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राज्यसभा चुनाव : सत्ता के लालच में दम तोड़ती लोकतंत्र की मूल अवधारणा

आज देश में हार्स ट्रेडिंग यानी विधायकोंं की खरीद-फरोख्त राजनीतिक पार्टियों के लिए आम बात हो गई है. कांग्रेस द्वारा पैदा किए कुप्रशासन को खत्म करने आई भाजपा भी आज विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सरकारें गिराने में लगी हुई है. ऐसे में संविधान मात्र एक विक्रय की वस्तु बन कर रह गया है. पढ़ें विस्तार से...

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सांकेतिक चित्र
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Published : Jun 17, 2020, 2:12 PM IST

जॉर्ज बर्नार्ड की कहावत- 'राजनीति बदमाशों और लुटेरों के लिए अंतिम उपाय है'- आज की राजनीतिक स्थिति देखते हुए पुरानी लगती है. इस कहावत की सच्चाई बार-बार साबित होती रही है, जब देश के प्रमुख राजनीतिक फैसले राजनीति का खेल खेलने वाले भ्रष्ट राजनेताओं से प्रभावित हुए हैं.

जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 के अनुच्छेद 29 में कहा गया है कि सभी राजनीतिक दलों को भारत के संविधान का पालन करना चाहिए. सार्वजनिक क्षेत्र की अधिकतर सीटें जीतने वाली पार्टियों को संवैधानिक रूप से शासन करने की शपथ लेनी चाहिए.

राज्यसभा चुनाव के दौरान वफादारी और संवैधानिकता दोनों को ताक पर रख दिया गया है. लोकतंत्र सचमुच आज बाजार में विक्रय की एक वस्तु बन कर रह गया है.

गुजरात और राजस्थान का नवीनतम राजनीतिक परिदृश्य एक बार फिर वही साबित कर रहा है, जहां बड़े स्तर पर विधायकों की खरीद-फरोख्त की खबरें आ रही हैं.

लगभग 24 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था, 'हम सत्ता में बने रहने के लिए भ्रष्टाचार और अनैतिक प्रथाओं का सहारा नहीं लेंगे. हम अधिकार हासिल करने के मामले में अपनी आत्माओं को बेचने या उन्हें गिरवी रखने का इरादा नहीं रखते हैं.'

कुछ मौकों पर दुखी वाजपेयी ने कहा था, 'हालांकि हम दशकों से एक ईमानदार राजनीतिक गेम खेल रहे हैं, लेकिन हम क्या कर सकते हैं, अगर हमारे विरोधी अब भी चालाकी से खेल खेल रहे हैं?'

वाजपेयी और आडवाणी द्वारा कमल सेना (लोटस आर्मी) को एक अलग पार्टी के रूप में स्थापित करने के लिए किए गए श्रमसाध्य प्रयास अतुलनीय है. हालांकि जैसे-जैसे राजनीति पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ी, वैसै-वैसे समझौतावादी राजनीतिक रणनीतियों ने राजनीति के क्षेत्र में प्राथमिकता लेना शुरू कर दिया.

दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी, भाजपा लगभग 12 राज्यों में सर्वाधिक सदस्यता के आधार पर प्राथमिक पार्टी के रूप में उभरी है और मजबूत सहयोग के साथ अन्य छह राज्यों में भी सत्ता के केंद्र में है.

पढ़ें : सावधानी के साथ कराए जाएं राज्यसभा चुनाव : चुनाव आयोग

कांग्रेस खुद चार राज्यों में सत्ता में है और दो अन्य यूपीए सहयोगी देश के अन्य दो राज्यों में जहाजों को चला रहे हैं. हालांकि एआईडीएमके, टीआरएस, वाईएसआरसीपी, बीजेडी, तृणमूल कांग्रेस और कम्युनिस्ट (वामपंथी) पार्टियों ने छह राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन बिना मजबूत विपक्ष के लोकतंत्र की स्थिति डिगी हुई है.

अभियुक्तों को इसके लिए दोषी ठहराए बिना बड़ी लाइन को एक छोटी और इसके विपरीत के रूप में दिखाकर बहुमत का भ्रम पैदा करने की चालाक रणनीति इन दिनों बढ़ रही है. यह जनता की राय को प्रभावित कर रहा है क्योंकि पहले ऐसा कर्नाटक राज्य में हुआ था और हाल ही में मध्य प्रदेश राज्य में इसी प्रकार सत्ता पलट हुआ. अब गुजरात और राजस्थान राज्यों में कुछ ऐसा ही परिदृश्य देखा जा रहा है.

