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विशेष लेख : किसानों के लिए क्यों निरर्थक साबित हो रहे समर्थन मूल्य

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Published : Dec 2, 2019, 7:38 AM IST

Updated : Dec 2, 2019, 4:29 PM IST

वर्तमान में, किसानों को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा दिये जा रहे बिना-किसी-उपयोग-के समर्थन मूल्य के कारण नुकसान उठाना पड़ रहा है. केंद्र सरकार द्वारा यह घोषित किया गया है कि प्रत्येक वर्ष, चालू वर्ष में अक्टूबर के महीने से अगले वर्ष सितंबर तक, किसानों के लिए 'नया विपणन वर्ष' माना जाना चाहिए. हालांकि, इस वर्ष कृषि की उपज का विपणन और बिक्री किसानों के पक्ष में नहीं हुई.

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प्रतीकात्मक तस्वीर

इस साल फसल की कटाई के समय से ही उपज की खरीद मूल्य धराशायी हो गया. खरीदार अधिक बारिश को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, जिसके कारण उपज की गुणवत्ता औसत से नीचे बताई जा रही है और इस प्रकार खरीदार और बिचौलिए उपज की सबसे कम कीमतें लगा रहे हैं.

यहां तक कि भारत सरकार की योजना, प्रधानमंत्री अन्नदाता, आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा), जो लगभग 2 साल पहले शुरू की गई है, जिसका उद्देश्य किसानों को उनके उत्पाद के लिए पारिश्रमिक मूल्य सुनिश्चित करना है, इससे भी बहुत मदद नहीं मिल रही है. लगभग 22,000 ग्रामीण कृषि बाजार हैं, जिनमें से केंद्र सरकार ने सुधार करने का वादा किया है, लेकिन आज तक अमल में नहीं आया है.
समस्याएं अभी भी यथावत हैं

केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने किसानों के लिए आवश्यकतानुसार बाजार मूल्य स्थिरीकरण के तहत कृषि उपज की गारंटीकृत खरीद के लिए बजट नहीं निरधारित किया है. जून में काटा हुआ उत्पादन सितंबर में बाजार में पहुंचता है, जो खरीफ का मौसम है. जून के महीने के दौरान, सरकार ऐसी फसलों के बाजार मूल्य की घोषणा करती है. हालांकि, बाजार मूल्य केवल नए विपणन वर्ष से लागू होता है, जो अक्टूबर है. इस प्रकार, किसानों को वार्षिक आधार पर, वर्ष की अपनी प्रारंभिक उपज पर नुकसान उठाना पड़ रहा है.

तेलंगाना सरकार ने पहले ही सितंबर से शुरू होने वाले समर्थन मूल्य को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव दिया था, जिसमें अधिकारियों की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी हालिया सर्वेक्षण रिपोर्ट में उल्लेख किया था कि पिछले वर्ष के दौरान भी, कई राज्यों को वास्तव में वादा किया गया समर्थन मूल्य की सही मात्रा में सहायता प्राप्त नहीं हुई है.

इसने केंद्र सरकार से सिफारिश की, कि कपास, तेल के बीज, मक्का और अन्य बाजरा जैसी कृषि उपज को मूल्य कमी भुगतान योजना (पीडीपीएस) के तहत भुगतान / प्रतिपूर्ति के लिए योग्य माना जाना चाहिए. मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने इस योजना को - भावान्तर भुगतान योजना (बीबीवाई) के नाम के तहत पहले ही लागू कर दिया था, लेकिन इस योजना को बिना सोचे समझे छोड़ देना पड़ा.

पीडीपी योजना के तहत, किसान को वास्तविक मॉडल / बाजार मूल्य जिस पर उत्पाद बेचा गया है और सरकार द्वारा घोषित मूल्य के बीच की घटी राशि का भुगतान किया जाता है, यदि कोई हो तो. हालांकि, मध्य प्रदेश में कृषि-बाजारों के बिचौलियों ने बीबीवाई योजना का दुरुपयोग किया है, जिसके कारण संभवत: योजना रद्द कर दी गयी है.

