रांची : सरना आदिवासियों के लिए 2021 के जनगणना प्रपत्र में अलग सरना धर्म कोड के प्रस्ताव को झारखंड विधानसभा में 11 नवंबर को पारित किया जा चुका है. हालांकि आदिवासियों की ये मांग पूरी होने की राह अब भी आसान नहीं है.
बड़ा सवाल है कि आखिर आदिवासी सरना धर्म कोड क्यों चाहते हैं? सरना धर्म कोड से आदिवासियों को ऐसा क्या फायदा होने वाला है, जिसके लिए वे आंदोलन करते रहे हैं? क्या इसका धर्मांतरण से कोई कनेक्शन है? ऐसे ही कई सवालों का जवाब जानने के लिए ईटीवी भारत ने बात की सरना धर्म के गुरु बंधन तिग्गा और आदिवासी मामलों के जानकार प्रोफेसर करमा उरांव से.
सवालः सरना का अर्थ क्या है?
बंधन तिग्गा: मैंने सुना था कि 1955 में पंडित रघुनाथ मुरमू, जो संथाली थे और बोधराजजी, इसके साथ हो और मुंडा ये सभी लोगों ने सरना शब्द को स्वीकार किया है. उरांव भाषा में सरना धर्म स्थल को चाला टोंग या चाला अड्डा कहते हैं. हमारी मान्यता है कि सृष्टि चक्र ही सरना है. हम लोग प्रकृति की उपासना करते हैं. उरांव जनजाति में सारना का मतलब होता है महसूस करना. निराकार भगवान को हम आंख से नहीं देख सकते हैं, उसे मन की आंखों से देखा जा सकता है. सरहुल में धरती और सूर्य की शादी मनाते हैं, हम लोग भगवान धर्मेश सिंगबोंगा को मन की आंखों से महसूस कर सकते हैं. इसी सारना से सरना शब्द बना है.
सवालः सरना धर्म क्या है?
प्रो. करमा उरांव: हम हिंदुओं के करीब दिखते हैं लेकिन हिंदू हैं नहीं. हम प्रकृति पूजक हैं, अलग संस्कृति के लोग हैं. बहुत दिनों से साथ रहने के कारण कई चीजें जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक तत्व मिश्रित हो गए हैं. आदिवासियों के पूजा पाठ की जगह को सरना कहते हैं. अपना हर शुभ काम आदिवासी सरना स्थल पर पूजा के साथ करते हैं. आदिवासी समुदाय में प्रकृति की पूजा की जाती है. हालांकि इनके ज्यादातर संस्कार और परंपराएं सनातन हिंदू धर्म की तरह हैं लेकिन ये मूर्ति पूजा में यकीन नहीं रखते हैं. ये सूर्य, पेड़-पौधे और पहाड़ों की पूजा करते हैं. सफेद और लाल रंग का झंडा इनका पवित्र प्रतीक है. इसे सरना झंडा कहा जाता है. संताल, उरांव, हो, मुंडा और बेदिया सहित कई आदिवासी सरना धर्म को सबसे पुराना आदि धर्म मानते हैं. सरना धर्म में पूजा कराने वालों को पाहन कहते हैं. इसी तरह परहा राजा को समाज के शासन व्यवस्था की जिम्मेदारी होती है.
सवालः सरना धर्म से आदिवासियों को क्या फायदा होगा?
प्रो. करमा उरांव: अलग सरना धर्म से पूरे देश में आदिवासियों की पहचान बनेगी. देश में करीब 17 करोड़ आदिवासी हैं. इनकी धार्मिक आस्था की पहचान बनेगी. सांस्कृतिक विशेषता की पहचान बनेगी. सामाजिक अवधारणाओं को व्यापक स्वरूप मिलेगा.
सवालः आदिवासियों के लिए धर्मांतरण दंश है?
प्रो. करमा उरांव: इस क्षेत्र में ईसाइयों का प्रभाव ज्यादा है. किन्हीं कारणों से लोग इस धर्म को स्वीकार कर लेते हैं. इससे बहुत बड़ा सांस्कृतिक घाटा हुआ. धार्मिक आस्था का क्षरण हुआ. हमारी सामाजिक व्यवस्था भी बिगड़ गई है.
सवालः सरना धर्म आने से क्या धर्मांतरण रुक जाएगा?
प्रो. करमा उरांव: सरना धर्म के आने से निश्चित तौर पर धर्मांतरण रुकेगा. हमलोगों में एक स्वाभिमान जागेगा. सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक पुनरुत्थान होगा. आज हम लोग चौराहे पर खड़े हैं. स्थूल रूप में जब सरना धर्म मिलेगा तो देश में हमारी पहचान बनेगी.
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विवाद की वजह
- साल 1871 से 1951 तक की जनगणना में आदिवासियों का अलग धर्म कोड था, लेकिन साल 1962 के जनगणना प्रपत्र से इसे हटा दिया गया.
- 2011 की जनगणना में देश के 21 राज्य में रहने वाले लगभग 50 लाख आदिवासियों ने जनगणना प्रपत्र के अन्य कॉलम में सरना धर्म लिखा.
- इस बीच 1931 से 2011 के दौरान आदिवासियों जनसंख्या 38.03 से घटकर 26.03 प्रतिशत हो गई है.
- धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए जनगणना कोड में सरना धर्मावलंबियों को शामिल करने की मांग लंबे समय से की जा रही है.
- आदिवासियों का मानना है कि सरना को अलग धर्म नहीं परिभाषित करने से देश की 700 जनजातियों का अस्तित्व खतरे में है.
जनगणना प्रपत्र में धर्म कोड
जनगणना प्रपत्र में कुल 7 कॉलम हैं. 6 कॉलम में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म के लिए है, जबकि सातवां कॉलम अन्य धर्म को अंकित करने के लिए है. आदिवासी मामलों के जानकारों की दलील है कि 2011 की जनगणना में 42.35 लाख आदिवासियों ने 7वें कॉलम में अपने धर्म का जिक्र किया. इनमें 41.31 लाख लोगों ने खुद को सरना धर्मावलंबी बताया. यानी 97% लोग सरना धर्म के पक्ष में थे, जबकि महज 3% लोगों ने 7वें कॉलम में खुद के धर्म को आदिवासी या अन्य लिखा.
झारखंड में 32 जनजातीय समुदाय रहते हैं. इस राज्य के गठन का आधार ही आदिवासियों का विकास है. इसके अलावा आदिवासियों की बड़ी आबादी छत्तीसगढ़, राजस्थान और अरुणाचल प्रदेश से लेकर अंडमान तक है.
अब आगे क्या हो सकता है
अलग धर्म कोड के प्रस्ताव को केंद्र सरकार पहले ही ठुकरा चुकी है. केंद्रीय गृह मंत्रालय और रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया ने अलग धर्म कोड के लिए श्रेणी बनाने को अव्यवहारिक करार दिया था. ऐसे में दूसरे राज्यों के ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल को एक मंच पर लाकर आम सहमति बनाई जा सकती है. इसके बाद दूसरे राज्यों के विधानसभा में इस बिल को पारित कर केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है. हालांकि ये इतना आसान नहीं दिखता, लिहाजा सरना धर्म कोड की बहुप्रतिक्षित मांग निकट भविष्य में पूरी होना संभव नहीं लगता.