन कुछ भी मांगे उन्हें देने से इंकार कर देना. वामन साक्षात भगवान विष्णु हैं. वो देवताओं की सहायता के लिए तुमसे सब कुछ छीनने की भरपूर कोशिश करेंगे.
इसके बाद भी बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं मानी. वामन भगवान द्वारा दान में मांगी गयी तीन पग भूमि, दान करने के लिए कमण्डल से जल लेकर संकल्प लेने की कोशिश करने के लिए जैसे ही कमंडल से जल ढालना शुरू किया. राजा बलि को दान करने से रोकने के लिए शुक्राचार्य राजा बलि के कमण्डल में लघु रूप धारण करके प्रवेश कर गये. इससे कमण्डल से जल निकलने का मार्ग ही बंद हो गया. इसके बाद वामन रुप भगवान शुक्रचार्य की चाल को समझते देर न लगी. भगवान वामन ने अपने हाथ में रखे हुए कुशा को कमण्डल में ऐसे लगाया कि कमंडल में छिपे शुक्राचार्य की एक आंख फूट गयी. शुक्राचार्य छटपटाकर कमण्डल से बाहर निकल आये और जल लेकर बलि ने संकल्प करते हुए तीन पग भूमि दान कर दी.
इसके बाद भगवान वामन ने अपने एक पैर से संपूर्ण पृथ्वी को नाप लिया और दूसरे पग से अंतरिक्ष को और तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं होने पर बलि ने अपना सिर वामन भगवान के चरणों में रख दिया. बलि दान में अपना सब कुछ गंवा बैठा था. इस तरह बलि के भय से देवताओं को मुक्ति मिली और बलि ने जो धन-संपत्ति देवताओं से छीन ली थी उससे कई गुणा धन-संपत्ति देवताओं को मिल गयी. इस उपलक्ष्य में भी धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है.
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तीसरी कथा- लक्ष्मीजी और किसान
एक समय भगवान विष्णु मृत्युलोक में विचरण करने के लिए आ रहे थे, लक्ष्मी जी ने भी साथ चलने का आग्रह किया तो विष्णु जी बोले यदि मैं जो कहूंगा, वह बात वैसे ही मान लोगी तो ही वह मृत्युलोक में चलेंगे. इस बातो को लक्ष्मी जी ने स्वीकार कर लिया. इसके बाद भगवान विष्णु व लक्ष्मी जी भूमण्डल पर आ गए. कुछ देर बाद एक स्थान पर भगवान विष्णु लक्ष्मी से बोले कि जब तक मैं न आऊं, तुम यहीं पर रुकी रहो. इस दौरान मैं दक्षिण दिशा की ओर जा रहा हूं, तुम उधर देखना भी मत.
विष्णुजी के जाने पर लक्ष्मी को कौतुहल हुआ कि आख़िर दक्षिण दिशा में ऐसा क्या है, जो मुझे मना करके भगवान खुद चले गए. दक्षिण में ऐसा कोई रहस्य ज़रूर है. यह बात लक्ष्मी जी को बेचैन करने लगी. ज्योंही भगवान ने राह पकड़ी, त्योंही लक्ष्मी भी पीछे-पीछे चल पड़ीं. कुछ ही दूर पर सरसों का खेत दिखाई दिया. खेत में वह ख़ूब फूल लगे थे. सरसों के फूलों की शोभा से वह मुग्ध हो गईं और उसके फूल तोड़कर अपना शृंगार भी कर लिया. जब इसके आगे चलीं तो गन्ने (ईख) का खेत मिला. लक्ष्मी जी ने चार गन्ने लिए और रस चूसने लगीं. उसी क्षण विष्णु जी आए और यह देख लक्ष्मी जी पर नाराज़ हो गए और उनको श्राप दे दिया. भगवान ने कहा कि तुमने किसान के सामान की चोरी का अपराध किया है. अब तुम उस किसान की 12 वर्ष सेवा करनी होगी. यही तुम्हारी सजा होगी. ऐसा कहकर भगवान उन्हें छोड़कर क्षीरसागर चले गए. लक्ष्मी किसान के घर रहने लगीं. वह किसान अति दरिद्र था. लक्ष्मीजी ने किसान की पत्नी से कहा कि तुम स्नान कर पहले मेरे द्वारा बनाई देवी का पूजन करो और उसके बाद घर के काम व रसोई बनाना. ऐसा करने से तुम्हें मनवांछित फल मिलेगा. किसान की पत्नी ने लक्ष्मी के आदेशानुसार सारे कार्य किए. पूजा के प्रभाव और लक्ष्मी की कृपा से किसान का घर दूसरे ही दिन से अन्न, धन, रत्न, स्वर्ण आदि से भर गया और लक्ष्मी से जगमग होने लगा. लक्ष्मी ने किसान को धन-धान्य से पूर्ण कर दिया. किसान के 12 वर्ष बड़े आनन्द से कट गए. तत्पश्चात 12 वर्ष के बाद लक्ष्मीजी जाने के लिए तैयार हुईं. विष्णुजी, लक्ष्मीजी को लेने आए तो किसान ने उन्हें भेजने से इंकार कर दिया. लक्ष्मी भी बिना किसान की मर्जी वहां से जाने को तैयार न थीं. तब विष्णुजी ने एक चतुराई की. विष्णुजी जिस दिन लक्ष्मी को लेने आए थे, उस दिन वारुणी पर्व था. अत: किसान को वारुणी पर्व का महत्त्व समझाते हुए भगवान ने कहा कि तुम परिवार सहित गंगा में जाकर स्नान करो और मेरे द्वारा दी गयीं कौड़ियों को भी जल में छोड़ देना. जब तक तुम नहीं लौटोगे, तब तक मैं लक्ष्मी को नहीं लेकर जाउंगा.
