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क्या आर्थिक मोर्चे पर नीतीश और बेहतर कर सकते थे?

बिहार बदलने की कोशिश में पिछले कई वर्षों से लगा हुआ है. बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार के आने के बाद 'विकास' और 'सुशासन' जैसे शब्द बार-बार सुनाई देने लगे. बिहार ही नहीं पूरे देश को लगा कि बिहार जल्द पिछड़ेपन और गरीबी से निकल जाएगा मगर यह अब तक नहीं हुआ. पढ़ें ईटीवी भारत के रिजनल एडिटर ब्रज मोहन सिंह का विश्लेषण.

Nitish Kumar
नीतीश कुमार
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Published : Oct 28, 2020, 5:01 AM IST

पटना : 28 अक्टूबर को बिहार में पहले चरण का चुनाव होने जा रहा है, लेकिन इस बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार न तो आत्मविश्वास से लबरेज नजर आ रहे हैं और न ही उनके 'विकास पुरुष' की छवि ही निखर कर सामने आ रही है.

नीतीश कुमार के लिए 'विकास' और 'सुशासन' दो ऐसे महत्वपूर्ण शब्द रहे हैं, जिनको लेकर पिछले दशक में शायद ही उनसे ज्यादा सवाल पूछा गया हो. 2020 का चुनाव इस मामले में भिन्न है. इस बार नीतीश से सवाल वैसी पार्टियां कर रही हैं, जिनके 15 वर्ष के लम्बे शासनकाल में बिहार का ज्यादा बंटाधार हुआ था. राजद-कांग्रेस शासनकाल में बिहार के लोगों को सड़क, पानी और बिजली जैसे मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष करना पड़ा. इसी दौर में उद्योगपतियों का बिहार से पलायन हुआ और जंगल राज जैसे डराने वाले शब्द भी उभरकर सामने आए.

नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में तभी आए, जब वहां अव्यवस्था की इन्तहा हो चुकी थी. इसके साथ ही बिहार के लोगों ने पहाड़ जैसी उम्मीदें भी नीतीश से लगा रखी थीं. लोगों को ऐसा लगा कि नीतीश के हाथ में कोई जादू की छड़ी है और वह रातों-रात सब कुछ बदलकर रख देंगे. जाहिर है ऐसा नहीं हो सका, बिहार बदलने की कोशिश करता रहा, लेकिन जमीनी स्तर पर उतना बदलाव नहीं हुआ, जितनी दरकार थी.

नीतीश कुमार अपने इमेज में कैद हो चुके हैं

नीतीश कुमार बहुत हद तक अपने ही इमेज में कैद हो गए हैं, इसलिए आज जब वह विकास की बात करते हैं, तो उनसे यह पूछा जाता है कि बिहार में उद्योग क्यों नहीं आ रहा है? बिहार में निवेश क्यों नहीं हो रहा है? बिहार से लोगों को पढ़ने के लिए दूसरे प्रदेशों में क्यों जाना पड़ता है? आज के युवाओं के गले यह बात नहीं उतर रही कि बिहार एक लैंड-लॉक्ड स्टेट है, इसलिए यहां उद्योग नहीं लग सकते. इस तर्क को नीतीश कब तक ढाल बना सकते हैं.

बिहार में विकास के दावे रहे खोखले

नीतीश के शासनकाल में बिहार आर्थिक पैमाने पर लगातार पिछड़ता चला गया. यह उम्मीद की जा रही थी कि केंद्र और बिहार की डबल इंजन की सरकार बिहार को मालामाल कर देगी, लेकिन हुआ इसके उलट. बिहार का सकल घरेलू उत्पाद अन्य राज्यों के मुकाबले लगातार पीछे होता गया. जद(यू)-बीजेपी के शासन काल में जहां बिहार का वार्षिक विकास (CAGR) 6.16 दर्ज किया गया, वहीं अन्य राज्यों और संघीय क्षेत्रों ने कहीं अधिक 7.73 विकास दर दर्ज किया.

