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कण प्रदूषण की ऊंची दर भारत को 'अस्वास्थ्यकर क्षेत्र' बनने की ओर धकेल रही है

भारत में ज़्यादातर आबादी - न्यूनतम अपवादों के साथ - वायु-जनित सूक्ष्म कणों (पीएम) प्रदूषकों के खतरनाक मात्रा के संपर्क में है, जो डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) द्वारा बताई गई सामान्य सीमा से छह - सात गुना अधिक है.

कण प्रदूषण की ऊंची दर
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Published : Nov 22, 2019, 4:09 PM IST

भारत में ज़्यादातर आबादी - न्यूनतम अपवादों के साथ - वायु-जनित सूक्ष्म कणों (पीएम) प्रदूषकों के खतरनाक मात्रा के संपर्क में है, जो डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) द्वारा बताई गई सामान्य सीमा से छह - सात गुना अधिक है. ये प्रदूषक दो स्रोतों से निकलते हैं - ठोस ईंधन के उपयोग से घरेलू या घरेलू कण पदार्थ, और बाहरी या एम्बिएंट कण पदार्थ जैसे धूल, कालिख और अन्य रासायनिक उत्सर्जन से उत्पन्न ठोस और तरल कणों का मिश्रण है जो उद्योगों, निर्माण स्थलों वाहन, कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र, बायोमास और कृषि अपशिष्ट / अवशेषों को जलाना आदि से उत्पन्न होते हैं.

कण को उनके आकार या व्यास के आधार पर पीएम 2.5 से पीएम 10 के रूप में वर्गीकृत किया गया है. 2.5 माइक्रोन से कम और 10 माइक्रोन से कम आकार के कणों को क्रमशः पीएम 2.5 और पीएम 10 के रूप में नाम दिया गया है.

भारत में घातक कणों की एक खासियत होने के कारण संदेहात्मक अंतर है, जो कि यह रैंकिंग में पीएम 2.5 के तीसरे उच्चतम उत्सर्जक के रूप में परिलक्षित होता है. डब्ल्यूएचओ द्वारा स्थापित मानकों की सामान्य औसत 10μg/m³ की तुलना में, 2018 के दौरान भारत की हवा में वार्षिक औसत पीएम 2.5 के मुकाबले 2018 के दौरान हवा में 72.5μg/m³(माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) थी. बांग्लादेश 97.1μg/m3 होने के कारण उच्चतम उत्सर्जक रहा और पाकिस्तान 74.3μg/m³ होने पर दूसरे स्थान पर रहा.

वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) पैरामीटर के अनुसार, इस श्रेणी में आबादी के साथ 55.5-150.4μg/m³ के बीच के पीएम को 'अस्वस्थ' के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिससे दिल और फेफड़ों पर प्रतिकूल प्रभाव और अपवृद्धि की संभावना बढ़ जाती है. इस पैरामीटर के अनुसार, भारत के कई हिस्से, जिनमें पीएम 2.5 का संकेंद्रण 72μg/m से लेकर 135μg/m तक है, 'अस्वस्थ' क्षेत्र में होता हैं.

प्रदूषणकारी उद्योगों द्वारा अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी और कठोर नियमों और निगरानी की कमी और संबंधित अधिकारियों और प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के प्रथागत तरीके देश की बिगड़ती वायु गुणवत्ता के प्रमुख कारणों में से है. भारत का वायु-जनित कणिकीय पदार्थ और लगभग बिना किसी प्रतिफल के संकेंद्रण भयावह स्तर पर पहुंच गया है.

इस विवाद को प्रमाणित करने के लिए यहां कुछ और कड़वे सच हैं. विश्व के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में पच्चीस भारतीय शहर हैं जिनमें गुरुग्राम और गाजियाबाद शामिल हैं - 2018 के दौरान पहले और दूसरे स्थान पर - 135μg / m³ की औसत वार्षिक पीएम2.5 सांद्रता दर्ज किया गया जो सामान्य सीमा से 20 गुना अधिक है.

दिल्ली जो हमेशा खबरों में रहती है, वह 11वें स्थान पर थी जिसने 113.5μg / m का वार्षिक औसत दर्ज किया था. ये सभी शहर जो "अस्वास्थ्यकर" क्षेत्र में थे, उन्होंने वर्ष के दौरान "बहुत अस्वास्थ्यकर" स्तर दर्ज किए. अनिवार्य रूप से, वायु जनित कण की सांद्रता में ऐसी खतरनाक बढ़ोतरी अत्यंत घातक स्वास्थ्य खतरों की ओर इशारा करती है.

हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट (एचईआई) के सहयोग से इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा इस वर्ष प्रकाशित "स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर" नामक एक विशेष रिपोर्ट बताती है कि 2017 के दौरान दुनिया भर में वायु प्रदूषण लगातार मृत्यु और विकलांगता के शीर्ष पांच जोखिम कारकों में से एक रहा है. यह कुपोषण, शराब के उपयोग और शारीरिक निष्क्रियता जैसे कई बेहतर ज्ञात जोखिम कारकों की तुलना में अधिक मौतों के लिए जिम्मेदार है. हर साल, सड़क यातायात की चोटों या मलेरिया की तुलना में अधिक लोग वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारी से मर जाते हैं. पीएम 2.5 फेफड़े में गहराई तक प्रवेश करते हैं जिससे वायुकोशीय दीवार में जलन और नुक्सान पहुँचता है, और फलस्वरूप फेफड़े की कार्यक्षमता ख़त्म हो जाती है. अत्यंत सूक्ष्म कणों का आकार उन्हें फुफ्फुसीय उपकला और फेफड़ों-रक्त अवरोध को पार करने में सक्षम बनाता है. पीएम 2.5 से प्रदूषित वातावरण में साँस लेना हृदय रोग, गंभीर श्वसन रोगों, फेफड़ों के संक्रमण और कैंसर का एक प्रबल कारण हो सकता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण वैश्विक स्तर पर पांचवां उच्चतम मृत्यु दर कारक है और 2017 में लगभग 49 लाख लोगों की मृत्यु और 14.7 करोड़ लोगों के स्वस्थ जीवन से जुड़ा था.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण को वर्गीकृत किया है - जिसमें घरेलू और परिवेश के स्रोत शामिल हैं- गैर-संचारी रोगों के तौर पर यह एक गंभीर जोखिम के कारक के रूप में देखा जा रहा है, हृदय रोग से वयस्कों में मृत्यु जिसमें अनुमानित 25% हृदयघात से, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से 43% तक रोग और 29% फेफड़ों के कैंसर से हुई हैं.

वायु प्रदूषण, कुपोषण के बाद भारत में रोग भार में योगदान देने वाला दूसरा सबसे बड़ा खतरनाक कारक है, जिसका परिवेशीय कण प्रदूषण में हुई वृद्धि मुख्य कारण है. 2017 में ये दावा किया गया था कि परिवेशी कण पदार्थ और घरेलू वायु प्रदूषण के कारण दस लाख से अधिक जानें गयीं हैं. आईएचएमई द्वारा किए गए व्यापक शोध से परिलक्षित होता है कि सूक्ष्म कण में ज्यादा देर रहने से हानिकारक प्रभाव का सामना करना पड़ सकता है और इसके परिणामस्वरूप भारतीय आबादी को हृदय और श्वसन संबंधी रोगों हो जाते हैं.

विश्लेषण से संकेत मिलता है कि भारत में इन रोगों की घटनाओं का कारण परिवेश में और घरेलू सूक्ष्म कण हैं. प्रवणता का जोखिम दर भी इस बात कि तरफ इशारा करता है कि देश की बड़ी आबादी इन सूक्ष्म कणों का प्रभाव झेल रही है. सभी कारणों से होने वाली कुल मौतों में से 12% मौतों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्म कणों से प्रदूषित वातावरण है जो कि ठोस कणों से उपजे 7% परिवेशीय कण पदार्थ और 5% घरेलू प्रदूषक हैं. संयोग से, यह दर पिछले दो दशकों में लगभग स्थिर रही है, जिससे संकेत मिलता है कि कण पदार्थ का संकेद्रण के कारण ग्रहणक्षमता का जोखिम स्तर एक सा बना रहा है.

भारत में श्वसन संक्रमण की कुल घटनाओं में से लगभग 47% का श्रेय पीएम 2.5 को जाता है, जिसमें से 26% परिवेशीय सूक्ष्म कण और घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषक 21 प्रतिशत है.

हृदय रोगों से संबंधित रोग जोखिम दर के परिप्रेक्ष्य से, भारत में कुल इस्कीमिक हृदय रोगों की घटनाओं के 22.17% के लिए आंशिक रूप से कण प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया गया था जिसमें परिवेशी शूक्ष कणों से 13.88% और घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषण 8.29% था. क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) की घटना का 22.48% परिवेशी कण पदार्थ और 17.62% घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषण को जिम्मेदार माना गया था.

