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समाज में आए भटकाव से मिला 'भूलन कांदा'

हाल ही में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा की गई. जिसमें छत्तीसगढ़ी फिल्म 'भूलन द मेज' को सर्वश्रेष्ठ छत्तीसगढ़ी फिल्म का अवार्ड दिया गया है. पहली बार किसी छत्तीसगढ़ी फिल्म को इतनी बड़ी उपलब्धि मिली है. भूलन दा मेज फिल्म भूलन कांदा उपन्यास पर आधारित है. इसके लेखक संजीव बख्शी से ETV भारत ने खास बातचीत की.

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भूलन कांदा के लेखक संजीव बख्शी
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Published : Mar 25, 2021, 10:01 PM IST

रायपुर: हाल ही में हुए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा छत्तीसगढ़ के लिए भी खास रही, दरअसल ऐसा पहली बार हुआ कि छत्तीसगढ़ की किसी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. मनोज वर्मा निर्देशित ये फिल्म प्रदेश के जाने-माने लेखक संजीव बख्शी के उपन्यास 'भूलन कांदा' पर आधारित है. 2012 में प्रकाशित हुई इस उपन्यास को देश भर के साहित्य प्रेमियों की सराहना पहले ही मिल चुकी है. ETV भारत ने मशहूर उपान्यास भूलन कांदा के लेखक संजीव बख्शी से खास बातचीत.

भूलन कांदा के लेखक संजीव बख्शी से खास बात

सवाल: आपके मन में इस विषय पर लिखने का विचार किस तरह से आया या कहें कि भूलन कांदा के माध्यम से अपनी बात कहने की यूनिक कॉन्सेप्ट किस तरह आया ?

संजीव बख्शी: जब मैं अपनी नौकरी के दौरान बस्तर और गरियाबंद जैसे इलाकों में पदस्थ था. तो कई लोगों से ये बात सुनी कि एक पौधा होता है जिसके स्पर्श से इंसान सब कुछ भूलने लगता है. तो उन्हें ये विषय बड़ा ही रोचक लगा, फिर मैंने इसे आज के सामाजिक, इंसानी, सरकारी व्यवस्था में आए भटकाव को इस 'भूलन कांदा' से कनेक्ट कर विषय पर लिखना शुरू किया इस दौरान तीन से चार साल का वक्त लग गया.

सवाल: क्या भूलन कांदा जैसा कोई पौधा वाकई में होता है या ये सिर्फ एक कल्पना ही है?

संजीव बख्शी: कुछ साल पहले केशकाल के पास कुछ लोगों ने इस तरह के पौधा होने की बात कही थी. उसका वैज्ञानिक नाम भी बताया था, लेकिन वो कभी इसे न देखे हैं और न ही जिस पौधे की बात हो रही है उसका कोई वैज्ञानिक पुष्टि हुई है. ऐसे में ये मिथ्या ही है.

'भूलन द मेज' बनी बेस्ट छत्तीसगढ़ी फिल्म

सवाल: इस पर फिल्म बनाने की प्रक्रिया किस तरह रही किन लोगों का सहयोग रहा. इसके अलावा पात्र और जगह का चुनाव किस तरह किया गया ?

संजीव बख्शी: मैं एक कार्यक्रम में मनोज वर्मा से मिला था, उस दौरान मैंने इस भूलन कांदा का विषय बताया और इस पर जल्द एक किताब प्रकाशित होने की बात कही. ये विषय मनोज वर्मा को जंच गई और इस पर फिल्म बनाने का फैसला हुआ. इसके बाद जाने-माने लेखक विष्णु खरे ने भी इसकी तारीफ की और फिल्म बनाने के लिए उत्साहित किया. गरियाबंद के नजदीक एक आदिवासी गांव मुइनाभांठा में इसका ज्यादातर हिस्सा शूट किया गया. जगह के चयन में रमेश अनुपम का भी सहयोग रहा.

सवाल: आपने आदिवासियों के बीच काफी लंबा समय गुजारा है. उनके उत्थान के लिए जिसमें उनकी संस्कृति सुरक्षित रहे और विकास भी हो सके. इसके लिए क्या प्रयास होना चाहिए ?

संजीव बख्शी: आजादी के बाद लंबे समय तक आदिवासियों की समस्या की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया. इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया गया, लेकिन पिछले दस - पंद्रह साल से इस दिशा में काम किया गया है और इसका असर भी दिखने लगा है.

छत्तीसगढ़ी सिनेमा की बड़ी उपलब्धि, 'भूलन द मेज' को मिला नेशनल फिल्म अवॉर्ड

सवाल: आप नॉवेल और स्टोरी के साथ ही कविता भी लिखते हैं, लेखन के इनमें से किस विधा को अभिव्यक्ति के लिहाज से ज्यादा पसंद करते हैं ?

