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अयोध्या फैसला : संस्कृत, उर्दू, फारसी, तुर्क व फ्रेंच किताबों ने SC का बखूबी साथ निभाया

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Published : Nov 10, 2019, 10:54 PM IST

Updated : Nov 20, 2019, 9:19 PM IST

अयोध्या मामले में पुरातत्व से जुड़ी किताबों ने सुप्रीम कोर्ट की विशेष पीठ का बखूबी साथ निभाया है. इन किताबों पर भरोसा करने में कोर्ट ने बेहद ही सावधानी बरती. पीठ ने कहा कि इतिहास का विश्लेषण करना खतरनाक होता है. पढ़ें विस्तार से...

इतिहास का विश्लेषण करना हमेशा खतरनाक

नयी दिल्ली : राजनीतिक और धार्मिक रूप से अतिसंवेदनशील अयोध्या मामले पर फैसला आ चुका है. इस फैसले को सुनाने में संस्कृत, हिन्दी उर्दू, फारसी, तुर्क, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा के इतिहास, संस्कृति, धार्मिक और पुरातत्व से जुड़ी किताबों और उनके अनुवादित संस्करणों ने उच्चतम न्यायालय की विशेष पीठ का बखूबी साथ निभाया.

लेकिन, इन किताबों पर भरोसा करने में शीर्ष अदालत ने बहुत ज्यादा सावधानी बरती क्योंकि किसी विषय के आलोक में इतिहास का विश्लेषण करना हमेशा खतरनाक होता है.

गौरतलब है कि प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली विशेष पीठ ने 533 दस्तावेजों को साक्ष्यों में शामिल किया.

इनमें धार्मिक पुस्तकें, यात्रा वृतांत, पुरातात्विक खुदाई की रिपोर्ट, मस्जिद गिरने से पहले विवादित स्थल की तस्वीरें और कलाकृतियां शामिल हैं.

आपको बता दें विशेष पीठ में न्यायमूर्ति गोगोई के अलावा न्यायमूर्ति एस.ए. बोबडे, न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस.ए. नजीर शामिल हैं .

दस्तावेजी साक्ष्यों में गजट और खंभों पर अंकित लेखों का अनुवाद भी शामिल था.

10 जनवरी, 2019 को शीर्ष अदालत ने अपने रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि वह रिकॉर्ड की जांच करे और जरूरत होने पर आधिकारिक अनुवादकों की मदद ले.

पढ़ें : विवादित जमीन ट्रस्ट को, मस्जिद के लिए पांच एकड़ वैकल्पिक जमीन

लेकिन, शीर्ष अदालत ने ऐतिहासिक संदर्भों के इस्तेमाल में बहुत सावधानी बरती है. पीठ का कहना है कि इतिहास का विश्लेषण बेहद ही खतरनाक काम होता है.

1,045 पन्नों के फैसले में पीठ ने कहा है, ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स में खामियां दिखती हैं, जैसा कि हम बाबरनामा में देखते हैं. अनुवाद अलग-अलग होते हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं. अदालत को ऐसे नकारात्मक विश्लेषण से बचना चाहिए, जो ऐतिहासिक साक्ष्यों में मौजूद ही नहीं है.

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि बिना हिस्टोरियोग्राफी की मदद के इतिहास का विश्लेषण करना खतरनाक है.

नयी दिल्ली : राजनीतिक और धार्मिक रूप से अतिसंवेदनशील अयोध्या मामले पर फैसला आ चुका है. इस फैसले को सुनाने में संस्कृत, हिन्दी उर्दू, फारसी, तुर्क, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा के इतिहास, संस्कृति, धार्मिक और पुरातत्व से जुड़ी किताबों और उनके अनुवादित संस्करणों ने उच्चतम न्यायालय की विशेष पीठ का बखूबी साथ निभाया.

लेकिन, इन किताबों पर भरोसा करने में शीर्ष अदालत ने बहुत ज्यादा सावधानी बरती क्योंकि किसी विषय के आलोक में इतिहास का विश्लेषण करना हमेशा खतरनाक होता है.

गौरतलब है कि प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली विशेष पीठ ने 533 दस्तावेजों को साक्ष्यों में शामिल किया.

इनमें धार्मिक पुस्तकें, यात्रा वृतांत, पुरातात्विक खुदाई की रिपोर्ट, मस्जिद गिरने से पहले विवादित स्थल की तस्वीरें और कलाकृतियां शामिल हैं.

आपको बता दें विशेष पीठ में न्यायमूर्ति गोगोई के अलावा न्यायमूर्ति एस.ए. बोबडे, न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस.ए. नजीर शामिल हैं .

दस्तावेजी साक्ष्यों में गजट और खंभों पर अंकित लेखों का अनुवाद भी शामिल था.

10 जनवरी, 2019 को शीर्ष अदालत ने अपने रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि वह रिकॉर्ड की जांच करे और जरूरत होने पर आधिकारिक अनुवादकों की मदद ले.

पढ़ें : विवादित जमीन ट्रस्ट को, मस्जिद के लिए पांच एकड़ वैकल्पिक जमीन

लेकिन, शीर्ष अदालत ने ऐतिहासिक संदर्भों के इस्तेमाल में बहुत सावधानी बरती है. पीठ का कहना है कि इतिहास का विश्लेषण बेहद ही खतरनाक काम होता है.

1,045 पन्नों के फैसले में पीठ ने कहा है, ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स में खामियां दिखती हैं, जैसा कि हम बाबरनामा में देखते हैं. अनुवाद अलग-अलग होते हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं. अदालत को ऐसे नकारात्मक विश्लेषण से बचना चाहिए, जो ऐतिहासिक साक्ष्यों में मौजूद ही नहीं है.

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि बिना हिस्टोरियोग्राफी की मदद के इतिहास का विश्लेषण करना खतरनाक है.

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Last Updated : Nov 20, 2019, 9:19 PM IST

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