विश्लेषण से उभरने वाला एक महत्वपूर्ण सच यह है कि प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए लगाये गये नियंत्रण और रोकथाम के उपायों का कार्यान्वयन या तो बहुत कम हुआ है या उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. इसके विपरीत, कई शहरों में, प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है. इसका उत्कृष्ट उदाहरण दिल्ली है जहाँ सभी वाहनों में उत्प्रेरक कन्वर्टर और सीएनजी लगवाने जैसे उत्सर्जन को कम करने के उपाय लागू करने के बावजूद प्रदूषण के स्तर में निरंतर "अस्वस्थ" और "बहुत अस्वास्थ्यकर स्तर" पर बना हुआ है.

सिर्फ दिल्ली ही नहीं, देश भर में भी, उत्सर्जन मुक्त बीएस IV अनुपालन वाहनों की शुरूआत प्रदूषण को कम करने में एक सार्थक स्तर तक प्रभावी साबित नहीं हुई है. ज़हर उगलते पुराने वाहन बीएस IV वाहनों से कहीं ज्यादा मात्रा में हैं और वे वायु-जनित संदूषण की यथास्थिति बनी रहने का या बढ़ने का सबसे संभावित कारण हैं.

प्रदूषण कम करने के लिए उठाये गये क़दमों में सबसे बड़ा रोड़ा है औद्योगिक क्षेत्र द्वारा नियमों का अवहेलना करना. अधिकांश औद्योगिक प्रबंधन उत्सर्जन विनियमनों का उल्लंघन और अवज्ञा भयमुक्त होकर करते हैं. संचालन और रख-रखाव में शामिल अतिरिक्त लागतों के कारण वे प्रदूषण की रोकथाम के उपकरणों की स्थापना से संबंधित उपकरणों के उपयोग के खिलाफ हैं.

इन सभी कारकों के परिप्रेक्ष्य में, एक बड़ा सवाल यह है: क्या हम इस तरह के बिगड़ते कण से प्रदूषित माहौल में खतरों के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं? या, इस बढ़ते खतरे को कम करने का कोई समाधान है?

प्रदूषण के स्तर पर नियंत्रण और लगातार नज़र रखना केवल समाधान का एक हिस्सा है. उद्योगों द्वारा गैर-अनुपालन के लिए दंडात्मक उपायों को लागू करके, कोयला-बिजली संयंत्रों में नवीनतम ग्रिप गैस उपचार तकनीकों को स्थापित करके, पुराने वाहनों को चरणबद्ध तरीके से बंद करके अब तक कण पदार्थ प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता था.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संबंधित विनियामक प्राधिकरणों को न केवल प्रौद्योगिकियों बल्कि ज्ञान से लैस होना चाहिए ताकि वे इस उद्देश्य की उपलब्धि को सुविधाजनक बना सके. वे अन्य देशों द्वारा लागू किए जा रहे उपायों को अपनाकर हवा की गुणवत्ता को सांस ले पाने के स्तर पर लाने का प्रयत्न कर सकते हैं.

(लेखक- सत्यपाल मेनन)

भारत में ज़्यादातर आबादी - न्यूनतम अपवादों के साथ - वायु-जनित सूक्ष्म कणों (पीएम) प्रदूषकों के खतरनाक मात्रा के संपर्क में है, जो डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) द्वारा बताई गई सामान्य सीमा से छह - सात गुना अधिक है. ये प्रदूषक दो स्रोतों से निकलते हैं - ठोस ईंधन के उपयोग से घरेलू या घरेलू कण पदार्थ, और बाहरी या एम्बिएंट कण पदार्थ जैसे धूल, कालिख और अन्य रासायनिक उत्सर्जन से उत्पन्न ठोस और तरल कणों का मिश्रण है जो उद्योगों, निर्माण स्थलों वाहन, कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र, बायोमास और कृषि अपशिष्ट / अवशेषों को जलाना आदि से उत्पन्न होते हैं.

कण को उनके आकार या व्यास के आधार पर पीएम 2.5 से पीएम 10 के रूप में वर्गीकृत किया गया है. 2.5 माइक्रोन से कम और 10 माइक्रोन से कम आकार के कणों को क्रमशः पीएम 2.5 और पीएम 10 के रूप में नाम दिया गया है.