क्या बिहार का और बेहतर आर्थिक विकास हो सकता था?

आर्थिक मामलों के जानकर बताते हैं कि बिहार में जमीनी स्तर पर जो बदलाव आना चाहिए, उससे कई गुणा ज्यादा प्रचारित किया गया. वर्ष 2019 में जहां बिहार का विकास दर 15 फीसद रहा, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर विकास दर 11 फीसद ही दर्ज किया गया. यह भी अजब संयोग है कि जहां बिहार का विकास दर हमेशा राष्ट्रीय स्तर से ऊंचा रहा है, वहीं बिहार में प्रति व्यक्ति आय पूरे देश की तुलना में सबसे कम है, ऐसा कई वर्षों से चल रहा है. वर्ष 2017-18 में जहां बिहार में प्रति व्यक्ति आय महज 42,742 रुपया था, वहीं 2018-19 में बढ़कर 47, 541 रुपये हो गया. यह वृद्धि लगभग पांच हजार रुपये की थी, लेकिन जब हम इसकी तुलना राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आय से करेंगे, तो आपको आंकड़ों की हकीकत समझ आएगी. देश में इस समय प्रति व्यक्ति आमदनी 92,565 रुपये है, जो बिहार से दोगुना है.

गन्ना मीलों के बंद होने से किसानों को नुकसान हुआ

बिहार की 70 फीसद आबादी कृषि पर निर्भर करती है, लेकिन प्रति हेक्टेयर उत्पादन के मामले में बिहार अन्य राज्यों से पीछे है, बिहार में जहां एक हेक्टेयर में 1679 किलो अनाज पैदा होता है. वहीं राष्ट्रीय औसत 1739 किलो प्रति हेक्टयर है, इसमें भी वृद्धि तभी हो सकती थी, जब कृषि क्षेत्र में निवेश किया जाता. राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर संजय कुमार कहते हैं कि बिहार में किसानों को सबसे बड़ा नुकसान हुआ गन्ना मीलों के बंद होने से. नतीजा यह है कि बिहार के किसानों को अब उत्तर प्रदेश जाना पड़ता है. यही नहीं बिहार में जूट, सीमेंट और कागज के मिल बंद होने से विकास की प्रक्रिया को धक्का लगा. नीतीश कुमार ने विकास तो किया, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया कि स्थानीय एग्रो इंडस्ट्री को बढ़ावा दे पाते.

नब्बे के दशक में विकास माइनस 2 का रहा

अर्थशास्त्री डॉ. बख्शी अमित कुमार कहते हैं कि बिहार में अपार संभावनाएं हैं, लेकिन निवेश के लिए पहले सड़क, बिजली और पानी को मुहैया करना जरूरी था. बिहार के मामले में सबसे खराब बात यह रही कि यहां मूलभूत संरचना अस्तित्व में नहीं थी और नब्बे के दशक में कई वर्षों तक औद्योगिक विकास माइनस 2 का रहा. बिहार में कानून व्यवस्था को लेकर खराब अवधारणा बनी.

राज्य के बंटवारे के साथ बढ़ी परेशानी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके लिए ऐतिहासिक कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं. मसलन राज्य के बंटवारे के साथ ही यहां परेशानी बढ़ती रही. इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि प्रदेश के सभी मिनरल्स झारखंड के हिस्से में चले गए. बिहार खनिज सम्पदा से वंचित रह गया और कोई औद्योगिक शहर भी नहीं आया. यही वजह थी कि वर्ष 2005 से लेकर नीतीश ने बार-बार बिहार के लिए विशेष दर्जे की भी मांग की, लेकिन बिहार को वादों के अलावा कुछ नही हासिल नहीं हुआ.