संजीव बख्शी: तमाम लेखकों की भांति मैं भी कविता लिखना पहले शुरू किया. ये गद्य लेखन भी कहीं न कहीं कविता के भाव से आगे बढ़ता है. भूलन कांद उपन्यास को आप लंबी कविता कह सकते हैं.

सवाल: इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं, उसके बारे में कुछ बताइए.

संजीव बख्शी: हाल ही में मेरी एक कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुई है. इसके अलावा मैं इन दिनों भूलन कांदा का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद कर रहा हूं.

रायपुर: हाल ही में हुए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार की घोषणा छत्तीसगढ़ के लिए भी खास रही, दरअसल ऐसा पहली बार हुआ कि छत्तीसगढ़ की किसी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. मनोज वर्मा निर्देशित ये फिल्म प्रदेश के जाने-माने लेखक संजीव बख्शी के उपन्यास 'भूलन कांदा' पर आधारित है. 2012 में प्रकाशित हुई इस उपन्यास को देश भर के साहित्य प्रेमियों की सराहना पहले ही मिल चुकी है. ETV भारत ने मशहूर उपान्यास भूलन कांदा के लेखक संजीव बख्शी से खास बातचीत.

भूलन कांदा के लेखक संजीव बख्शी से खास बात

सवाल: आपके मन में इस विषय पर लिखने का विचार किस तरह से आया या कहें कि भूलन कांदा के माध्यम से अपनी बात कहने की यूनिक कॉन्सेप्ट किस तरह आया ?

संजीव बख्शी: जब मैं अपनी नौकरी के दौरान बस्तर और गरियाबंद जैसे इलाकों में पदस्थ था. तो कई लोगों से ये बात सुनी कि एक पौधा होता है जिसके स्पर्श से इंसान सब कुछ भूलने लगता है. तो उन्हें ये विषय बड़ा ही रोचक लगा, फिर मैंने इसे आज के सामाजिक, इंसानी, सरकारी व्यवस्था में आए भटकाव को इस 'भूलन कांदा' से कनेक्ट कर विषय पर लिखना शुरू किया इस दौरान तीन से चार साल का वक्त लग गया.

सवाल: क्या भूलन कांदा जैसा कोई पौधा वाकई में होता है या ये सिर्फ एक कल्पना ही है?

संजीव बख्शी: कुछ साल पहले केशकाल के पास कुछ लोगों ने इस तरह के पौधा होने की बात कही थी. उसका वैज्ञानिक नाम भी बताया था, लेकिन वो कभी इसे न देखे हैं और न ही जिस पौधे की बात हो रही है उसका कोई वैज्ञानिक पुष्टि हुई है. ऐसे में ये मिथ्या ही है.

'भूलन द मेज' बनी बेस्ट छत्तीसगढ़ी फिल्म

सवाल: इस पर फिल्म बनाने की प्रक्रिया किस तरह रही किन लोगों का सहयोग रहा. इसके अलावा पात्र और जगह का चुनाव किस तरह किया गया ?

संजीव बख्शी: मैं एक कार्यक्रम में मनोज वर्मा से मिला था, उस दौरान मैंने इस भूलन कांदा का विषय बताया और इस पर जल्द एक किताब प्रकाशित होने की बात कही. ये विषय मनोज वर्मा को जंच गई और इस पर फिल्म बनाने का फैसला हुआ. इसके बाद जाने-माने लेखक विष्णु खरे ने भी इसकी तारीफ की और फिल्म बनाने के लिए उत्साहित किया. गरियाबंद के नजदीक एक आदिवासी गांव मुइनाभांठा में इसका ज्यादातर हिस्सा शूट किया गया. जगह के चयन में रमेश अनुपम का भी सहयोग रहा.

सवाल: आपने आदिवासियों के बीच काफी लंबा समय गुजारा है. उनके उत्थान के लिए जिसमें उनकी संस्कृति सुरक्षित रहे और विकास भी हो सके. इसके लिए क्या प्रयास होना चाहिए ?

संजीव बख्शी: आजादी के बाद लंबे समय तक आदिवासियों की समस्या की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया. इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया गया, लेकिन पिछले दस - पंद्रह साल से इस दिशा में काम किया गया है और इसका असर भी दिखने लगा है.

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सवाल: आप नॉवेल और स्टोरी के साथ ही कविता भी लिखते हैं, लेखन के इनमें से किस विधा को अभिव्यक्ति के लिहाज से ज्यादा पसंद करते हैं ?

संजीव बख्शी: तमाम लेखकों की भांति मैं भी कविता लिखना पहले शुरू किया. ये गद्य लेखन भी कहीं न कहीं कविता के भाव से आगे बढ़ता है. भूलन कांद उपन्यास को आप लंबी कविता कह सकते हैं.

सवाल: इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं, उसके बारे में कुछ बताइए.

संजीव बख्शी: हाल ही में मेरी एक कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुई है. इसके अलावा मैं इन दिनों भूलन कांदा का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद कर रहा हूं.

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