भारत में घातक कणों की एक खासियत होने के कारण संदेहात्मक अंतर है, जो कि यह रैंकिंग में पीएम 2.5 के तीसरे उच्चतम उत्सर्जक के रूप में परिलक्षित होता है. डब्ल्यूएचओ द्वारा स्थापित मानकों की सामान्य औसत 10μg/m³ की तुलना में, 2018 के दौरान भारत की हवा में वार्षिक औसत पीएम 2.5 के मुकाबले 2018 के दौरान हवा में 72.5μg/m³(माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) थी. बांग्लादेश 97.1μg/m3 होने के कारण उच्चतम उत्सर्जक रहा और पाकिस्तान 74.3μg/m³ होने पर दूसरे स्थान पर रहा.

वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) पैरामीटर के अनुसार, इस श्रेणी में आबादी के साथ 55.5-150.4μg/m³ के बीच के पीएम को 'अस्वस्थ' के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिससे दिल और फेफड़ों पर प्रतिकूल प्रभाव और अपवृद्धि की संभावना बढ़ जाती है. इस पैरामीटर के अनुसार, भारत के कई हिस्से, जिनमें पीएम 2.5 का संकेंद्रण 72μg/m से लेकर 135μg/m तक है, 'अस्वस्थ' क्षेत्र में होता हैं.

प्रदूषणकारी उद्योगों द्वारा अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी और कठोर नियमों और निगरानी की कमी और संबंधित अधिकारियों और प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के प्रथागत तरीके देश की बिगड़ती वायु गुणवत्ता के प्रमुख कारणों में से है. भारत का वायु-जनित कणिकीय पदार्थ और लगभग बिना किसी प्रतिफल के संकेंद्रण भयावह स्तर पर पहुंच गया है.

इस विवाद को प्रमाणित करने के लिए यहां कुछ और कड़वे सच हैं. विश्व के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में पच्चीस भारतीय शहर हैं जिनमें गुरुग्राम और गाजियाबाद शामिल हैं - 2018 के दौरान पहले और दूसरे स्थान पर - 135μg / m³ की औसत वार्षिक पीएम2.5 सांद्रता दर्ज किया गया जो सामान्य सीमा से 20 गुना अधिक है.

दिल्ली जो हमेशा खबरों में रहती है, वह 11वें स्थान पर थी जिसने 113.5μg / m का वार्षिक औसत दर्ज किया था. ये सभी शहर जो "अस्वास्थ्यकर" क्षेत्र में थे, उन्होंने वर्ष के दौरान "बहुत अस्वास्थ्यकर" स्तर दर्ज किए. अनिवार्य रूप से, वायु जनित कण की सांद्रता में ऐसी खतरनाक बढ़ोतरी अत्यंत घातक स्वास्थ्य खतरों की ओर इशारा करती है.

हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट (एचईआई) के सहयोग से इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा इस वर्ष प्रकाशित "स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर" नामक एक विशेष रिपोर्ट बताती है कि 2017 के दौरान दुनिया भर में वायु प्रदूषण लगातार मृत्यु और विकलांगता के शीर्ष पांच जोखिम कारकों में से एक रहा है. यह कुपोषण, शराब के उपयोग और शारीरिक निष्क्रियता जैसे कई बेहतर ज्ञात जोखिम कारकों की तुलना में अधिक मौतों के लिए जिम्मेदार है. हर साल, सड़क यातायात की चोटों या मलेरिया की तुलना में अधिक लोग वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारी से मर जाते हैं. पीएम 2.5 फेफड़े में गहराई तक प्रवेश करते हैं जिससे वायुकोशीय दीवार में जलन और नुक्सान पहुँचता है, और फलस्वरूप फेफड़े की कार्यक्षमता ख़त्म हो जाती है. अत्यंत सूक्ष्म कणों का आकार उन्हें फुफ्फुसीय उपकला और फेफड़ों-रक्त अवरोध को पार करने में सक्षम बनाता है. पीएम 2.5 से प्रदूषित वातावरण में साँस लेना हृदय रोग, गंभीर श्वसन रोगों, फेफड़ों के संक्रमण और कैंसर का एक प्रबल कारण हो सकता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण वैश्विक स्तर पर पांचवां उच्चतम मृत्यु दर कारक है और 2017 में लगभग 49 लाख लोगों की मृत्यु और 14.7 करोड़ लोगों के स्वस्थ जीवन से जुड़ा था.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण को वर्गीकृत किया है - जिसमें घरेलू और परिवेश के स्रोत शामिल हैं- गैर-संचारी रोगों के तौर पर यह एक गंभीर जोखिम के कारक के रूप में देखा जा रहा है, हृदय रोग से वयस्कों में मृत्यु जिसमें अनुमानित 25% हृदयघात से, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से 43% तक रोग और 29% फेफड़ों के कैंसर से हुई हैं.