केंद्र की मदद जरूरी

सबको याद होगा कि बिहार में हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार को सवा लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज देने की बात कही थी, लेकिन यह सिर्फ एक चुनावी बयानबाजी बनकर रह गया. बिहार को उम्मीद है कि केंद्र की तरफ से राज्य में उद्योग और मुलभूत संरचनाओं के विकास के लिए अतिरिक्त संसाधन मिलेंगे, लेकिन डर है कि चुनाव के बाद बिहार को फिर से भुला न दिया जाए.

पटना : 28 अक्टूबर को बिहार में पहले चरण का चुनाव होने जा रहा है, लेकिन इस बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार न तो आत्मविश्वास से लबरेज नजर आ रहे हैं और न ही उनके 'विकास पुरुष' की छवि ही निखर कर सामने आ रही है.

नीतीश कुमार के लिए 'विकास' और 'सुशासन' दो ऐसे महत्वपूर्ण शब्द रहे हैं, जिनको लेकर पिछले दशक में शायद ही उनसे ज्यादा सवाल पूछा गया हो. 2020 का चुनाव इस मामले में भिन्न है. इस बार नीतीश से सवाल वैसी पार्टियां कर रही हैं, जिनके 15 वर्ष के लम्बे शासनकाल में बिहार का ज्यादा बंटाधार हुआ था. राजद-कांग्रेस शासनकाल में बिहार के लोगों को सड़क, पानी और बिजली जैसे मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष करना पड़ा. इसी दौर में उद्योगपतियों का बिहार से पलायन हुआ और जंगल राज जैसे डराने वाले शब्द भी उभरकर सामने आए.

नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में तभी आए, जब वहां अव्यवस्था की इन्तहा हो चुकी थी. इसके साथ ही बिहार के लोगों ने पहाड़ जैसी उम्मीदें भी नीतीश से लगा रखी थीं. लोगों को ऐसा लगा कि नीतीश के हाथ में कोई जादू की छड़ी है और वह रातों-रात सब कुछ बदलकर रख देंगे. जाहिर है ऐसा नहीं हो सका, बिहार बदलने की कोशिश करता रहा, लेकिन जमीनी स्तर पर उतना बदलाव नहीं हुआ, जितनी दरकार थी.

नीतीश कुमार अपने इमेज में कैद हो चुके हैं

नीतीश कुमार बहुत हद तक अपने ही इमेज में कैद हो गए हैं, इसलिए आज जब वह विकास की बात करते हैं, तो उनसे यह पूछा जाता है कि बिहार में उद्योग क्यों नहीं आ रहा है? बिहार में निवेश क्यों नहीं हो रहा है? बिहार से लोगों को पढ़ने के लिए दूसरे प्रदेशों में क्यों जाना पड़ता है? आज के युवाओं के गले यह बात नहीं उतर रही कि बिहार एक लैंड-लॉक्ड स्टेट है, इसलिए यहां उद्योग नहीं लग सकते. इस तर्क को नीतीश कब तक ढाल बना सकते हैं.

बिहार में विकास के दावे रहे खोखले

नीतीश के शासनकाल में बिहार आर्थिक पैमाने पर लगातार पिछड़ता चला गया. यह उम्मीद की जा रही थी कि केंद्र और बिहार की डबल इंजन की सरकार बिहार को मालामाल कर देगी, लेकिन हुआ इसके उलट. बिहार का सकल घरेलू उत्पाद अन्य राज्यों के मुकाबले लगातार पीछे होता गया. जद(यू)-बीजेपी के शासन काल में जहां बिहार का वार्षिक विकास (CAGR) 6.16 दर्ज किया गया, वहीं अन्य राज्यों और संघीय क्षेत्रों ने कहीं अधिक 7.73 विकास दर दर्ज किया.

क्या बिहार का और बेहतर आर्थिक विकास हो सकता था?

