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किसान आंदोलन : शिवसेना ने मोदी सरकार को बताया देसी ईस्ट इंडिया कंपनी

दिल्ली में जारी किसान आंदोलन को लेकर शिवसेना ने मोदी सरकार को घेरा है. शिवसेना ने कहा कि आज परिस्थिति बिगड़ती जा रही है, यह सरकार के ही कर्मों का फल है. इसके साथ ही शिवसेना ने केंद्र को देसी ईस्ट इंडिया कंपनी भी बताया.

शिवसेना का मोदी सरकार पर हमला
शिवसेना का मोदी सरकार पर हमला
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Published : Dec 7, 2020, 5:20 PM IST

मुंबई : शिवसेना अपने मुखपत्र 'सामना' के जरिए केंद्र की मोदी सरकार पर लगातार हमलावर रहती है. इस बार शिवसेना ने 'सामना' के संपादकीय लेख के जरिए किसान आंदोलन को लेकर पीएम मोदी को फिर घेरा है. शिवसेना ने कहा कि दिल्ली में किसान आंदोलन आज ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि आगे के मार्ग को लेकर संभ्रम की ही स्थिति है. शिवसेना ने कहा कि स्वतंत्र हिंदुस्तान में सरकार देसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना करके किसानों, मेहनतकश वर्ग को लाचार बना रही है.

किसानों को बातचीत में दिलचस्पी नहीं
शिवसेना ने आगे कहा कि दिल्ली में आंदोलनकारी किसान और केंद्र सरकार के बीच पांच दौर की चर्चा परिणाम रहित रही है. किसानों को सरकार के साथ चर्चा में बिल्कुल भी दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है. सरकार सिर्फ टाइमपास कर रही है और टाइमपास का उपयोग आंदोलन में फूट डालने के लिए किया जा रहा है.

किसान आंदोलनकारियों ने स्पष्ट कहा है कि 'कृषि कानून रद्द करोगे या नहीं? हां या ना, इतना ही कहो!' सरकार ने इस पर मौन साध रखा है. किसान दस दिनों से ठंड में बैठे हैं. सरकार ने किसानों के लिए चाय-पानी, भोजन का इंतजाम किया है. उसे नकारकर किसानों ने अपनी सख्ती को बरकरार रखा है.

देसी ईस्ट इंडिया कंपनी
देसी ईस्ट इंडिया कंपनी की यह शुरुआत है. ईस्ट इंडिया कंपनी यूरोप से आई और शासक बन गई. अब स्वतंत्र हिंदुस्तान में सरकार देसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना करके किसानों, मेहनतकश वर्ग को लाचार बना रही है. उस संभावित गुलामी के खिलाफ उठी यह आग है. परंतु स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए लड़नेवाले किसानों को खालिस्तानी और आतंकी ठहराकर मारा जा रहा होगा तो देश में असंतोष की आग भड़केगी.

भारतीय जनता पार्टी ने हैदराबाद महानगरपालिका में अच्छी सफलता हासिल की. भाजपा की सफलता के बाद गृहमंत्री अमित शाह ने तेलंगाना की जनता का आभार माना है. तेलंगाना की जनता ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में विश्वास दिखाया है, ऐसा शाह का मत है. सरकार चुनावी जीत-हार में संतुष्ट हो रही है और वहां दिल्ली की सीमा पर किसानों का घेरा उग्र होता जा रहा है. येन-केन-प्रकरेण समाज में जाति-धर्म के नाम पर फूट डालकर फिलहाल चुनाव जीतना आसान है. लेकिन दिल्ली की दहलीज पर पहुंच चुके किसानों की एकजुटता में फूट डालने में असमर्थ सरकार मुश्किलों में घिर गई है.

शिवसेना ने अपने मुखपत्र में कहा कि मूलरूप से किसानों को कह कौन रहा है, तो कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर. उनके हाथ में क्या है? तोमर कहते हैं, 'मोदी सरकार सत्ता में किसानों के हित के लिए ही काम कर रही है.'