वायु प्रदूषण, कुपोषण के बाद भारत में रोग भार में योगदान देने वाला दूसरा सबसे बड़ा खतरनाक कारक है, जिसका परिवेशीय कण प्रदूषण में हुई वृद्धि मुख्य कारण है. 2017 में ये दावा किया गया था कि परिवेशी कण पदार्थ और घरेलू वायु प्रदूषण के कारण दस लाख से अधिक जानें गयीं हैं. आईएचएमई द्वारा किए गए व्यापक शोध से परिलक्षित होता है कि सूक्ष्म कण में ज्यादा देर रहने से हानिकारक प्रभाव का सामना करना पड़ सकता है और इसके परिणामस्वरूप भारतीय आबादी को हृदय और श्वसन संबंधी रोगों हो जाते हैं.

विश्लेषण से संकेत मिलता है कि भारत में इन रोगों की घटनाओं का कारण परिवेश में और घरेलू सूक्ष्म कण हैं. प्रवणता का जोखिम दर भी इस बात कि तरफ इशारा करता है कि देश की बड़ी आबादी इन सूक्ष्म कणों का प्रभाव झेल रही है. सभी कारणों से होने वाली कुल मौतों में से 12% मौतों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्म कणों से प्रदूषित वातावरण है जो कि ठोस कणों से उपजे 7% परिवेशीय कण पदार्थ और 5% घरेलू प्रदूषक हैं. संयोग से, यह दर पिछले दो दशकों में लगभग स्थिर रही है, जिससे संकेत मिलता है कि कण पदार्थ का संकेद्रण के कारण ग्रहणक्षमता का जोखिम स्तर एक सा बना रहा है.

भारत में श्वसन संक्रमण की कुल घटनाओं में से लगभग 47% का श्रेय पीएम 2.5 को जाता है, जिसमें से 26% परिवेशीय सूक्ष्म कण और घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषक 21 प्रतिशत है.

हृदय रोगों से संबंधित रोग जोखिम दर के परिप्रेक्ष्य से, भारत में कुल इस्कीमिक हृदय रोगों की घटनाओं के 22.17% के लिए आंशिक रूप से कण प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया गया था जिसमें परिवेशी शूक्ष कणों से 13.88% और घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषण 8.29% था. क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) की घटना का 22.48% परिवेशी कण पदार्थ और 17.62% घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषण को जिम्मेदार माना गया था.

विश्लेषण से उभरने वाला एक महत्वपूर्ण सच यह है कि प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए लगाये गये नियंत्रण और रोकथाम के उपायों का कार्यान्वयन या तो बहुत कम हुआ है या उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. इसके विपरीत, कई शहरों में, प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है. इसका उत्कृष्ट उदाहरण दिल्ली है जहाँ सभी वाहनों में उत्प्रेरक कन्वर्टर और सीएनजी लगवाने जैसे उत्सर्जन को कम करने के उपाय लागू करने के बावजूद प्रदूषण के स्तर में निरंतर "अस्वस्थ" और "बहुत अस्वास्थ्यकर स्तर" पर बना हुआ है.

सिर्फ दिल्ली ही नहीं, देश भर में भी, उत्सर्जन मुक्त बीएस IV अनुपालन वाहनों की शुरूआत प्रदूषण को कम करने में एक सार्थक स्तर तक प्रभावी साबित नहीं हुई है. ज़हर उगलते पुराने वाहन बीएस IV वाहनों से कहीं ज्यादा मात्रा में हैं और वे वायु-जनित संदूषण की यथास्थिति बनी रहने का या बढ़ने का सबसे संभावित कारण हैं.

प्रदूषण कम करने के लिए उठाये गये क़दमों में सबसे बड़ा रोड़ा है औद्योगिक क्षेत्र द्वारा नियमों का अवहेलना करना. अधिकांश औद्योगिक प्रबंधन उत्सर्जन विनियमनों का उल्लंघन और अवज्ञा भयमुक्त होकर करते हैं. संचालन और रख-रखाव में शामिल अतिरिक्त लागतों के कारण वे प्रदूषण की रोकथाम के उपकरणों की स्थापना से संबंधित उपकरणों के उपयोग के खिलाफ हैं.