चूंकि राज्यसभा चुनाव में विधायक ही मतदाता होते हैं, इससे प्रत्येक सीट पर जीतने वाली पार्टी का अनुमान काफी आसानी से लगाया जा सकता है. 24 राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव 19 मई, 2020 को होने वाले थे. हालांकि कोरोना वायरस महमारी की वजह से 18 सीटों के चुनाव की तारीख आगे बढ़ानी पड़ी.

मुख्यमंत्री की सीट, पीसीसी सीट और यहां तक की राज्यसभा की सीट नहीं मिलने से आहत होकर, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने चालाकी का परिचय दिया और अपनी मूल पार्टी, कांग्रेस को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. इसकी वजह से शिवराज सरकार मध्य प्रदेश में सत्ता में आ गई.

कांग्रेस ने 2017 के चुनावों में हालांकि 77 सीटें जीतीं, लेकिन आज इस तरह के आवधिक इस्तीफों के परिणामस्वरूप सिर्फ 65 सीटें बचीं हैं. हाल ही में इस्तीफों का लक्ष्य कांग्रेस की पहले दो राज्यसभा सीटों पर 68 वोटों की संख्या की संभावना को कम करना है.

पढ़ें : राज्यसभा चुनाव : भाजपा के खिलाफ कांग्रेस चुनाव आयोग से संपर्क करेगी

हालांकि कांग्रेस ने अन्य पार्टी प्रलोभनों से उत्पन्न होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों से पार्टी के बाकी कबीले को बचाने की योजना बनाई है और अपने विधायकों को राजस्थान में एक रिसॉर्ट में स्थानांतरित कर दिया है. जिन राजनीतिक रणनीतियों को कांग्रेस के लोग अपना रहे हैं, वे काफी हद तक सही चालाक और मनोरंजक हैं.

उसके बावजूद यदि नागरिकों/मतदाताओं ने एक ही पार्टी द्वारा फिर से शासित होने का चुनाव किया है, तो ऐसे राज्यों में कांग्रेस पार्टी को नीचे लाना सही है, जो विरोधी विधायकों को रणनीतिक लालच देकर किया जा रहा है. क्या इसे ऐसे राज्यों में लोकतंत्र की जड़ काटने जैसा नहीं माना जाएगा?

अगर विधायक के प्रलोभन की आग को ठंडा करने के लिए उसे राजस्थान ले जाया जाता है तो कांग्रेस सरकार की राजनीति में उबाल आने वाला है. यदि भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में कहा कि वह कांग्रेस-मुक्त भारत के लिए लक्ष्य बना रही है तो यह समझा जा सकता है कि वह अपने पहले के शासनकाल में कांग्रेस सरकार की भ्रष्ट प्रशासनिक प्रथाओं का प्रदर्शन करने की कोशिश कर रही थी.

चुनाव किसी भी प्रकार का हो, पार्टी का प्रत्येक सदस्य पार्टी हितों को बाधित करने में शामिल है. पार्टी के जनादेश का पालन नहीं करते हुए क्रॉस-वोटिंग की बात कोई नई नहीं है और पिछली तीन पीढ़ियों से, विशेषकर हमारे राष्ट्र में, लगभग एक शातिर आदर्श रहा है.

चुनाव के प्रकार को अनदेखा करते हुए, पार्टी के प्रत्येक सदस्य पार्टी के हितों को बाधित करने में शामिल है. पार्टी के जनादेश का पालन नहीं करते हुए क्रॉस-वोटिंग कोई नई बात नहीं है और पिछली तीन पीढ़ियों से, विशेषकर हमारे राष्ट्र में, लगभग एक शातिर आदर्श रहा है.

पढ़ें : राज्यसभा चुनाव : गहलोत ने फिर दोहराया, मेरे पास है खरीद-फरोख्त की जानकारी

वर्ष 1988 में यह अफवाह उड़ी थी और तत्कालीन विपक्षी नेता ने यह भी दावा किया था कि जनता पार्टी के नेताओं ने क्रॉस वोटिंग करने के लिए अपनी पार्टी के दो सदस्यों को 75,000 रुपये का लालच दिया था. बाद में लोकसभा अध्यक्ष ने निर्देश दिया कि आरोप के खिलाफ 1,50,000 रुपये सरकारी कोष में जमा किए जाएं.

जून 1992 में बिहार के राज्यसभा चुनावों के दौरान जांच टीम ने खुलासा किया था कि अनियमितता उच्च दर से हो रही थी, जिसके जवाब तत्कालीन चुनाव आयोग ने तुरंत चुनाव रद्द करके जवाब दिया था.

