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विशेष लेख : स्वास्थ्य सेवाएं बड़ी चुनौती - भारत में बीमारियों पर खर्च

किसी को भी बीमार देखना दुखदायी होता है. इससे भी ज्यादा दुखी, उस व्यक्ति को अपने मेडिकल और इलाज के बिलों के साथ जूझते हुए देखना होता है. अस्पताल जाने के नाम से ही दिल की धड़कनें तेज होने लगती हैं. देश के हजारों परिवार मेडिकल बिलों को नहीं संभाल सकते हैं, और अंत में कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं. पढ़िए विशेष लेख.

treating medical expenses in India
प्रतीकात्मक फोटो
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Published : Jan 1, 2020, 8:29 AM IST

Updated : Jan 1, 2020, 9:56 AM IST

दवाईयों, डॉक्टरों की फीस, टेस्ट और अस्पताल के लगातार बढ़ते खर्चों का सामना देश का मध्यम वर्ग नहीं कर पा रहा है. अगले दशक में, खासतौर पर भारत जैसे विकासशील देशों में, इलाज के खर्चे में बढ़ोतरी देखने को मिलेगी. इससे बचने के क्या उपाय हैं? हमे बीमारियों से बचने के लिए क्या कदम उठाने की जरूरत है?

पहली चुनौती
भारत में सालाना करीब सात फीसदी परिवार अपने इलाज के खर्चों को पूरा करने के चलते कर्ज के बोझ तले आ जाते हैं. अगले दस सालों में, देश में, इलाज पर होने वाले खर्च के सालाना 5.5% की दर से बढ़ने की उम्मीद है.

दूसरी चुनौती
1. इन दिनों ह्रदय रोग और कैंसर जैसी बीमारियां सभी उम्र के लोगों में फैल रही हैं.
2. आधुनिक इलाजों की कीमत काफी ऊंची है.
3. दवाओं और टेस्ट की कीमतें सालाना बढ़ती जा रही हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च होने वाले पैसा का 52% दवाई कंपनियों को जाता है.
4. वृद्ध लोगों द्वारा दवाओं के लगातार इस्तेमाल के कारण उनसे जुड़ी बीमारियों और उनका इलाज बढ़ता जा रहा है.

जब तक कोई इंसान तंदरुस्त है, तब तक सब सही होता है. लेकिन, उसके बीमार पड़ते ही, मानो परेशानियों का आसमान टूट पड़ता है. डॉक्टरों की फीस, टेस्ट का खर्च, इलाज का खर्च और दवाईयों का खर्च किसी गरीब या मध्यमवर्गीय परिवार को कर्ज के बोझ तले दबाने के लिए काफी है. इलाज के खर्चों को पूरा करने के लिए, 20% मरीज और उनके परिवार अपनी संपित्तयों को बेचने को मजबूर होते हैं. आने वाले दशक में जिन हालातों का अनुमान है, वह और भी परेशान करते हैं. इस पीढ़ी के लोगो के सामने, इस चुनौती से निपटना सबसे बड़ा काम है.

पढ़ें-विशेष लेख : आम आदमी को नहीं मिल रही है स्वास्थ्य सेवाएं

भारत से वापस आए एक डॉक्टर ने ब्रिटेन आकर काम शुरू करते ही, ब्रिटेन और भारत की स्वास्थ सेवाओं में अंतर के सवाल पर बड़ा रोचक जवाब दिया. उन्होंने कहा कि, ब्रिटेन में, जब कोई डॉक्टर के पास जाता है, तो डॉक्टर का सारा ध्यान उस आदमी की बीमारी को सही तरह से चिन्हित करने, सही टेस्ट और सही इलाज की तरफ रहता है. वहीं भारत में, डॉक्टर का सारा ध्यान, मरीज की आर्थिक स्थिति, इलाज का खर्च उठाने की उसकी क्षमता और सरकारी योजनाओं के लिए उसकी पात्रता पर रहता है. डॉक्टर के मुताबिक, 'दोनों देशों के स्वास्थ्य सिस्टम में यह सबसे बड़ा फर्क था.' इस बयान से लोगों को भारत में स्वास्थ क्षेत्र के हालातों के बारे में यथास्थिति पता चल जाती है.