इन घटनाओं को ध्यान में रखते हुए, सीएसीपी ने इस वर्ष से शुरू होने वाले बीबीवाई योजना आवश्यक परिवर्तनों के बाद कार्यान्वयन करने की सिफारिश की है. आयोग ने आगे सिफारिश की कि पिछले 3-4 साल के बाजार मूल्य और जो वर्तमान में राशि में अंतर है उसे ध्यान में रखने के बाद, वर्तमान वर्ष के समर्थन मूल्य का भुगतान सीधे किसान को किया जा सकता है. इन सभी सिफारिशों के बावजूद, मौजूदा विपणन वर्ष की बिक्री हो रही है.

राज्य सरकारें केंद्र सरकार से कृषि उत्पादों की खरीद का अनुरोध कर रही हैं, क्योंकि वे ही उत्पाद की बिक्री मूल्य पर निर्णय लेती हैं. इसके लिए, केंद्र सरकार ने पलटकर जवाब दिया है कि वे कुछ विशेष अनाज जैसे कि तेल के बीज, बाजरा, दाल आदि से संबंधित कुल फसल का लगभग 25% ही खरीद सकेंगे. केंद्र सरकार कुल फसल का लगभग 40% से 50% तक खरीद लेती थी..

हालांकि, इस साल की शुरुआत में, उसने लगभग 25% खरीद करने की घोषणा की थी. दिल्ली में हाल ही में राष्ट्रीय कृषि सम्मेलन के दौरान राज्यों ने कहा है कि जब तक केंद्र सरकार 40% फसल की खरीद की गारंटी नहीं देती है, किसानों के लिए खेती की आवश्यकताओं को पूरा कर पाना मुश्किल होगा. अन्य विकल्प यह है कि केंद्र न्यूनतम गारंटी वाली फसल खरीदने के लिए प्रत्येक राज्य को निधि दे.

इसके अलावा, अगर सरकार लगभग 25% फसल खरीदती है, तो किसान को परेशानी होगी और बाकी फसल को खुले बाजार में बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा, जो पूरी तरह से बिचौलियों की मांग पर निर्भर करता है. यह हालात किसान को बार-बार गहरी-परेशानी में धकेल रहे हैं. जब तक किसान की मदद करने के लिए राज्यों द्वारा एक मजबूत राजनीतिक संकल्प नहीं लिया जाता है, तब तक किसान के लिए खरीद की मात्रा बढ़ाने के लिए कोई नीति नहीं बनाई जा सकती है.

उदाहरण के लिए, राज्य के विपणन महासंघ द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, तेलंगाना राज्य सरकार को सोयाबीन, दलहन, मक्का आदि फसलों के की खरीदी के लिए 15% से अधिक की खरीद के लिए 2,902 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि खर्च करनी होगी, जो कि पहले से ही केंद्र सरकार द्वारा गारंटी दी गई 25% से अधिक अप्रयुक्त है.

राज्य सरकार ने पहले बजट में जो फसलें उपलब्ध नहीं कराई थीं, उनकी अतिरिक्त खरीद के लिए राशि जुटाने हेतु राज्य सरकार बड़ी दुविधा में है. इसी तरह, कई राज्य सरकारों ने अपने हिस्से की मदद करना छोड़ दिया है, खासकर ऐसे मामलों में जहां केंद्र सरकार ने सख्त शर्तें लगाई हैं और जहां केंद्र सरकार कुछ फसलों पर उन्हें खाद्य फसलों के रूप में मानने के बाद हर साल समर्थन मूल्य घोषित कर रही है, जैसे कि ज्वार, मकई और अन्य बाजरा. हालांकि, हाल में, यह ज्ञात है कि केंद्र सभी राज्यों में समान रूप से ऐसा नहीं कर रही है.

केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि न्यूनतम गारंटी वाली खरीद केवल उन्हीं राज्यों में की जाएगी, जिनमें आवश्यक वस्तुओं की सूची में मक्का, मकई आदि शामिल हैं. चूंकि दोनों तेलुगु राज्यों में ऐसी कोई नीति नहीं है, इसलिए केंद्र सरकार द्वारा ऐसी फसलों की कोई भी खरीद नहीं हो रही है. इसलिए, राज्य सरकार को पूरी खरीद करनी पड़ रही है. अनिवार्य रूप से, राज्य सरकार केंद्र सरकार से बार-बार अनुरोध कर रही है कि कम से कम 25% गारंटीकृत खरीद जो अन्य फसलों में की जा रही है वही कर ले, लेकिन कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है. निर्यात ही बचाव का एकमात्र रास्ता लग रहा है.