कई सांसदों ने स्वीकार किया कि राज्यसभा की एक सीट पर लगभग 100 करोड़ रुपये का खर्च आता है. इससे राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में गहरा राजनीतिक जहर फैलने का दौर सामने आ रहा है.

विडंबना यह है कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने ही राज्यसभा चुनाव में खुली वोटिंग की प्रक्रिया शुरू की थी, जिसे क्रॉस-वोटिंग के निशान को समाप्त करने का साधन बताया गया था. और आज वही पार्टी विपक्षी विधायकों को अपनी पार्टी से इस्तीफे सौंपने की आड़ में अपनी पार्टी को दोष देने के लिए लालच दे रही है, जिस पर बहुमत का संतुलन निर्भर है और जिससे भाजपा का फायदा है. इसे राजनीति में निश्चित रूप से अलोकतांत्रिक कहा जा सकता है.

कमल के चुनाव चिह्न वाली पार्टी ने कांग्रेस के एक विकल्प के रूप में जन्म लिया है, जिसे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आंशिक निर्णयों के माध्यम से व्यवस्थित रूप से नष्ट कर दिया गया है.

पार्टी के शुरुआती चरण के दौरान वाजपेयी ने स्वयं घोषणा की थी सत्ता आधारित राजनीति को आदर्श राजनीति, अवसरवादी राजनीति को वैचारिक राजनीति में और कुटिल राजनीति को वास्तविक राजनीति में बदलना है. इसमें कोई संदेह नहीं कि कमल दल (भाजपा) आज भी उन आदर्शों को व्यवहार में लाने की क्षमता रखती है.

जब भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ने राष्ट्र की प्रगति पर अपनी ग्रहण छाया डाली थी, तब देश को अपनी राजनीतिक विचारधाराओं और ऐसी गैर नैतिक राजनीति की समस्या से लड़ते हुए उज्जवल भविष्य में वापस लाना भाजपा का काम था. अनैतिक राजनीति ’महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सात महा पापों में एक है.

जैसा कि टी.एन. शेषन ने दावा किया था कि अगर चुनावी व्यवस्था दुनिया के दस महा पापों में फंस जाती है तो इसे तभी मुक्त किया जा सकता है, जब भाजपा जैसी वैचारिक पार्टी, जो देश की राजनीति को शुद्ध करने में सक्षम है, आगे आए और मूल्यों और व्यापक विकास के लिए संघर्ष करे.

यदि भाजपा जैसी पार्टी सत्ता-लालच के आगे झुक जाती है तो वह दूसरों से अलग कैसे हो सकती है? ऐसे में देश में लोकतंत्र का क्या हश्र हो सकता है?

जॉर्ज बर्नार्ड की कहावत- 'राजनीति बदमाशों और लुटेरों के लिए अंतिम उपाय है'- आज की राजनीतिक स्थिति देखते हुए पुरानी लगती है. इस कहावत की सच्चाई बार-बार साबित होती रही है, जब देश के प्रमुख राजनीतिक फैसले राजनीति का खेल खेलने वाले भ्रष्ट राजनेताओं से प्रभावित हुए हैं.

जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 के अनुच्छेद 29 में कहा गया है कि सभी राजनीतिक दलों को भारत के संविधान का पालन करना चाहिए. सार्वजनिक क्षेत्र की अधिकतर सीटें जीतने वाली पार्टियों को संवैधानिक रूप से शासन करने की शपथ लेनी चाहिए.

राज्यसभा चुनाव के दौरान वफादारी और संवैधानिकता दोनों को ताक पर रख दिया गया है. लोकतंत्र सचमुच आज बाजार में विक्रय की एक वस्तु बन कर रह गया है.

गुजरात और राजस्थान का नवीनतम राजनीतिक परिदृश्य एक बार फिर वही साबित कर रहा है, जहां बड़े स्तर पर विधायकों की खरीद-फरोख्त की खबरें आ रही हैं.

लगभग 24 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था, 'हम सत्ता में बने रहने के लिए भ्रष्टाचार और अनैतिक प्रथाओं का सहारा नहीं लेंगे. हम अधिकार हासिल करने के मामले में अपनी आत्माओं को बेचने या उन्हें गिरवी रखने का इरादा नहीं रखते हैं.'

कुछ मौकों पर दुखी वाजपेयी ने कहा था, 'हालांकि हम दशकों से एक ईमानदार राजनीतिक गेम खेल रहे हैं, लेकिन हम क्या कर सकते हैं, अगर हमारे विरोधी अब भी चालाकी से खेल खेल रहे हैं?'

