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विशेष लेख : क्या ट्रंप की यात्रा से खत्म होगा ट्रेड पर टकराव ?

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Published : Feb 13, 2020, 2:20 PM IST

Updated : Mar 1, 2020, 5:20 AM IST

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दो दिवसीय भारत की यात्रा पर आ रहे हैं. उनके स्वागत की जोरदार तैयारियां की जा रही हैं. 'हाउडी मोदी' की तर्ज पर यहां 'केम छो ट्रंप' जैसे कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है. लेकिन क्या इस गर्मजोशी का असर व्यापार पर भी पड़ेंगा. क्या दोनों देशों के बीच जारी ट्रेड पर तनाव खत्म हो सकेगा. विस्तार से पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार सुरेश बाफना का एक विश्लेषण.

पीएम मोदी और ट्रंप
पीएम मोदी और ट्रंप

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की प्रस्तावित भारत यात्रा के साथ यह उम्मीद की जा रही है कि पिछले एक साल से दोनों देशों के बीच जारी व्यापारिक तनाव खत्म हो जाएगा. ट्रंप ने अपनी यात्रा की घोषणा करते हुए कहा कि यदि विवादित सवालों पर अनुकूल सहमति हो गई, तो व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर होंगे.

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि अमेरिका की विदेश नीति में आर्थिक संरक्षणवाद और व्यापारिक मुद्दों की भूमिका सर्वोपरि होगी. आश्चर्य की बात यह है कि भारत और अमेरिका एक-दूसरे को सामरिक साझेदार मानते हैं और दूसरी तरफ व्यापार के मोर्चे पर टकराव की मुद्रा में भी खड़े दिखाई देते हैं.

दोनों देशों की बीच कृषि, डेयरी व टेक्नोलॉजी से जुड़े कुछ मुद्दों पर मतभेद हैं. ट्रंप ने चीन, मेक्सिको व जापान सहित कई देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते करके यह साफ कर दिया कि विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुपक्षीय मंचों पर उनका कोई विश्वास नहीं है.

व्यापार व टेक्नोलॉजी के लिहाज से भारत के लिए अमेरिका सबसे बड़ा पार्टनर देश है. 2018 में दोनों देशों के बीच 142 अरब डॉलर का व्यापार हुआ था. यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि व्यापारिक रिश्ते पटरी पर आ जाए, तो यह आंकड़ा अगले कुछ सालों के दौरान ही 200 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है. इसलिए लेन-देन के आधार पर भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौता बेहद जरूरी है.

इस संदर्भ में हमें चीन के व्यावहारिक दृष्टिकोण से सबक लेना चाहिए. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के साथ हमारी सामरिक साझेदारी तभी आगे बढेगी, जब हम व्यापारिक स्तर पर जारी टकराव को खत्म करने में कामयाब होंगे.

ट्रंप की भारत यात्रा का दूसरा प्रमुख एजेंडा यह होगा कि भारतीय व पैसिफिक महासागर में चीन की आक्रामकता का मुकाबला किस तरह किया जाए ? पिछले साल पेंटागन ने अपने रक्षा दस्तावेजों में 'एशिया-पैसिफिक' की बजाय 'इंडो-पैसिफिक' शब्द का इस्तेमाल कर दुनिया को यह संदेश दिया था कि इस इलाके में शांति व स्थिरता कायम करने में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है.

भारत, अमेरिका, जापान व ऑस्ट्रेलिया के बीच जारी संयुक्त सैन्य अभ्यास को चीन की आक्रामक नीति के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की पिछली बैठक दौरान इन चार देशों के विदेश मंत्रियों की पहली संयुक्त बैठक से यह संकेत दिया गया कि सैन्य अभ्यास अब राजनीतिक गठबंधन के तौर पर उभर रहा है.

पढें- उत्साहित ट्रंप बोले- 70 लाख लोग भारत में करेंगे मेरा स्वागत, मोदी ने दिया ऐसा जवाब

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की भूमिका निरंतर कमजोर होगी गई और उसी अनुपात में चीन ने अपनी आर्थिक व सैन्य ताकत के बल पर अपने प्रभाव क्षेत्र में बढ़ोतरी की.

भारत के संदर्भ में चीन की आक्रामकता कई रूपों में प्रकट हुई. जम्मू-कश्मीर के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में चीन की कोशिशें इसी आक्रामकता का हिस्सा थीं. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चीन और पाकिस्तान भारत के लिए एक संयुक्त सैन्य चुनौती के रूप में उभर रहे हैं. चीन ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती दी है. इसलिए भारत को अपने हित सुरक्षित करने के लिए अमेरिका व अन्य देशों के साथ सुरक्षा संबंध प्रगाढ़ करने की जरूरत है. जाहिर है हमें किसी घोषित चीन-विरोधी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना चाहिए, लेकिन चीन की आक्रामकता का कूटनीतिक तौर पर जवाब दिया जाना जरूरी है.