हाल में, देश में खाद्यान्न के आयात में वृद्धि हुई है, जबकि दूसरी ओर, किसान अभी भी अपनी अंतर्देशीय फसल का सही दाम नहीं ले पा रहा है. विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अनुसार, 2017 में, भारत ने कुल निर्यात का लगभग 2.3% निर्यात किया है, जबकि उसने अन्य देशों से लगभग 1.9% माल का आयात किया है. अब समय की जरूरत है कि हम निर्यात नीतियों को इस तरह से तैयार करें कि निर्यात की गुणवत्ता और कीमत में सुधार हो, जिससे किसानों के राजस्व में वृद्धि हो.

इसके लिए हमें बीज, भंडारण और अन्य सुविधाओं की गुणवत्ता में सुधार करने की आवश्यकता होगी, ताकि उपज के लिए उचित और वांछित दर मिल सके. हम चिली से सेब जैसे फलों का आयात करते हैं. हमारे पास कश्मीर जैसी जगहों पर सेब की फसल के लिए उपयुक्त मौसम हैं, लेकिन फसल को प्रतिकूल और कम गुणवत्ता के कारण, हम उसे अन्य देशों में निर्यात करने में असमर्थ हैं. इसी तरह, ड्रैगन-लीची के फल चीन से आयात किया जा रहा है, हालांकि अपने पड़ोसी देश भारत के बजाय चीन और श्रीलंका न्यूजीलैंड से दूध का आयात कर रहे हैं.

यह हमेशा ऐसा रहा है जहां निर्यात राजस्व को लक्षित नहीं किया जा रहा है और हमारे किसानों को गुणवत्ता वाले बीज, भंडारण सुविधाएं और अन्य की उपलब्धता नहीं है. नतीजतन, यह बिचौलिये हैं जो सरकारी संस्थानों और किसानों की आजीविका की कीमत पर अंतर्देशीय फसलों को कम कीमतों पर खरीद कर लाभान्वित हो रहे हैं. किसान अपनी बुनियादी ज़रूरतों जैसे कि खाद और खेती के औजारों के लिए बैंक द्वारा दिए ऋण पर निर्भर रहते हैं साथ ही कीमतों की योजनाओं की कमी के कारण वे ऋण के दलदल में धंसते चले जाते हैं जो कई बार उनकी मृत्यु का कारण बन जाता है.
किसानों/सरकारों का नुकसान - बिचौलियों का लाभ

वर्ष 2017 में, सरकारों ने किसानों से 5, 450 रुपये प्रति क्विंटल के समर्थन मूल्य पर दालें खरीदी हैं. ये माल 6 महीने तक गोदामों में संग्रहित किया गया और फिर निविदा प्रक्रिया के माध्यम से खुले बाजार में भेजा गया था. व्यवसायिकों/बिचौलियों ने इस प्रकार इसे सरकार से 3,234 रुपये प्रति क्विंटल की कम कीमत पर वापस खरीदा. वैसे भी यह सरकारी खजाने पर धन की हानि और अनुचित उपयोग का एक घाटे का सौदा है. इसी तरह, चूंकि संगृहीत माल बाज़ार में तब भेजा जाता है जब ताज़े माल की कटाई का समय शुरू हो जाता है, इसलिए नए फसल बिक्री मूल्य को भी बड़े पैमाने पर गिरा दिया जाता है, जिससे किसान समुदाय को भारी नुकसान उठाना पड़ता है.

इसी पद्धति को वर्तमान वर्ष में भी सरकारों द्वारा अपनाया गया है. यहां तक कि अगर किसानों को अपनी उपज सीधे बिचौलियों को बेचनी है, तो भी उन्हें बाजार में अधिक आपूर्ति के कारण कम कीमत पर ऐसा करना होगा.