देश के 70% मरीज, निजी इलाज कराते हैं, जो किसी स्वास्थ बीमा के तहत नहीं आता है. डेंगू जैसी बीमारी का इलाज कराने में भी परिवार असमर्थ हैं, और उन्हें कर्ज का सहारा लेना पड़ता है.

हम क्या कर सकते हैं?
देश के संभ्रांत समाज के लोगों को बढ़ते इलाज के खर्चों से कोई खास परेशानी नहीं होती है. गरीब वर्ग के लोगों के इलाज का खर्च, आरोग्यश्री और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं से पूरा होता है, वहीं सरकारी कर्मचारियों के लिए मेडिकल बीमा और मेडिकल बिलों के भुगतान की सुविधा है. इस सबके बीच, मध्यमवर्ग के मरीज के लिए अपने इलाज के लिए न तो कोई मदद है और न ही कोई सहारा. इस कराण से हमें अगले दशक में, अपने देश मे इलाज के खर्च को काबू में रखने के लिए काम करने की जरूरत है.

स्वास्थ के प्रति जागरूकता
स्वास्थ सेवाओं को लेकर जागरूकता बढ़ने से बीमारियों को कम किया जा सकता है. इसलिए सभी को स्वस्थ रहने, अच्छा खाना खाने, नियमित व्यायाम और सफाई रखने के बारे में पूरी तरह जागरूक होना जरूरी है. इस जागरूकता को बचपन से ही देने की जरूरत है.

समय पर स्वास्थ जांच
समय पर टेस्ट के जरिए बीमारियों का पता लगाना, बीमार होने के बाद अस्पतालों के धक्के खाने से बहुत बेहतर है. समय पर किए गए टेस्ट, कैंसर आदि कई बीमारियों के खतरे से हमे बचा सकते हैं. इस बारे में गरीब वर्ग में भी जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है.

स्वास्थ बीमा
स्वास्थ बीमा, बीमारियों से निपटने के लिए सबसे कारगर तरीका है. इस समय, देश में करीब, 2.07 करोड़ मेडिकल बीमा पॉलिसी हैं और इनसे, 47.20 करोड़ लोगों को फायदा मिलता है. यह सभी मिलाकर, राज्य और केंद्र सरकार और निजी कंपनियों द्वारा दिए जा रहे स्वास्थ बीमा क्षेत्र को बनाते हैं. इनमे से कई लोग कुछ समय बीमा पॉलिसी का प्रीमियम देकर, बाद में इसे छोड़ देते हैं. लोगों को यह समझने की जरूरत है कि इन पॉलिसियों का प्रीमियम, इलाज पर होने वाले खर्च से काफी कम होता है.

हमारी मौजूदा स्थिति (अलग-अलग सर्वे पर आधारित)

  • 2000-2014 के बीच मेडिकल खर्चों पर होने वाले खर्चें में 370% का इजाफा
  • अगले दस सालों में ये कितना गुना बढ़ेगा, यह कहना मुश्किल है.
  • अलग अलग देशों में, इलाज के खर्चों में सरकारी हिस्सेदारी : ब्रिटेन 83%, चीन 56%, अमरीका 48%, ब्राजील 46%, इंडोनेशिया 39%. भारत 30% (इसके अलावा सारा खर्च लोगों को अपनी जेब से करना पड़ता है).
  • अपने आप मेडिकल खर्च को वहन करने वाले लोगों की तादाद : अमरीका में13.4% , ब्रिटेन में 10% और चीन में 13.4%. भारत में 62% (क्योंकि भारत में अधिक्तर लोग ऐसे स्वास्थ्य बीमा से दूर हैं जो सभी बीमारियों को कवर करता है).
  • पिछले साल, सरकार ने औसतन प्रति व्यक्ति 1657 रुपये खर्च किए.
  • वहीं, निजी स्वास्थ सेवाएं लेने वाले लोगों का औसतन सालाना खर्च 31,845 रुपये रहा.