पढ़ें- ह्वाइट हाउस ने हिंद-प्रशांत के लिए 1.5 अरब डॉलर प्रस्तावित किए

दक्षिण चीन सागर में चीन ने जिस तरह कृत्रिम द्वीपों का निर्माण कर वहां सैन्य ताकत विकसित की है, वह अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए बेहद चिन्ता का विषय है. अमेरिका चीन की इस चुनौती का अकेले मुकाबला करने में सक्षम महसूस नहीं करता है. इसलिए भारतीय महासागर में भारत की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जा रहा है. पिछले दिनों अमेरिका के साथ हुए समझौतों की वजह से दोनों देशों की सेनाओं के बीच ऑपरेशन व संचार के स्तर पर आपसी तालमेल बढ़ा है. पिछले 12 साल के भीतर भारत ने अमेरिका से 20 अरब डॉलर के रक्षा उत्पाद खरीदे हैं, जिससे पता चलता है कि दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग गहरा हो गया है.

पढ़ें- भारत यात्रा के लिए उत्साहित हूं: मेलानिया ट्रंप

भारत और अमेरिका के बीच जब भी शिखर स्तर पर वार्ता होती है, तो पाकिस्तान का जिक्र न हो, यह संभव नहीं है. राष्ट्रपति ट्रंप कई बार यह कह चुके हैं कि यदि दोनों पक्ष सहमत हों, तो वे कश्मीर के सवाल पर मध्यस्थता करने के लिए तैयार हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ट्रंप के साथ पत्रकार-वार्ता में स्पष्ट कर चुके हैं कि मध्यस्थता का सवाल ही नहीं उठता.

जहां तक पाकिस्तान द्वारा भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने की कोशिशों का सवाल है, अमेरिकी अधिकारी कई बार दोहरा चुके हैं कि पाकिस्तान को आतंकवादी गुटों का खात्मा करना ही होगा. आतंकवाद के सवाल पर भारत और अमेरिका के बीच उच्च स्तरीय स्तर पर सहयोग का सिलसिला कई सालों से जारी है, जिसे और भी सुदृढ़ करने की जरुरत है.

राष्ट्रपति ट्रंप भारत से यह अनुरोध दोहरा सकते हैं कि पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया फिर से शुरु की जाए. जाहिर है वर्तमान माहौल में पाकिस्तान के साथ किसी भी स्तर पर सार्थक बातचीत की कोई संभावना नहीं है. आम तौर पर भारत-यात्रा के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति पाकिस्तान की संक्षिप्त यात्रा पर जाते रहे हैं, लेकिन ट्रंप ने इस परंपरा को तोड़कर पाकिस्तान को संदेश दिया है कि वह फिलहाल उनकी यात्रा के लिए अनुकूल नहीं है.

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की प्रस्तावित भारत यात्रा के साथ यह उम्मीद की जा रही है कि पिछले एक साल से दोनों देशों के बीच जारी व्यापारिक तनाव खत्म हो जाएगा. ट्रंप ने अपनी यात्रा की घोषणा करते हुए कहा कि यदि विवादित सवालों पर अनुकूल सहमति हो गई, तो व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर होंगे.

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि अमेरिका की विदेश नीति में आर्थिक संरक्षणवाद और व्यापारिक मुद्दों की भूमिका सर्वोपरि होगी. आश्चर्य की बात यह है कि भारत और अमेरिका एक-दूसरे को सामरिक साझेदार मानते हैं और दूसरी तरफ व्यापार के मोर्चे पर टकराव की मुद्रा में भी खड़े दिखाई देते हैं.

दोनों देशों की बीच कृषि, डेयरी व टेक्नोलॉजी से जुड़े कुछ मुद्दों पर मतभेद हैं. ट्रंप ने चीन, मेक्सिको व जापान सहित कई देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते करके यह साफ कर दिया कि विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुपक्षीय मंचों पर उनका कोई विश्वास नहीं है.

व्यापार व टेक्नोलॉजी के लिहाज से भारत के लिए अमेरिका सबसे बड़ा पार्टनर देश है. 2018 में दोनों देशों के बीच 142 अरब डॉलर का व्यापार हुआ था. यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि व्यापारिक रिश्ते पटरी पर आ जाए, तो यह आंकड़ा अगले कुछ सालों के दौरान ही 200 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है. इसलिए लेन-देन के आधार पर भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौता बेहद जरूरी है.

इस संदर्भ में हमें चीन के व्यावहारिक दृष्टिकोण से सबक लेना चाहिए. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के साथ हमारी सामरिक साझेदारी तभी आगे बढेगी, जब हम व्यापारिक स्तर पर जारी टकराव को खत्म करने में कामयाब होंगे.