इन सभी कारकों के परिप्रेक्ष्य में, एक बड़ा सवाल यह है: क्या हम इस तरह के बिगड़ते कण से प्रदूषित माहौल में खतरों के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं? या, इस बढ़ते खतरे को कम करने का कोई समाधान है?

प्रदूषण के स्तर पर नियंत्रण और लगातार नज़र रखना केवल समाधान का एक हिस्सा है. उद्योगों द्वारा गैर-अनुपालन के लिए दंडात्मक उपायों को लागू करके, कोयला-बिजली संयंत्रों में नवीनतम ग्रिप गैस उपचार तकनीकों को स्थापित करके, पुराने वाहनों को चरणबद्ध तरीके से बंद करके अब तक कण पदार्थ प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता था.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संबंधित विनियामक प्राधिकरणों को न केवल प्रौद्योगिकियों बल्कि ज्ञान से लैस होना चाहिए ताकि वे इस उद्देश्य की उपलब्धि को सुविधाजनक बना सके. वे अन्य देशों द्वारा लागू किए जा रहे उपायों को अपनाकर हवा की गुणवत्ता को सांस ले पाने के स्तर पर लाने का प्रयत्न कर सकते हैं.

(लेखक- सत्यपाल मेनन)

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pollution pushing India towards unhealth zone

कण प्रदूषण की ऊंची दर भारत को 'अस्वास्थ्यकर क्षेत्र' बनने की ओर धकेल रही है



भारत में ज़्यादातर आबादी - न्यूनतम अपवादों के साथ - वायु-जनित सूक्ष्म कणों (पीएम) प्रदूषकों के खतरनाक मात्रा के संपर्क में है, जो डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) द्वारा बताई गई सामान्य सीमा से छह - सात गुना अधिक है. ये प्रदूषक दो स्रोतों से निकलते हैं - ठोस ईंधन के उपयोग से घरेलू या घरेलू कण पदार्थ, और बाहरी या एम्बिएंट कण पदार्थ जैसे धूल, कालिख और अन्य रासायनिक उत्सर्जन से उत्पन्न ठोस और तरल कणों का मिश्रण है जो उद्योगों, निर्माण स्थलों वाहन, कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र, बायोमास और कृषि अपशिष्ट / अवशेषों को जलाना आदि से उत्पन्न होते हैं. कण को उनके आकार या व्यास के आधार पर पीएम 2.5 से पीएम 10 के रूप में वर्गीकृत किया गया है. 2.5 माइक्रोन से कम और 10 माइक्रोन से कम आकार के कणों को क्रमशः पीएम 2.5 और पीएम 10 के रूप में नाम दिया गया है. भारत में घातक कणों की एक खासियत होने के कारण संदेहात्मक अंतर है, जो कि यह रैंकिंग में पीएम 2.5 के तीसरे उच्चतम उत्सर्जक के रूप में परिलक्षित होता है. डब्ल्यूएचओ द्वारा स्थापित मानकों की सामान्य औसत 10μg/m³ की तुलना में, 2018 के दौरान भारत की हवा में वार्षिक औसत पीएम 2.5 के मुकाबले 2018 के दौरान हवा में 72.5μg/m³(माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर) थी. बांग्लादेश 97.1μg/m3 होने के कारण उच्चतम उत्सर्जक रहा और पाकिस्तान 74.3μg/m³ होने पर दूसरे स्थान पर रहा.



वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) पैरामीटर के अनुसार, इस श्रेणी में आबादी के साथ 55.5-150.4μg/m³ के बीच के पीएम को 'अस्वस्थ' के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिससे दिल और फेफड़ों पर प्रतिकूल प्रभाव और अपवृद्धि की संभावना बढ़ जाती है. इस पैरामीटर के अनुसार, भारत के कई हिस्से, जिनमें पीएम 2.5 का संकेंद्रण 72μg/m से लेकर 135μg/m तक है, 'अस्वस्थ' क्षेत्र में होता हैं.



प्रदूषणकारी उद्योगों द्वारा अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी और कठोर नियमों और निगरानी की कमी और संबंधित अधिकारियों और प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के प्रथागत तरीके देश की बिगड़ती वायु गुणवत्ता के प्रमुख कारणों में से है. भारत का वायु-जनित कणिकीय पदार्थ और लगभग बिना किसी प्रतिफल के संकेंद्रण भयावह स्तर पर पहुंच गया है.