मोदी-शाह के सिवा अन्य चेहरे निष्तेज
तोमर ऐसा भी कहते हैं कि, 'एमएचपी; जारी ही रहेगी. किसान चिंता न करें.' परंतु तोमर का बोलना व डोलना निष्फल सिद्ध हो रहा है. सरकार में चुनाव जीतने, जिताने, जीत खरीदनेवाले लोग हैं. परंतु किसानों पर आए आसमानी-सुल्तान संकट, बेरोजगारी ऐसी चुनौतियों से दो-दो हाथ करनेवाले विशेषज्ञों की सरकार में कमी है. मोदी व शाह इन दो मोहरों को छोड़ दें, तो मंत्रिमंडल के अन्य सभी चेहरे निष्तेज हैं. उनकी व्यर्थ भागदौड़ का महत्व नहीं है.

किसानों को कोई लाभ नहीं
एक समय सरकार में प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे संकटमोचक थे. किसी संकटकाल में सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत से इनमें से कोई भी आगे गया तो उनसे चर्चा होती थी व समस्या हल होती थी. आज सरकार में ऐसा एक भी चेहरा नजर नहीं आता है. इसलिए चर्चा का पांच-पांच दौर नाकाम सिद्ध हो रहा है. जल्दबाजी में मंजूर कराए गए कृषि कानून को लेकर देश भर में संताप है. कृषि कानून का लाभ किसानों को बिल्कुल भी नहीं है.

कॉर्पोरेट कल्चर को मिल रहा बढ़ावा
सरकार कृषि को उद्योगपतियों का निवाला बना रही है. हमें कार्पोरेट फॉर्मिंग नहीं करनी है इसीलिए ये कानून वापस लो, ऐसा किसान कहते हैं. मोदी सरकार आने के बाद से ‘कार्पोरेट कल्चर’ बढ़ा है, ये सत्य ही है. परंतु हवाई अड्डे, सरकारी उपक्रम दो-चार उद्योगपतियों की जेब में तय करके डाले जा रहे हैं. अब किसानों की जमीन भी उद्योगपतियों के पास जाएगी. अर्थात एक तरह से पूरे देश का ही निजीकरण करके प्रधानमंत्री वगैरह ‘सीईओ’ के तौर पर काम करेंगे.

इस असंतोष की चिंगारी अब उड़ने लगी है. किसान संगठनों ने आठ दिसंबर को 'हिंदुस्तान बंद' का आह्वान किया है. यह बंद जोरदार हो, ऐसी तैयारी चल रही है. इससे पहले वर्ष १९७४ में जॉर्ज फर्नांडिस के आह्वान पर किए गए रेलवे बंद से पूरे देश की राजनीति बदल गई थी. रेलवे की हड़ताल से पूरा देश ठप हो गया. ‘चक्का जाम’ यह शब्द इसी आंदोलन से उदित हुआ. यह चक्का जाम ८ मई से १५ मई, १९७४ तक चला. पूरे देश में सरकार विरोधी आंदोलन तैयार हुआ.

यह भी पढ़ें : किसानों के मन की बात सुने सरकार, वापस ले 'काले कानून' : राहुल गांधी

सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी भी दहल गईं व बाद में देश में कई राजनैतिक परिवर्तन हुए. दिल्ली की सीमा पर किसानों का आंदोलन जॉर्ज के ‘चक्का जाम’ आंदोलन की दिशा में ही जा रहा है. आठ दिसंबर को यह देशव्यापी बंद सफल हुआ तो मोदी सरकार के लिए यह किसानों की नोटिस सिद्ध होगी. आश्चर्य की बात ये है कि आंदोलनकारी किसानों का कोई मजबूत सर्वशक्तिमान नेता नहीं है. उनमें कोई सरदार पटेल नहीं है, जयप्रकाश नारायण नहीं या चंद्रशेखर नहीं. परंतु कई संगठनों की गांठ फिर भी मजबूती से बांधी गई और उसमें से एक भी गांठ सरकार खोल नहीं पाई. यही आंदोलन का यश है.