वाजपेयी और आडवाणी द्वारा कमल सेना (लोटस आर्मी) को एक अलग पार्टी के रूप में स्थापित करने के लिए किए गए श्रमसाध्य प्रयास अतुलनीय है. हालांकि जैसे-जैसे राजनीति पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ी, वैसै-वैसे समझौतावादी राजनीतिक रणनीतियों ने राजनीति के क्षेत्र में प्राथमिकता लेना शुरू कर दिया.

दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी, भाजपा लगभग 12 राज्यों में सर्वाधिक सदस्यता के आधार पर प्राथमिक पार्टी के रूप में उभरी है और मजबूत सहयोग के साथ अन्य छह राज्यों में भी सत्ता के केंद्र में है.

पढ़ें : सावधानी के साथ कराए जाएं राज्यसभा चुनाव : चुनाव आयोग

कांग्रेस खुद चार राज्यों में सत्ता में है और दो अन्य यूपीए सहयोगी देश के अन्य दो राज्यों में जहाजों को चला रहे हैं. हालांकि एआईडीएमके, टीआरएस, वाईएसआरसीपी, बीजेडी, तृणमूल कांग्रेस और कम्युनिस्ट (वामपंथी) पार्टियों ने छह राज्यों में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन बिना मजबूत विपक्ष के लोकतंत्र की स्थिति डिगी हुई है.

अभियुक्तों को इसके लिए दोषी ठहराए बिना बड़ी लाइन को एक छोटी और इसके विपरीत के रूप में दिखाकर बहुमत का भ्रम पैदा करने की चालाक रणनीति इन दिनों बढ़ रही है. यह जनता की राय को प्रभावित कर रहा है क्योंकि पहले ऐसा कर्नाटक राज्य में हुआ था और हाल ही में मध्य प्रदेश राज्य में इसी प्रकार सत्ता पलट हुआ. अब गुजरात और राजस्थान राज्यों में कुछ ऐसा ही परिदृश्य देखा जा रहा है.

चूंकि राज्यसभा चुनाव में विधायक ही मतदाता होते हैं, इससे प्रत्येक सीट पर जीतने वाली पार्टी का अनुमान काफी आसानी से लगाया जा सकता है. 24 राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव 19 मई, 2020 को होने वाले थे. हालांकि कोरोना वायरस महमारी की वजह से 18 सीटों के चुनाव की तारीख आगे बढ़ानी पड़ी.

मुख्यमंत्री की सीट, पीसीसी सीट और यहां तक की राज्यसभा की सीट नहीं मिलने से आहत होकर, ज्योतिरादित्य सिंधिया ने चालाकी का परिचय दिया और अपनी मूल पार्टी, कांग्रेस को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. इसकी वजह से शिवराज सरकार मध्य प्रदेश में सत्ता में आ गई.

कांग्रेस ने 2017 के चुनावों में हालांकि 77 सीटें जीतीं, लेकिन आज इस तरह के आवधिक इस्तीफों के परिणामस्वरूप सिर्फ 65 सीटें बचीं हैं. हाल ही में इस्तीफों का लक्ष्य कांग्रेस की पहले दो राज्यसभा सीटों पर 68 वोटों की संख्या की संभावना को कम करना है.

पढ़ें : राज्यसभा चुनाव : भाजपा के खिलाफ कांग्रेस चुनाव आयोग से संपर्क करेगी

हालांकि कांग्रेस ने अन्य पार्टी प्रलोभनों से उत्पन्न होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों से पार्टी के बाकी कबीले को बचाने की योजना बनाई है और अपने विधायकों को राजस्थान में एक रिसॉर्ट में स्थानांतरित कर दिया है. जिन राजनीतिक रणनीतियों को कांग्रेस के लोग अपना रहे हैं, वे काफी हद तक सही चालाक और मनोरंजक हैं.

उसके बावजूद यदि नागरिकों/मतदाताओं ने एक ही पार्टी द्वारा फिर से शासित होने का चुनाव किया है, तो ऐसे राज्यों में कांग्रेस पार्टी को नीचे लाना सही है, जो विरोधी विधायकों को रणनीतिक लालच देकर किया जा रहा है. क्या इसे ऐसे राज्यों में लोकतंत्र की जड़ काटने जैसा नहीं माना जाएगा?

अगर विधायक के प्रलोभन की आग को ठंडा करने के लिए उसे राजस्थान ले जाया जाता है तो कांग्रेस सरकार की राजनीति में उबाल आने वाला है. यदि भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार में कहा कि वह कांग्रेस-मुक्त भारत के लिए लक्ष्य बना रही है तो यह समझा जा सकता है कि वह अपने पहले के शासनकाल में कांग्रेस सरकार की भ्रष्ट प्रशासनिक प्रथाओं का प्रदर्शन करने की कोशिश कर रही थी.