इस विवाद को प्रमाणित करने के लिए यहां कुछ और कड़वे सच हैं. विश्व के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में पच्चीस भारतीय शहर हैं जिनमें गुरुग्राम और गाजियाबाद शामिल हैं - 2018 के दौरान पहले और दूसरे स्थान पर - 135μg / m³ की औसत वार्षिक पीएम2.5 सांद्रता दर्ज किया गया जो सामान्य सीमा से 20 गुना अधिक है. दिल्ली जो हमेशा खबरों में रहती है, वह 11वें स्थान पर थी जिसने 113.5μg / m का वार्षिक औसत दर्ज किया था. ये सभी शहर जो "अस्वास्थ्यकर" क्षेत्र में थे, उन्होंने वर्ष के दौरान "बहुत अस्वास्थ्यकर" स्तर दर्ज किए. अनिवार्य रूप से, वायु जनित कण की सांद्रता में ऐसी खतरनाक बढ़ोतरी अत्यंत घातक स्वास्थ्य खतरों की ओर इशारा करती है.



हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट (एचईआई) के सहयोग से इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा इस वर्ष प्रकाशित "स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर" नामक एक विशेष रिपोर्ट बताती है कि 2017 के दौरान दुनिया भर में वायु प्रदूषण लगातार मृत्यु और विकलांगता के शीर्ष पांच जोखिम कारकों में से एक रहा है. यह कुपोषण, शराब के उपयोग और शारीरिक निष्क्रियता जैसे कई बेहतर ज्ञात जोखिम कारकों की तुलना में अधिक मौतों के लिए जिम्मेदार है. हर साल, सड़क यातायात की चोटों या मलेरिया की तुलना में अधिक लोग वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारी से मर जाते हैं. पीएम 2.5 फेफड़े में गहराई तक प्रवेश करते हैं जिससे वायुकोशीय दीवार में जलन और नुक्सान पहुँचता है, और फलस्वरूप फेफड़े की कार्यक्षमता ख़त्म हो जाती है. अत्यंत सूक्ष्म कणों का आकार उन्हें फुफ्फुसीय उपकला और फेफड़ों-रक्त अवरोध को पार करने में सक्षम बनाता है. पीएम 2.5 से प्रदूषित वातावरण में साँस लेना हृदय रोग, गंभीर श्वसन रोगों, फेफड़ों के संक्रमण और कैंसर का एक प्रबल कारण हो सकता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि वायु प्रदूषण वैश्विक स्तर पर पांचवां उच्चतम मृत्यु दर कारक है और 2017 में लगभग 49 लाख लोगों की मृत्यु और 14.7 करोड़ लोगों के स्वस्थ जीवन से जुड़ा था.



विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण को वर्गीकृत किया है - जिसमें घरेलू और परिवेश के स्रोत शामिल हैं- गैर-संचारी रोगों के तौर पर यह एक गंभीर जोखिम के कारक के रूप में देखा जा रहा है, हृदय रोग से वयस्कों में मृत्यु जिसमें अनुमानित 25% हृदयघात से, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से 43% तक रोग और 29% फेफड़ों के कैंसर से हुई हैं.



वायु प्रदूषण, कुपोषण के बाद भारत में रोग भार में योगदान देने वाला दूसरा सबसे बड़ा खतरनाक कारक है, जिसका परिवेशीय कण प्रदूषण में हुई वृद्धि मुख्य कारण है. 2017 में ये दावा किया गया था कि परिवेशी कण पदार्थ और घरेलू वायु प्रदूषण के कारण दस लाख से अधिक जानें गयीं हैं. आईएचएमई द्वारा किए गए व्यापक शोध से परिलक्षित होता है कि सूक्ष्म कण में ज्यादा देर रहने से हानिकारक प्रभाव का सामना करना पड़ सकता है और इसके परिणामस्वरूप भारतीय आबादी को हृदय और श्वसन संबंधी रोगों हो जाते हैं. विश्लेषण से संकेत मिलता है कि भारत में इन रोगों की घटनाओं का कारण परिवेश में और घरेलू सूक्ष्म कण हैं. प्रवणता का जोखिम दर भी इस बात कि तरफ इशारा करता है कि देश की बड़ी आबादी इन सूक्ष्म कणों का प्रभाव झेल रही है. सभी कारणों से होने वाली कुल मौतों में से 12% मौतों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्म कणों से प्रदूषित वातावरण है जो कि ठोस कणों से उपजे 7% परिवेशीय कण पदार्थ और 5% घरेलू प्रदूषक हैं. संयोग से, यह दर पिछले दो दशकों में लगभग स्थिर रही है, जिससे संकेत मिलता है कि कण पदार्थ का संकेद्रण के कारण ग्रहणक्षमता का जोखिम स्तर एक सा बना रहा है.