दवाईयों, डॉक्टरों की फीस, टेस्ट और अस्पताल के लगातार बढ़ते खर्चों का सामना देश का मध्यम वर्ग नहीं कर पा रहा है. अगले दशक में, खासतौर पर भारत जैसे विकासशील देशों में, इलाज के खर्चे में बढ़ोतरी देखने को मिलेगी. इससे बचने के क्या उपाय हैं? हमे बीमारियों से बचने के लिए क्या कदम उठाने की जरूरत है?

पहली चुनौती
भारत में सालाना करीब सात फीसदी परिवार अपने इलाज के खर्चों को पूरा करने के चलते कर्ज के बोझ तले आ जाते हैं. अगले दस सालों में, देश में, इलाज पर होने वाले खर्च के सालाना 5.5% की दर से बढ़ने की उम्मीद है.

दूसरी चुनौती
1. इन दिनों ह्रदय रोग और कैंसर जैसी बीमारियां सभी उम्र के लोगों में फैल रही हैं.
2. आधुनिक इलाजों की कीमत काफी ऊंची है.
3. दवाओं और टेस्ट की कीमतें सालाना बढ़ती जा रही हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च होने वाले पैसा का 52% दवाई कंपनियों को जाता है.
4. वृद्ध लोगों द्वारा दवाओं के लगातार इस्तेमाल के कारण उनसे जुड़ी बीमारियों और उनका इलाज बढ़ता जा रहा है.

जब तक कोई इंसान तंदरुस्त है, तब तक सब सही होता है. लेकिन, उसके बीमार पड़ते ही, मानो परेशानियों का आसमान टूट पड़ता है. डॉक्टरों की फीस, टेस्ट का खर्च, इलाज का खर्च और दवाईयों का खर्च किसी गरीब या मध्यमवर्गीय परिवार को कर्ज के बोझ तले दबाने के लिए काफी है. इलाज के खर्चों को पूरा करने के लिए, 20% मरीज और उनके परिवार अपनी संपित्तयों को बेचने को मजबूर होते हैं. आने वाले दशक में जिन हालातों का अनुमान है, वह और भी परेशान करते हैं. इस पीढ़ी के लोगो के सामने, इस चुनौती से निपटना सबसे बड़ा काम है.

पढ़ें-विशेष लेख : आम आदमी को नहीं मिल रही है स्वास्थ्य सेवाएं

भारत से वापस आए एक डॉक्टर ने ब्रिटेन आकर काम शुरू करते ही, ब्रिटेन और भारत की स्वास्थ सेवाओं में अंतर के सवाल पर बड़ा रोचक जवाब दिया. उन्होंने कहा कि, ब्रिटेन में, जब कोई डॉक्टर के पास जाता है, तो डॉक्टर का सारा ध्यान उस आदमी की बीमारी को सही तरह से चिन्हित करने, सही टेस्ट और सही इलाज की तरफ रहता है. वहीं भारत में, डॉक्टर का सारा ध्यान, मरीज की आर्थिक स्थिति, इलाज का खर्च उठाने की उसकी क्षमता और सरकारी योजनाओं के लिए उसकी पात्रता पर रहता है. डॉक्टर के मुताबिक, 'दोनों देशों के स्वास्थ्य सिस्टम में यह सबसे बड़ा फर्क था.' इस बयान से लोगों को भारत में स्वास्थ क्षेत्र के हालातों के बारे में यथास्थिति पता चल जाती है.

देश के 70% मरीज, निजी इलाज कराते हैं, जो किसी स्वास्थ बीमा के तहत नहीं आता है. डेंगू जैसी बीमारी का इलाज कराने में भी परिवार असमर्थ हैं, और उन्हें कर्ज का सहारा लेना पड़ता है.