लक्ष्मीजी ने किसान को चार कौड़ियां गंगा के देने को कहा. किसान ने वैसा ही किया. वह सपरिवार गंगा स्नान करने के लिए चला. जैसे ही उसने गंगा में कौड़ियां डालीं, वैसे ही चार हाथ गंगा में से निकले और वे कौड़ियां ले लीं. तब किसान को आश्चर्य हुआ कि वह तो कोई देवी है. तब किसान ने गंगाजी से पूछा कि हे माता ये चार भुजाएं किसकी हैं. इस पर गंगाजी बोलीं-ये चारों हाथ मेरे ही थे. फिर गंगा जी ने पूछा - तूने जो कौड़ियां भेंट की हैं, वह कहां से मिली हैं. इस पर किसान ने कहा- 'मेरे घर एक स्त्री आयी है, उसी ने दिया है. इस पर गंगाजी बोलीं- तुम्हारे घर जो स्त्री आकर रह रही हैं, वह कोई और नहीं साक्षात लक्ष्मी हैं और पुरुष विष्णु भगवान हैं. तुम लक्ष्मीजी को जाने मत देना, नहीं तो पुन: निर्धन हो जाआगे. यह सुन किसान घर लौट आया. वहां लक्ष्मी और विष्णु भगवान जाने को तैयार बैठे थे. किसान ने लक्ष्मीजी का आंचल पकड़ा और बोला- 'मां मैं अब तुम्हें जाने नहीं दूंगा. तब भगवान ने किसान से कहा- 'इन्हें कौन जाने देता है, परन्तु ये तो चंचला हैं, कहीं ठहरती ही नहीं, इनको बड़े-बड़े नहीं रोक सके. तुम भी नहीं रोक पाओगे.
इनको मेरे श्राप की वजह से 12 वर्ष तक तुम्हारे साथ रहना पड़ा. तुम्हारी 12 वर्ष सेवा का समय पूरा हो चुका है. इसके बाद किसान हठ करते हुए कहा कि वह किसी भी हालत में लक्ष्मीजी को जाने नहीं देगा. आप किसी और को यहां से ले जा सकते हैं. तब लक्ष्मीजी ने कहा- 'हे किसान ! तुम मुझे रोकना चाहते हो, तो जो मैं कहती हूं, वैसा ही करो. कल तेरस है. इन दिन मैं तुम्हारे लिए धनतेरस मनाऊंगी. तुम कल अपने घर को लीप-पोतकर स्वच्छ रखना. रात्रि में घी का दीपक जलाकर रखना और सांयकाल मेरा पूजन करना और एक तांबे के कलश में रुपया भरकर मेरे निमित्त रखना, मैं उस कलश में निवास करूंगी. किंतु पूजा के समय मैं तुम्हें दिखाई नहीं दूंगी. मैं इस दिन की पूजा करने से वर्ष भर तुम्हारे घर से नहीं जाऊंगी. मुझे रखना है तो इसी तरह प्रतिवर्ष मेरी पूजा करना.'
इतना कहकर माता लक्ष्मी दीपकों के प्रकाश के साथ दसों दिशाओं में फैल गयीं और भगवान देखते ही रह गयीं. अगले दिन किसान ने लक्ष्मीजी के कथानुसार पूजन किया. उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया. इसी भांति वह हर वर्ष तेरस के दिन लक्ष्मीजी की पूजा करने लगा. तब से ही धनतेरस के दिन पूजन का प्राविधान शुरू हो गया.
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चौथी कथा-यम की पूजा
हमारे शास्त्रों में धनतेरस की पूजा के बारे में कहा गया है कि जिन परिवारों में धनतेरस के दिन यमराज के निमित्त दीपदान किया जाता है, वहां अकाल मृत्यु नहीं होती. इस दिन यम के लिए आटे का दीपक बनाकर घर के मुख्य द्वार पर रखा जाता हैं. इस दीप को 'जम का दिया' अर्थात 'यमराज का दीपक' कहा जाता है. रात को घर की स्त्रियां दीपक में तेल डालकर नई रूई की बत्ती बनाकर, चार बत्तियां जलाती हैं. दीपक की बत्ती दक्षिण दिशा की ओर रखते हुए जलाती हैं. साथ ही जल, रोली, फूल, चावल, गुड़, नैवेद्य आदि सहित दीपक जलाकर स्त्रियां यम का पूजन करती हैं. चूंकि यह दीपक मृत्यु के नियन्त्रक देव यमराज के निमित्त जलाया जाता है, अत: दीप जलाते समय पूर्ण श्रद्धा से उन्हें नमन करना चाहिए. साथ ही साथ यह भी प्रार्थना करनी चाहिए कि हे यमदेव आपकी हमारे पूरे परिवार पर दया दृष्टि बनी रहे और हमारे घर परिवार में किसी की अकाल मृत्यु न हो.
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