इस तरह, यह केवल बिचौलिये ही हैं, जो सरकारी नीतियों और किसान असहायता के कारण लाभान्वित हो रहे हैं. जब तक हम किसान की जरूरतों के अनुरूप खरीद और बिक्री की नीतियों पर पुनरवलोकन नहीं करते हैं, तब तक हम एक उपजाऊ देश या हरित भारत को सुनिश्चित नहीं कर सकते, जिसका अटूट विश्वास इस नारे में है - 'जय जवान जय किसान'.
(लेखक-मंगमुरी श्रीनिवास)

इस साल फसल की कटाई के समय से ही उपज की खरीद मूल्य धराशायी हो गया. खरीदार अधिक बारिश को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, जिसके कारण उपज की गुणवत्ता औसत से नीचे बताई जा रही है और इस प्रकार खरीदार और बिचौलिए उपज की सबसे कम कीमतें लगा रहे हैं.

यहां तक कि भारत सरकार की योजना, प्रधानमंत्री अन्नदाता, आय संरक्षण अभियान (पीएम-आशा), जो लगभग 2 साल पहले शुरू की गई है, जिसका उद्देश्य किसानों को उनके उत्पाद के लिए पारिश्रमिक मूल्य सुनिश्चित करना है, इससे भी बहुत मदद नहीं मिल रही है. लगभग 22,000 ग्रामीण कृषि बाजार हैं, जिनमें से केंद्र सरकार ने सुधार करने का वादा किया है, लेकिन आज तक अमल में नहीं आया है.
समस्याएं अभी भी यथावत हैं

केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने किसानों के लिए आवश्यकतानुसार बाजार मूल्य स्थिरीकरण के तहत कृषि उपज की गारंटीकृत खरीद के लिए बजट नहीं निरधारित किया है. जून में काटा हुआ उत्पादन सितंबर में बाजार में पहुंचता है, जो खरीफ का मौसम है. जून के महीने के दौरान, सरकार ऐसी फसलों के बाजार मूल्य की घोषणा करती है. हालांकि, बाजार मूल्य केवल नए विपणन वर्ष से लागू होता है, जो अक्टूबर है. इस प्रकार, किसानों को वार्षिक आधार पर, वर्ष की अपनी प्रारंभिक उपज पर नुकसान उठाना पड़ रहा है.

तेलंगाना सरकार ने पहले ही सितंबर से शुरू होने वाले समर्थन मूल्य को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव दिया था, जिसमें अधिकारियों की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने अपनी हालिया सर्वेक्षण रिपोर्ट में उल्लेख किया था कि पिछले वर्ष के दौरान भी, कई राज्यों को वास्तव में वादा किया गया समर्थन मूल्य की सही मात्रा में सहायता प्राप्त नहीं हुई है.

इसने केंद्र सरकार से सिफारिश की, कि कपास, तेल के बीज, मक्का और अन्य बाजरा जैसी कृषि उपज को मूल्य कमी भुगतान योजना (पीडीपीएस) के तहत भुगतान / प्रतिपूर्ति के लिए योग्य माना जाना चाहिए. मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने इस योजना को - भावान्तर भुगतान योजना (बीबीवाई) के नाम के तहत पहले ही लागू कर दिया था, लेकिन इस योजना को बिना सोचे समझे छोड़ देना पड़ा.

पीडीपी योजना के तहत, किसान को वास्तविक मॉडल / बाजार मूल्य जिस पर उत्पाद बेचा गया है और सरकार द्वारा घोषित मूल्य के बीच की घटी राशि का भुगतान किया जाता है, यदि कोई हो तो. हालांकि, मध्य प्रदेश में कृषि-बाजारों के बिचौलियों ने बीबीवाई योजना का दुरुपयोग किया है, जिसके कारण संभवत: योजना रद्द कर दी गयी है.

इन घटनाओं को ध्यान में रखते हुए, सीएसीपी ने इस वर्ष से शुरू होने वाले बीबीवाई योजना आवश्यक परिवर्तनों के बाद कार्यान्वयन करने की सिफारिश की है. आयोग ने आगे सिफारिश की कि पिछले 3-4 साल के बाजार मूल्य और जो वर्तमान में राशि में अंतर है उसे ध्यान में रखने के बाद, वर्तमान वर्ष के समर्थन मूल्य का भुगतान सीधे किसान को किया जा सकता है. इन सभी सिफारिशों के बावजूद, मौजूदा विपणन वर्ष की बिक्री हो रही है.