संसद भवन को घेरने की तैयारी कर रहे किसान
दिल्ली की सीमा पर पहुंचा हर किसान नेता ही है, ऐसा माहौल हुआ तब राजसत्ता आंदोलनकारियों का कुछ भी बांका नहीं कर सकती. सरकार अब प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर किसानों की आवाज न दबाए. जनता भड़क जाती है और अनियंत्रित हो जाती है तब बहुमत की सरकारें भी डगमगाकर गिर जाती हैं तथा बलवान समझा जानेवाला नेतृत्व उड़ जाता है. किसानों ने तय किया है कि अब पीछे नहीं. किसान अब दिल्ली में घुसकर संसद भवन को घेरने की तैयारी कर रहे हैं. मतलब 10 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी नए संसद भवन के भूमिपूजन का मुहूर्त करेंगे व उसी समय पुराने ऐतिहासिक संसद भवन पर पहुंचने की तैयारी कर रहे किसानों पर सरकार आंसू गैस और बंदूक चलाएगी.

पढ़ें : किसान आंदोलन : अखिलेश यादव हिरासत में लिए गए

बिगड़ती जा रही परिस्थिति
पेट के लिए सड़क पर उतरे लोगों पर गोली बरसाना अथवा उन्हें पैरों तले रौंदना यह उद्दंडता सिद्ध होगी. अर्थात यह कृति सरकार के अंत की शुरुआत सिद्ध होगी. किसानों को आंदोलन करने का अधिकार है. उसी अधिकार से वे दिल्ली में दृढ़ता के साथ आंदोलन कर रहे हैं. उन्हें जो कृषि कानून जुल्मी लग रहा है उसे वापस लेने में सरकार को भी हिचकिचाने की कोई वजह नहीं है. कदाचित यह मन का बड़प्पन सिद्ध होगा. सरकार के आदेशानुसार किसानों से चर्चा करनेवालों को इसका भान नहीं है. प्रकाश सिंह बादल, शरद पवार जैसे मान्यवर किसान नेताओं से चर्चा करने का प्रयास इस कठिन काल में किया होता, तो आज की यह गुत्थी थोड़ी आसान हो गई होती. आज परिस्थिति बिगड़ती जा रही है यह सरकार के ही कर्मों का फल है.

मुंबई : शिवसेना अपने मुखपत्र 'सामना' के जरिए केंद्र की मोदी सरकार पर लगातार हमलावर रहती है. इस बार शिवसेना ने 'सामना' के संपादकीय लेख के जरिए किसान आंदोलन को लेकर पीएम मोदी को फिर घेरा है. शिवसेना ने कहा कि दिल्ली में किसान आंदोलन आज ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि आगे के मार्ग को लेकर संभ्रम की ही स्थिति है. शिवसेना ने कहा कि स्वतंत्र हिंदुस्तान में सरकार देसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना करके किसानों, मेहनतकश वर्ग को लाचार बना रही है.

किसानों को बातचीत में दिलचस्पी नहीं
शिवसेना ने आगे कहा कि दिल्ली में आंदोलनकारी किसान और केंद्र सरकार के बीच पांच दौर की चर्चा परिणाम रहित रही है. किसानों को सरकार के साथ चर्चा में बिल्कुल भी दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है. सरकार सिर्फ टाइमपास कर रही है और टाइमपास का उपयोग आंदोलन में फूट डालने के लिए किया जा रहा है.

किसान आंदोलनकारियों ने स्पष्ट कहा है कि 'कृषि कानून रद्द करोगे या नहीं? हां या ना, इतना ही कहो!' सरकार ने इस पर मौन साध रखा है. किसान दस दिनों से ठंड में बैठे हैं. सरकार ने किसानों के लिए चाय-पानी, भोजन का इंतजाम किया है. उसे नकारकर किसानों ने अपनी सख्ती को बरकरार रखा है.