हम क्या कर सकते हैं?
देश के संभ्रांत समाज के लोगों को बढ़ते इलाज के खर्चों से कोई खास परेशानी नहीं होती है. गरीब वर्ग के लोगों के इलाज का खर्च, आरोग्यश्री और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं से पूरा होता है, वहीं सरकारी कर्मचारियों के लिए मेडिकल बीमा और मेडिकल बिलों के भुगतान की सुविधा है. इस सबके बीच, मध्यमवर्ग के मरीज के लिए अपने इलाज के लिए न तो कोई मदद है और न ही कोई सहारा. इस कराण से हमें अगले दशक में, अपने देश मे इलाज के खर्च को काबू में रखने के लिए काम करने की जरूरत है.

स्वास्थ के प्रति जागरूकता
स्वास्थ सेवाओं को लेकर जागरूकता बढ़ने से बीमारियों को कम किया जा सकता है. इसलिए सभी को स्वस्थ रहने, अच्छा खाना खाने, नियमित व्यायाम और सफाई रखने के बारे में पूरी तरह जागरूक होना जरूरी है. इस जागरूकता को बचपन से ही देने की जरूरत है.

समय पर स्वास्थ जांच
समय पर टेस्ट के जरिए बीमारियों का पता लगाना, बीमार होने के बाद अस्पतालों के धक्के खाने से बहुत बेहतर है. समय पर किए गए टेस्ट, कैंसर आदि कई बीमारियों के खतरे से हमे बचा सकते हैं. इस बारे में गरीब वर्ग में भी जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है.

स्वास्थ बीमा
स्वास्थ बीमा, बीमारियों से निपटने के लिए सबसे कारगर तरीका है. इस समय, देश में करीब, 2.07 करोड़ मेडिकल बीमा पॉलिसी हैं और इनसे, 47.20 करोड़ लोगों को फायदा मिलता है. यह सभी मिलाकर, राज्य और केंद्र सरकार और निजी कंपनियों द्वारा दिए जा रहे स्वास्थ बीमा क्षेत्र को बनाते हैं. इनमे से कई लोग कुछ समय बीमा पॉलिसी का प्रीमियम देकर, बाद में इसे छोड़ देते हैं. लोगों को यह समझने की जरूरत है कि इन पॉलिसियों का प्रीमियम, इलाज पर होने वाले खर्च से काफी कम होता है.

हमारी मौजूदा स्थिति (अलग-अलग सर्वे पर आधारित)

  • 2000-2014 के बीच मेडिकल खर्चों पर होने वाले खर्चें में 370% का इजाफा
  • अगले दस सालों में ये कितना गुना बढ़ेगा, यह कहना मुश्किल है.
  • अलग अलग देशों में, इलाज के खर्चों में सरकारी हिस्सेदारी : ब्रिटेन 83%, चीन 56%, अमरीका 48%, ब्राजील 46%, इंडोनेशिया 39%. भारत 30% (इसके अलावा सारा खर्च लोगों को अपनी जेब से करना पड़ता है).
  • अपने आप मेडिकल खर्च को वहन करने वाले लोगों की तादाद : अमरीका में13.4% , ब्रिटेन में 10% और चीन में 13.4%. भारत में 62% (क्योंकि भारत में अधिक्तर लोग ऐसे स्वास्थ्य बीमा से दूर हैं जो सभी बीमारियों को कवर करता है).
  • पिछले साल, सरकार ने औसतन प्रति व्यक्ति 1657 रुपये खर्च किए.
  • वहीं, निजी स्वास्थ सेवाएं लेने वाले लोगों का औसतन सालाना खर्च 31,845 रुपये रहा.
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बीमारियों से पहले, स्वास्थ खर्चों का इलाज है जरूरी

 