भारत में श्वसन संक्रमण की कुल घटनाओं में से लगभग 47% का श्रेय पीएम 2.5 को जाता है, जिसमें से 26% परिवेशीय सूक्ष्म कण और घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषक 21 प्रतिशत है.



हृदय रोगों से संबंधित रोग जोखिम दर के परिप्रेक्ष्य से, भारत में कुल इस्कीमिक हृदय रोगों की घटनाओं के 22.17% के लिए आंशिक रूप से कण प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया गया था जिसमें परिवेशी शूक्ष कणों से 13.88% और घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषण 8.29% था.  क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) की घटना का 22.48% परिवेशी कण पदार्थ और 17.62% घरेलू ईंधन से उपजे ठोस प्रदूषण को जिम्मेदार माना गया था.



विश्लेषण से उभरने वाला एक महत्वपूर्ण सच यह है कि प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए लगाये गये नियंत्रण और रोकथाम के उपायों का कार्यान्वयन या तो बहुत कम हुआ है या उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. इसके विपरीत, कई शहरों में, प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है. इसका उत्कृष्ट उदाहरण दिल्ली है जहाँ सभी वाहनों में उत्प्रेरक कन्वर्टर और सीएनजी लगवाने जैसे उत्सर्जन को कम करने के उपाय लागू करने के बावजूद प्रदूषण के स्तर में निरंतर "अस्वस्थ" और "बहुत अस्वास्थ्यकर स्तर" पर बना हुआ है. सिर्फ दिल्ली ही नहीं, देश भर में भी, उत्सर्जन मुक्त बीएस IV अनुपालन वाहनों की शुरूआत प्रदूषण को कम करने में एक सार्थक स्तर तक प्रभावी साबित नहीं हुई है. ज़हर उगलते पुराने वाहन बीएस IV वाहनों से कहीं ज्यादा मात्रा में हैं और वे वायु-जनित संदूषण की यथास्थिति बनी रहने का या बढ़ने का सबसे संभावित कारण हैं.



प्रदूषण कम करने के लिए उठाये गये क़दमों में सबसे बड़ा रोड़ा है औद्योगिक क्षेत्र द्वारा नियमों का अवहेलना करना. अधिकांश औद्योगिक प्रबंधन उत्सर्जन विनियमनों का उल्लंघन और अवज्ञा भयमुक्त होकर करते हैं. संचालन और रख-रखाव में शामिल अतिरिक्त लागतों के कारण वे प्रदूषण की रोकथाम के उपकरणों की स्थापना से संबंधित उपकरणों के उपयोग के खिलाफ हैं.



इन सभी कारकों के परिप्रेक्ष्य में, एक बड़ा सवाल यह है: क्या हम इस तरह के बिगड़ते कण से प्रदूषित माहौल में खतरों के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं? या, इस बढ़ते खतरे को कम करने का कोई समाधान है?



प्रदूषण के स्तर पर नियंत्रण और लगातार नज़र रखना केवल समाधान का एक हिस्सा है. उद्योगों द्वारा गैर-अनुपालन के लिए दंडात्मक उपायों को लागू करके, कोयला-बिजली संयंत्रों में नवीनतम ग्रिप गैस उपचार तकनीकों को स्थापित करके, पुराने वाहनों को चरणबद्ध तरीके से बंद करके अब तक कण पदार्थ प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता था. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संबंधित विनियामक प्राधिकरणों को न केवल प्रौद्योगिकियों बल्कि ज्ञान से लैस होना चाहिए ताकि वे इस उद्देश्य की उपलब्धि को सुविधाजनक बना सके. वे अन्य देशों द्वारा लागू किए जा रहे उपायों को अपनाकर हवा की गुणवत्ता को सांस ले पाने के स्तर पर लाने का प्रयत्न कर सकते हैं.

(लेखक- सत्यपाल मेनन) 




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