देसी ईस्ट इंडिया कंपनी
देसी ईस्ट इंडिया कंपनी की यह शुरुआत है. ईस्ट इंडिया कंपनी यूरोप से आई और शासक बन गई. अब स्वतंत्र हिंदुस्तान में सरकार देसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना करके किसानों, मेहनतकश वर्ग को लाचार बना रही है. उस संभावित गुलामी के खिलाफ उठी यह आग है. परंतु स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए लड़नेवाले किसानों को खालिस्तानी और आतंकी ठहराकर मारा जा रहा होगा तो देश में असंतोष की आग भड़केगी.

भारतीय जनता पार्टी ने हैदराबाद महानगरपालिका में अच्छी सफलता हासिल की. भाजपा की सफलता के बाद गृहमंत्री अमित शाह ने तेलंगाना की जनता का आभार माना है. तेलंगाना की जनता ने प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में विश्वास दिखाया है, ऐसा शाह का मत है. सरकार चुनावी जीत-हार में संतुष्ट हो रही है और वहां दिल्ली की सीमा पर किसानों का घेरा उग्र होता जा रहा है. येन-केन-प्रकरेण समाज में जाति-धर्म के नाम पर फूट डालकर फिलहाल चुनाव जीतना आसान है. लेकिन दिल्ली की दहलीज पर पहुंच चुके किसानों की एकजुटता में फूट डालने में असमर्थ सरकार मुश्किलों में घिर गई है.

शिवसेना ने अपने मुखपत्र में कहा कि मूलरूप से किसानों को कह कौन रहा है, तो कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर. उनके हाथ में क्या है? तोमर कहते हैं, 'मोदी सरकार सत्ता में किसानों के हित के लिए ही काम कर रही है.'

मोदी-शाह के सिवा अन्य चेहरे निष्तेज
तोमर ऐसा भी कहते हैं कि, 'एमएचपी; जारी ही रहेगी. किसान चिंता न करें.' परंतु तोमर का बोलना व डोलना निष्फल सिद्ध हो रहा है. सरकार में चुनाव जीतने, जिताने, जीत खरीदनेवाले लोग हैं. परंतु किसानों पर आए आसमानी-सुल्तान संकट, बेरोजगारी ऐसी चुनौतियों से दो-दो हाथ करनेवाले विशेषज्ञों की सरकार में कमी है. मोदी व शाह इन दो मोहरों को छोड़ दें, तो मंत्रिमंडल के अन्य सभी चेहरे निष्तेज हैं. उनकी व्यर्थ भागदौड़ का महत्व नहीं है.

किसानों को कोई लाभ नहीं
एक समय सरकार में प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज ऐसे संकटमोचक थे. किसी संकटकाल में सरकार के प्रतिनिधि की हैसियत से इनमें से कोई भी आगे गया तो उनसे चर्चा होती थी व समस्या हल होती थी. आज सरकार में ऐसा एक भी चेहरा नजर नहीं आता है. इसलिए चर्चा का पांच-पांच दौर नाकाम सिद्ध हो रहा है. जल्दबाजी में मंजूर कराए गए कृषि कानून को लेकर देश भर में संताप है. कृषि कानून का लाभ किसानों को बिल्कुल भी नहीं है.

कॉर्पोरेट कल्चर को मिल रहा बढ़ावा
सरकार कृषि को उद्योगपतियों का निवाला बना रही है. हमें कार्पोरेट फॉर्मिंग नहीं करनी है इसीलिए ये कानून वापस लो, ऐसा किसान कहते हैं. मोदी सरकार आने के बाद से ‘कार्पोरेट कल्चर’ बढ़ा है, ये सत्य ही है. परंतु हवाई अड्डे, सरकारी उपक्रम दो-चार उद्योगपतियों की जेब में तय करके डाले जा रहे हैं. अब किसानों की जमीन भी उद्योगपतियों के पास जाएगी. अर्थात एक तरह से पूरे देश का ही निजीकरण करके प्रधानमंत्री वगैरह ‘सीईओ’ के तौर पर काम करेंगे.