किसी को भी बीमार देखना दुखदायी होता है. इससे भी ज्यादा दुखी, उस व्यक्ति को अपने मेडिकल और इलाज के बिलों के साथ जूझते हुए देखना होता है. अस्पताल जाने के नाम से ही दिल की धड़कनें तेज होने लगती हैं. देश के हजारों परिवार मेडिकल बिलों को नहीं संभाल सकते हैं, और अंत में कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं. दवाईयों, डॉक्टरों की फीस, टेस्ट और अस्पताल के लगातार बढ़ते खर्चों का सामना देश का मध्यम वर्ग नहीं कर पा रहा है. अगले दशक में, खासतौर पर भारत जैसे विकासशील देशों में, इलाज के खर्चे में बढ़ेत्तरी देखने को मिलेगी. इससे बचने के क्या उपाय हैं? हमे बीमारियों से बचने के लिये क्या कदम उठाने की जरूरत है? 

पहली चुनौती 

भारत में सालाना करीब सात फीसदी परिवार अपने इलाज के खर्चों को पूरा करने के चलते कर्ज के बोझ तले आ जाते हैं. अगले दस सालों में, देश में, इलाज पर होने वाले खर्च के सालाना 5.5% की दर से बढ़ने की उम्मीद है. 

दूसरी चुनौती



1.    इन दिनों ह्रदय रोग और कैंसर जैसी बीमारियां सभी उम्र के लोगों में फैल रही हैं.

2.    आधुनिक इलाजों की कीमत काफी ऊंची है.

3.    दवाओं और टेस्ट की कीमतें सालाना बढ़ती जा रही हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च होने वाले पैसा का 52% दवाई कंपनियों को जाता है.

4.   वृद्ध लोगों द्वारा दवाओं के लगातार इस्तेमाल के कारण उनसे जुड़ी बीमारियों और उनका इलाज बढ़ता जा रहा है.



जब तक कोई इंसान तंदरुस्त है, तब तक सब सही होता है. लेकिन, उसके बीमार पड़ते ही, मानो परेशानियों का आसमान टूट पड़ता है. डॉक्टरों की फीस, टेस्ट का खर्च, इलाज का खर्च और दवाईयों का खर्च किसी गरीब या मध्यमवर्गीय परिवार को कर्ज के बोझ तले दबाने के लिये काफी है. इलाज के खर्चों को पूरा करने के लिये, 20% मरीज और उनके परिवार अपनी संपित्तयों को बेचने को मजबूर होते हैं. आने वाले दशक में जिन हालातों का अनुमान है, वो और भी परेशान करते हैं. इस पीढ़ी के लोगो के सामने, इस चुनौती से निपटना सबसे बड़ा काम है.   

 

भारत से वापस आये एक डॉक्टर ने ब्रिटेन आकर काम शुरू करते ही, ब्रिटेन और भारत की स्वास्थ सेवाओं में अंतर के सवाल पर बड़ा रोचक जवाब दिया. उन्होंने कहा कि, ब्रिटेन में, जब कोई डॉक्टर के पास जाता है, तो डॉक्टर का सारा ध्यान उस आदमी की बीमारी को सही तरह से चिन्हित करने, सही टेस्ट और सही इलाज की तरफ रहता है. वहीं भारत में, डॉक्टर का सारा ध्यान, मरीज की आर्थिक स्थिति, इलाज का खर्च उठाने की उसकी क्षमता और सरकारी योजनाओं के लिये उसकी पात्रता पर रहता है. डॉक्टर के मुताबिक, 'दोनों देशों के स्वास्थ्य सिस्टम में यह सबसे बड़ा फर्क था।.' इस बयान से लोगों को भारत में स्वास्थ क्षेत्र के हालातों के बारे में यथास्थिति पता चल जाती है. देश के 70% मरीज, निजी इलाज कराते हैं, जो किसी स्वास्थ बीमा के तहत नहीं आता है. डेंगू जैसी बीमारी का इलाज कराने में भी परिवार असमर्थ हैं, और उन्हें कर्ज का सहारा लेना पड़ता है. 