ट्रंप की भारत यात्रा का दूसरा प्रमुख एजेंडा यह होगा कि भारतीय व पैसिफिक महासागर में चीन की आक्रामकता का मुकाबला किस तरह किया जाए ? पिछले साल पेंटागन ने अपने रक्षा दस्तावेजों में 'एशिया-पैसिफिक' की बजाय 'इंडो-पैसिफिक' शब्द का इस्तेमाल कर दुनिया को यह संदेश दिया था कि इस इलाके में शांति व स्थिरता कायम करने में भारत की भूमिका महत्वपूर्ण है.

भारत, अमेरिका, जापान व ऑस्ट्रेलिया के बीच जारी संयुक्त सैन्य अभ्यास को चीन की आक्रामक नीति के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की पिछली बैठक दौरान इन चार देशों के विदेश मंत्रियों की पहली संयुक्त बैठक से यह संकेत दिया गया कि सैन्य अभ्यास अब राजनीतिक गठबंधन के तौर पर उभर रहा है.

पढें- उत्साहित ट्रंप बोले- 70 लाख लोग भारत में करेंगे मेरा स्वागत, मोदी ने दिया ऐसा जवाब

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की भूमिका निरंतर कमजोर होगी गई और उसी अनुपात में चीन ने अपनी आर्थिक व सैन्य ताकत के बल पर अपने प्रभाव क्षेत्र में बढ़ोतरी की.

भारत के संदर्भ में चीन की आक्रामकता कई रूपों में प्रकट हुई. जम्मू-कश्मीर के सवाल पर संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में चीन की कोशिशें इसी आक्रामकता का हिस्सा थीं. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि चीन और पाकिस्तान भारत के लिए एक संयुक्त सैन्य चुनौती के रूप में उभर रहे हैं. चीन ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती दी है. इसलिए भारत को अपने हित सुरक्षित करने के लिए अमेरिका व अन्य देशों के साथ सुरक्षा संबंध प्रगाढ़ करने की जरूरत है. जाहिर है हमें किसी घोषित चीन-विरोधी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना चाहिए, लेकिन चीन की आक्रामकता का कूटनीतिक तौर पर जवाब दिया जाना जरूरी है.

पढ़ें- ह्वाइट हाउस ने हिंद-प्रशांत के लिए 1.5 अरब डॉलर प्रस्तावित किए

दक्षिण चीन सागर में चीन ने जिस तरह कृत्रिम द्वीपों का निर्माण कर वहां सैन्य ताकत विकसित की है, वह अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए बेहद चिन्ता का विषय है. अमेरिका चीन की इस चुनौती का अकेले मुकाबला करने में सक्षम महसूस नहीं करता है. इसलिए भारतीय महासागर में भारत की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जा रहा है. पिछले दिनों अमेरिका के साथ हुए समझौतों की वजह से दोनों देशों की सेनाओं के बीच ऑपरेशन व संचार के स्तर पर आपसी तालमेल बढ़ा है. पिछले 12 साल के भीतर भारत ने अमेरिका से 20 अरब डॉलर के रक्षा उत्पाद खरीदे हैं, जिससे पता चलता है कि दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग गहरा हो गया है.

पढ़ें- भारत यात्रा के लिए उत्साहित हूं: मेलानिया ट्रंप

भारत और अमेरिका के बीच जब भी शिखर स्तर पर वार्ता होती है, तो पाकिस्तान का जिक्र न हो, यह संभव नहीं है. राष्ट्रपति ट्रंप कई बार यह कह चुके हैं कि यदि दोनों पक्ष सहमत हों, तो वे कश्मीर के सवाल पर मध्यस्थता करने के लिए तैयार हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ट्रंप के साथ पत्रकार-वार्ता में स्पष्ट कर चुके हैं कि मध्यस्थता का सवाल ही नहीं उठता.

जहां तक पाकिस्तान द्वारा भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने की कोशिशों का सवाल है, अमेरिकी अधिकारी कई बार दोहरा चुके हैं कि पाकिस्तान को आतंकवादी गुटों का खात्मा करना ही होगा. आतंकवाद के सवाल पर भारत और अमेरिका के बीच उच्च स्तरीय स्तर पर सहयोग का सिलसिला कई सालों से जारी है, जिसे और भी सुदृढ़ करने की जरुरत है.

राष्ट्रपति ट्रंप भारत से यह अनुरोध दोहरा सकते हैं कि पाकिस्तान के साथ बातचीत की प्रक्रिया फिर से शुरु की जाए. जाहिर है वर्तमान माहौल में पाकिस्तान के साथ किसी भी स्तर पर सार्थक बातचीत की कोई संभावना नहीं है. आम तौर पर भारत-यात्रा के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति पाकिस्तान की संक्षिप्त यात्रा पर जाते रहे हैं, लेकिन ट्रंप ने इस परंपरा को तोड़कर पाकिस्तान को संदेश दिया है कि वह फिलहाल उनकी यात्रा के लिए अनुकूल नहीं है.

Last Updated : Mar 1, 2020, 5:20 AM IST
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