राज्य सरकारें केंद्र सरकार से कृषि उत्पादों की खरीद का अनुरोध कर रही हैं, क्योंकि वे ही उत्पाद की बिक्री मूल्य पर निर्णय लेती हैं. इसके लिए, केंद्र सरकार ने पलटकर जवाब दिया है कि वे कुछ विशेष अनाज जैसे कि तेल के बीज, बाजरा, दाल आदि से संबंधित कुल फसल का लगभग 25% ही खरीद सकेंगे. केंद्र सरकार कुल फसल का लगभग 40% से 50% तक खरीद लेती थी..

हालांकि, इस साल की शुरुआत में, उसने लगभग 25% खरीद करने की घोषणा की थी. दिल्ली में हाल ही में राष्ट्रीय कृषि सम्मेलन के दौरान राज्यों ने कहा है कि जब तक केंद्र सरकार 40% फसल की खरीद की गारंटी नहीं देती है, किसानों के लिए खेती की आवश्यकताओं को पूरा कर पाना मुश्किल होगा. अन्य विकल्प यह है कि केंद्र न्यूनतम गारंटी वाली फसल खरीदने के लिए प्रत्येक राज्य को निधि दे.

इसके अलावा, अगर सरकार लगभग 25% फसल खरीदती है, तो किसान को परेशानी होगी और बाकी फसल को खुले बाजार में बेचने पर मजबूर होना पड़ेगा, जो पूरी तरह से बिचौलियों की मांग पर निर्भर करता है. यह हालात किसान को बार-बार गहरी-परेशानी में धकेल रहे हैं. जब तक किसान की मदद करने के लिए राज्यों द्वारा एक मजबूत राजनीतिक संकल्प नहीं लिया जाता है, तब तक किसान के लिए खरीद की मात्रा बढ़ाने के लिए कोई नीति नहीं बनाई जा सकती है.

उदाहरण के लिए, राज्य के विपणन महासंघ द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, तेलंगाना राज्य सरकार को सोयाबीन, दलहन, मक्का आदि फसलों के की खरीदी के लिए 15% से अधिक की खरीद के लिए 2,902 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि खर्च करनी होगी, जो कि पहले से ही केंद्र सरकार द्वारा गारंटी दी गई 25% से अधिक अप्रयुक्त है.

राज्य सरकार ने पहले बजट में जो फसलें उपलब्ध नहीं कराई थीं, उनकी अतिरिक्त खरीद के लिए राशि जुटाने हेतु राज्य सरकार बड़ी दुविधा में है. इसी तरह, कई राज्य सरकारों ने अपने हिस्से की मदद करना छोड़ दिया है, खासकर ऐसे मामलों में जहां केंद्र सरकार ने सख्त शर्तें लगाई हैं और जहां केंद्र सरकार कुछ फसलों पर उन्हें खाद्य फसलों के रूप में मानने के बाद हर साल समर्थन मूल्य घोषित कर रही है, जैसे कि ज्वार, मकई और अन्य बाजरा. हालांकि, हाल में, यह ज्ञात है कि केंद्र सभी राज्यों में समान रूप से ऐसा नहीं कर रही है.

केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि न्यूनतम गारंटी वाली खरीद केवल उन्हीं राज्यों में की जाएगी, जिनमें आवश्यक वस्तुओं की सूची में मक्का, मकई आदि शामिल हैं. चूंकि दोनों तेलुगु राज्यों में ऐसी कोई नीति नहीं है, इसलिए केंद्र सरकार द्वारा ऐसी फसलों की कोई भी खरीद नहीं हो रही है. इसलिए, राज्य सरकार को पूरी खरीद करनी पड़ रही है. अनिवार्य रूप से, राज्य सरकार केंद्र सरकार से बार-बार अनुरोध कर रही है कि कम से कम 25% गारंटीकृत खरीद जो अन्य फसलों में की जा रही है वही कर ले, लेकिन कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है. निर्यात ही बचाव का एकमात्र रास्ता लग रहा है.