चुनाव किसी भी प्रकार का हो, पार्टी का प्रत्येक सदस्य पार्टी हितों को बाधित करने में शामिल है. पार्टी के जनादेश का पालन नहीं करते हुए क्रॉस-वोटिंग की बात कोई नई नहीं है और पिछली तीन पीढ़ियों से, विशेषकर हमारे राष्ट्र में, लगभग एक शातिर आदर्श रहा है.

चुनाव के प्रकार को अनदेखा करते हुए, पार्टी के प्रत्येक सदस्य पार्टी के हितों को बाधित करने में शामिल है. पार्टी के जनादेश का पालन नहीं करते हुए क्रॉस-वोटिंग कोई नई बात नहीं है और पिछली तीन पीढ़ियों से, विशेषकर हमारे राष्ट्र में, लगभग एक शातिर आदर्श रहा है.

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वर्ष 1988 में यह अफवाह उड़ी थी और तत्कालीन विपक्षी नेता ने यह भी दावा किया था कि जनता पार्टी के नेताओं ने क्रॉस वोटिंग करने के लिए अपनी पार्टी के दो सदस्यों को 75,000 रुपये का लालच दिया था. बाद में लोकसभा अध्यक्ष ने निर्देश दिया कि आरोप के खिलाफ 1,50,000 रुपये सरकारी कोष में जमा किए जाएं.

जून 1992 में बिहार के राज्यसभा चुनावों के दौरान जांच टीम ने खुलासा किया था कि अनियमितता उच्च दर से हो रही थी, जिसके जवाब तत्कालीन चुनाव आयोग ने तुरंत चुनाव रद्द करके जवाब दिया था.

कई सांसदों ने स्वीकार किया कि राज्यसभा की एक सीट पर लगभग 100 करोड़ रुपये का खर्च आता है. इससे राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में गहरा राजनीतिक जहर फैलने का दौर सामने आ रहा है.

विडंबना यह है कि वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने ही राज्यसभा चुनाव में खुली वोटिंग की प्रक्रिया शुरू की थी, जिसे क्रॉस-वोटिंग के निशान को समाप्त करने का साधन बताया गया था. और आज वही पार्टी विपक्षी विधायकों को अपनी पार्टी से इस्तीफे सौंपने की आड़ में अपनी पार्टी को दोष देने के लिए लालच दे रही है, जिस पर बहुमत का संतुलन निर्भर है और जिससे भाजपा का फायदा है. इसे राजनीति में निश्चित रूप से अलोकतांत्रिक कहा जा सकता है.

कमल के चुनाव चिह्न वाली पार्टी ने कांग्रेस के एक विकल्प के रूप में जन्म लिया है, जिसे भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आंशिक निर्णयों के माध्यम से व्यवस्थित रूप से नष्ट कर दिया गया है.

पार्टी के शुरुआती चरण के दौरान वाजपेयी ने स्वयं घोषणा की थी सत्ता आधारित राजनीति को आदर्श राजनीति, अवसरवादी राजनीति को वैचारिक राजनीति में और कुटिल राजनीति को वास्तविक राजनीति में बदलना है. इसमें कोई संदेह नहीं कि कमल दल (भाजपा) आज भी उन आदर्शों को व्यवहार में लाने की क्षमता रखती है.

जब भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ने राष्ट्र की प्रगति पर अपनी ग्रहण छाया डाली थी, तब देश को अपनी राजनीतिक विचारधाराओं और ऐसी गैर नैतिक राजनीति की समस्या से लड़ते हुए उज्जवल भविष्य में वापस लाना भाजपा का काम था. अनैतिक राजनीति ’महात्मा गांधी द्वारा बताए गए सात महा पापों में एक है.

जैसा कि टी.एन. शेषन ने दावा किया था कि अगर चुनावी व्यवस्था दुनिया के दस महा पापों में फंस जाती है तो इसे तभी मुक्त किया जा सकता है, जब भाजपा जैसी वैचारिक पार्टी, जो देश की राजनीति को शुद्ध करने में सक्षम है, आगे आए और मूल्यों और व्यापक विकास के लिए संघर्ष करे.

यदि भाजपा जैसी पार्टी सत्ता-लालच के आगे झुक जाती है तो वह दूसरों से अलग कैसे हो सकती है? ऐसे में देश में लोकतंत्र का क्या हश्र हो सकता है?

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