इस असंतोष की चिंगारी अब उड़ने लगी है. किसान संगठनों ने आठ दिसंबर को 'हिंदुस्तान बंद' का आह्वान किया है. यह बंद जोरदार हो, ऐसी तैयारी चल रही है. इससे पहले वर्ष १९७४ में जॉर्ज फर्नांडिस के आह्वान पर किए गए रेलवे बंद से पूरे देश की राजनीति बदल गई थी. रेलवे की हड़ताल से पूरा देश ठप हो गया. ‘चक्का जाम’ यह शब्द इसी आंदोलन से उदित हुआ. यह चक्का जाम ८ मई से १५ मई, १९७४ तक चला. पूरे देश में सरकार विरोधी आंदोलन तैयार हुआ.

यह भी पढ़ें : किसानों के मन की बात सुने सरकार, वापस ले 'काले कानून' : राहुल गांधी

सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी भी दहल गईं व बाद में देश में कई राजनैतिक परिवर्तन हुए. दिल्ली की सीमा पर किसानों का आंदोलन जॉर्ज के ‘चक्का जाम’ आंदोलन की दिशा में ही जा रहा है. आठ दिसंबर को यह देशव्यापी बंद सफल हुआ तो मोदी सरकार के लिए यह किसानों की नोटिस सिद्ध होगी. आश्चर्य की बात ये है कि आंदोलनकारी किसानों का कोई मजबूत सर्वशक्तिमान नेता नहीं है. उनमें कोई सरदार पटेल नहीं है, जयप्रकाश नारायण नहीं या चंद्रशेखर नहीं. परंतु कई संगठनों की गांठ फिर भी मजबूती से बांधी गई और उसमें से एक भी गांठ सरकार खोल नहीं पाई. यही आंदोलन का यश है.

संसद भवन को घेरने की तैयारी कर रहे किसान
दिल्ली की सीमा पर पहुंचा हर किसान नेता ही है, ऐसा माहौल हुआ तब राजसत्ता आंदोलनकारियों का कुछ भी बांका नहीं कर सकती. सरकार अब प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर किसानों की आवाज न दबाए. जनता भड़क जाती है और अनियंत्रित हो जाती है तब बहुमत की सरकारें भी डगमगाकर गिर जाती हैं तथा बलवान समझा जानेवाला नेतृत्व उड़ जाता है. किसानों ने तय किया है कि अब पीछे नहीं. किसान अब दिल्ली में घुसकर संसद भवन को घेरने की तैयारी कर रहे हैं. मतलब 10 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी नए संसद भवन के भूमिपूजन का मुहूर्त करेंगे व उसी समय पुराने ऐतिहासिक संसद भवन पर पहुंचने की तैयारी कर रहे किसानों पर सरकार आंसू गैस और बंदूक चलाएगी.

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बिगड़ती जा रही परिस्थिति
पेट के लिए सड़क पर उतरे लोगों पर गोली बरसाना अथवा उन्हें पैरों तले रौंदना यह उद्दंडता सिद्ध होगी. अर्थात यह कृति सरकार के अंत की शुरुआत सिद्ध होगी. किसानों को आंदोलन करने का अधिकार है. उसी अधिकार से वे दिल्ली में दृढ़ता के साथ आंदोलन कर रहे हैं. उन्हें जो कृषि कानून जुल्मी लग रहा है उसे वापस लेने में सरकार को भी हिचकिचाने की कोई वजह नहीं है. कदाचित यह मन का बड़प्पन सिद्ध होगा. सरकार के आदेशानुसार किसानों से चर्चा करनेवालों को इसका भान नहीं है. प्रकाश सिंह बादल, शरद पवार जैसे मान्यवर किसान नेताओं से चर्चा करने का प्रयास इस कठिन काल में किया होता, तो आज की यह गुत्थी थोड़ी आसान हो गई होती. आज परिस्थिति बिगड़ती जा रही है यह सरकार के ही कर्मों का फल है.

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