हम क्या कर सकते हैं?  

देश के संभ्रांत समाज के लोगों को बढ़ते इलाज के खर्चों से कोई खास परेशानी नहीं होती है. गरीब वर्ग के लोगों के इलाज का खर्च, आरोग्यश्री और आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं से पूरा होता है, वहीं सरकारी कर्मचारियों के लिये मेडिकल बीमा और मेडिकल बिलों के भुगतान की सुविधा है. इस सबके बीच, मध्यमवर्ग के मरीज के लिये अपने इलाज के लिये न तो कोई मदद है और न ही कोई सहारा. इस कराण से हमें अगले दशक में, अपने देश मे इलाज के खर्च को काबू में रखने के लिये काम करने की जरूरत है.

स्वास्थ के प्रति जागरूकता 

स्वास्थ सेवाओं को लेकर जागरूकता बढ़ने से बीमारियों को कम किया जा सकता है. इसलिये सभी को स्वस्थ रहने, अच्छा खाना खाने, नियमित व्यायाम और सफाई रखने के बारे में पूरी तरह जागरूक होना जरूरी है. इस जागरूकता को बचपन से ही देने की जरूरत है.

समय पर स्वास्थ जांच 

समय पर टेस्ट के जरिये बीमारियों का पता लगाना, बीमार होने के बाद अस्पतालों के धक्के खाने से बहुत बेहतर है. समय पर किये गये टेस्ट, कैंसर आदि कई बीमारियों के खतरे से हमे बचा सकते हैं. इस बारे में गरीब वर्ग में भी जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है.



स्वास्थ बीमा

 

स्वास्थ बीमा, बीमारियों से निपटने के लिये सबसे कारगर तरीका है. इस समय, देश में करीब, 2.07 करोड़ मेडिकल बीमा पॉलिसी हैं और इनसे, 47.20 करोड़ लोगों को फायदा मिलता है. ये सभी मिलाकर, राज्य और केंद्र सरकार और निजी कंपनियों द्वारा दिये जा रहे स्वास्थ बीमा क्षेत्र को बनाते हैं. इनमे से कई लोग कुछ समय बीमा पॉलिसी का प्रीमियम देकर, बाद में इसे छोड़ देते हैं. लोगों को यह समझने की जरूरत है कि इन पॉलिसियों का प्रीमियम, इलाज पर होने वाले खर्च से काफी कम होता है.   

हमारी मौजूदा स्थिति 

(अलग-अलग सर्वे पर आधारित) 

Ø  2000-2014 के बीच मेडिकल खर्चों पर होने वाले खर्चें में 370% का इजाफा

Ø  अगले दस सालों में ये कितना गुना बढ़ेगा, यह कहना मुश्किल है.

Ø  अलग अलग देशों में, इलाज के खर्चों में सरकारी हिस्सेदारी 

o  ब्रिटेन 83%, चीन 56%, अमरीका 48%, ब्राजील 46%, इंडोनेशिया 39%. भारत 30%.

(इसके अलावा सारा खर्च लोगों को अपनी जेब से करना पड़ता है)

Ø  अपने आप मेडिकल खर्च को वहन करने वाले लोगों की तादाद:

o अमरीका में13.4% , ब्रिटेन में 10% और चीन में 13.4%. भारत में 62% 

(क्योंकि भारत में अधिक्तर लोग ऐसे स्वास्थ्य बीमा से दूर हैं जो सभी बीमारियों को कवर करता है)

 

Ø पिछले साल, सरकार ने औसतन प्रति व्यक्ति 1657 रुपये खर्च किये.

Ø वहीं, निजी स्वास्थ सेवाएं लेने वाले लोगों का औसतन सालाना खर्च 31,845 रुपये रहा.

 


Conclusion:
Last Updated : Jan 1, 2020, 9:56 AM IST
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