आर्थिक मामलों के जानकर बताते हैं कि बिहार में जमीनी स्तर पर जो बदलाव आना चाहिए, उससे कई गुणा ज्यादा प्रचारित किया गया. वर्ष 2019 में जहां बिहार का विकास दर 15 फीसद रहा, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर विकास दर 11 फीसद ही दर्ज किया गया. यह भी अजब संयोग है कि जहां बिहार का विकास दर हमेशा राष्ट्रीय स्तर से ऊंचा रहा है, वहीं बिहार में प्रति व्यक्ति आय पूरे देश की तुलना में सबसे कम है, ऐसा कई वर्षों से चल रहा है. वर्ष 2017-18 में जहां बिहार में प्रति व्यक्ति आय महज 42,742 रुपया था, वहीं 2018-19 में बढ़कर 47, 541 रुपये हो गया. यह वृद्धि लगभग पांच हजार रुपये की थी, लेकिन जब हम इसकी तुलना राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आय से करेंगे, तो आपको आंकड़ों की हकीकत समझ आएगी. देश में इस समय प्रति व्यक्ति आमदनी 92,565 रुपये है, जो बिहार से दोगुना है.

गन्ना मीलों के बंद होने से किसानों को नुकसान हुआ

बिहार की 70 फीसद आबादी कृषि पर निर्भर करती है, लेकिन प्रति हेक्टेयर उत्पादन के मामले में बिहार अन्य राज्यों से पीछे है, बिहार में जहां एक हेक्टेयर में 1679 किलो अनाज पैदा होता है. वहीं राष्ट्रीय औसत 1739 किलो प्रति हेक्टयर है, इसमें भी वृद्धि तभी हो सकती थी, जब कृषि क्षेत्र में निवेश किया जाता. राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर संजय कुमार कहते हैं कि बिहार में किसानों को सबसे बड़ा नुकसान हुआ गन्ना मीलों के बंद होने से. नतीजा यह है कि बिहार के किसानों को अब उत्तर प्रदेश जाना पड़ता है. यही नहीं बिहार में जूट, सीमेंट और कागज के मिल बंद होने से विकास की प्रक्रिया को धक्का लगा. नीतीश कुमार ने विकास तो किया, लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया कि स्थानीय एग्रो इंडस्ट्री को बढ़ावा दे पाते.

नब्बे के दशक में विकास माइनस 2 का रहा

अर्थशास्त्री डॉ. बख्शी अमित कुमार कहते हैं कि बिहार में अपार संभावनाएं हैं, लेकिन निवेश के लिए पहले सड़क, बिजली और पानी को मुहैया करना जरूरी था. बिहार के मामले में सबसे खराब बात यह रही कि यहां मूलभूत संरचना अस्तित्व में नहीं थी और नब्बे के दशक में कई वर्षों तक औद्योगिक विकास माइनस 2 का रहा. बिहार में कानून व्यवस्था को लेकर खराब अवधारणा बनी.

राज्य के बंटवारे के साथ बढ़ी परेशानी

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके लिए ऐतिहासिक कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं. मसलन राज्य के बंटवारे के साथ ही यहां परेशानी बढ़ती रही. इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि प्रदेश के सभी मिनरल्स झारखंड के हिस्से में चले गए. बिहार खनिज सम्पदा से वंचित रह गया और कोई औद्योगिक शहर भी नहीं आया. यही वजह थी कि वर्ष 2005 से लेकर नीतीश ने बार-बार बिहार के लिए विशेष दर्जे की भी मांग की, लेकिन बिहार को वादों के अलावा कुछ नही हासिल नहीं हुआ.

केंद्र की मदद जरूरी

सबको याद होगा कि बिहार में हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार को सवा लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज देने की बात कही थी, लेकिन यह सिर्फ एक चुनावी बयानबाजी बनकर रह गया. बिहार को उम्मीद है कि केंद्र की तरफ से राज्य में उद्योग और मुलभूत संरचनाओं के विकास के लिए अतिरिक्त संसाधन मिलेंगे, लेकिन डर है कि चुनाव के बाद बिहार को फिर से भुला न दिया जाए.

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