हाल में, देश में खाद्यान्न के आयात में वृद्धि हुई है, जबकि दूसरी ओर, किसान अभी भी अपनी अंतर्देशीय फसल का सही दाम नहीं ले पा रहा है. विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के अनुसार, 2017 में, भारत ने कुल निर्यात का लगभग 2.3% निर्यात किया है, जबकि उसने अन्य देशों से लगभग 1.9% माल का आयात किया है. अब समय की जरूरत है कि हम निर्यात नीतियों को इस तरह से तैयार करें कि निर्यात की गुणवत्ता और कीमत में सुधार हो, जिससे किसानों के राजस्व में वृद्धि हो.

इसके लिए हमें बीज, भंडारण और अन्य सुविधाओं की गुणवत्ता में सुधार करने की आवश्यकता होगी, ताकि उपज के लिए उचित और वांछित दर मिल सके. हम चिली से सेब जैसे फलों का आयात करते हैं. हमारे पास कश्मीर जैसी जगहों पर सेब की फसल के लिए उपयुक्त मौसम हैं, लेकिन फसल को प्रतिकूल और कम गुणवत्ता के कारण, हम उसे अन्य देशों में निर्यात करने में असमर्थ हैं. इसी तरह, ड्रैगन-लीची के फल चीन से आयात किया जा रहा है, हालांकि अपने पड़ोसी देश भारत के बजाय चीन और श्रीलंका न्यूजीलैंड से दूध का आयात कर रहे हैं.

यह हमेशा ऐसा रहा है जहां निर्यात राजस्व को लक्षित नहीं किया जा रहा है और हमारे किसानों को गुणवत्ता वाले बीज, भंडारण सुविधाएं और अन्य की उपलब्धता नहीं है. नतीजतन, यह बिचौलिये हैं जो सरकारी संस्थानों और किसानों की आजीविका की कीमत पर अंतर्देशीय फसलों को कम कीमतों पर खरीद कर लाभान्वित हो रहे हैं. किसान अपनी बुनियादी ज़रूरतों जैसे कि खाद और खेती के औजारों के लिए बैंक द्वारा दिए ऋण पर निर्भर रहते हैं साथ ही कीमतों की योजनाओं की कमी के कारण वे ऋण के दलदल में धंसते चले जाते हैं जो कई बार उनकी मृत्यु का कारण बन जाता है.
किसानों/सरकारों का नुकसान - बिचौलियों का लाभ

वर्ष 2017 में, सरकारों ने किसानों से 5, 450 रुपये प्रति क्विंटल के समर्थन मूल्य पर दालें खरीदी हैं. ये माल 6 महीने तक गोदामों में संग्रहित किया गया और फिर निविदा प्रक्रिया के माध्यम से खुले बाजार में भेजा गया था. व्यवसायिकों/बिचौलियों ने इस प्रकार इसे सरकार से 3,234 रुपये प्रति क्विंटल की कम कीमत पर वापस खरीदा. वैसे भी यह सरकारी खजाने पर धन की हानि और अनुचित उपयोग का एक घाटे का सौदा है. इसी तरह, चूंकि संगृहीत माल बाज़ार में तब भेजा जाता है जब ताज़े माल की कटाई का समय शुरू हो जाता है, इसलिए नए फसल बिक्री मूल्य को भी बड़े पैमाने पर गिरा दिया जाता है, जिससे किसान समुदाय को भारी नुकसान उठाना पड़ता है.

इसी पद्धति को वर्तमान वर्ष में भी सरकारों द्वारा अपनाया गया है. यहां तक कि अगर किसानों को अपनी उपज सीधे बिचौलियों को बेचनी है, तो भी उन्हें बाजार में अधिक आपूर्ति के कारण कम कीमत पर ऐसा करना होगा.

इस तरह, यह केवल बिचौलिये ही हैं, जो सरकारी नीतियों और किसान असहायता के कारण लाभान्वित हो रहे हैं. जब तक हम किसान की जरूरतों के अनुरूप खरीद और बिक्री की नीतियों पर पुनरवलोकन नहीं करते हैं, तब तक हम एक उपजाऊ देश या हरित भारत को सुनिश्चित नहीं कर सकते, जिसका अटूट विश्वास इस नारे में है - 'जय जवान जय किसान'.
(लेखक-मंगमुरी श्रीनिवास)

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Last Updated : Dec 2, 2019, 4:29 PM IST
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