रायगढ़: कहते हैं कि मिट्टी में कुम्भकारों का संस्कार बसा होता है. मिट्टी को कुम्हार (कुंभकार) अपने जादुई हाथों से हर रूप दे सकता है, लेकिन अब इन पर कोरोना की जबरदस्त मार पड़ी है. घरघोड़ा के औरईमुड़ा गांव के कुम्भकारों की जिंदगी में अब रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है. आमदनी कम होने के कारण स्थिति दयनीय हो गई है. आज वे दाने-दाने को मोहताज हो गए हैं.
घरघोड़ा के औरईमुडा गांव में 20 से 25 परिवार कुम्भकार जाति के रहते हैं, जिनका पारंपरिक व्यवसाय मुख्यतः मिट्टी के बर्तन बनाने का था, लेकिन वर्तमान में यह कार्य अब महज पांच या छह लोग कर रहे हैं, वह भी कोरोना संक्रमण के कारण ठप पड़ गया है. कुम्भकारों का कहना है कि अब गिने-चुने लोग ही मिट्टी के बर्तन खरीदते हैं. लोग आधुनिकता के कारण मिट्टी के बर्तनों की तरफ कम ध्यान दे रहे हैं. ऐसे में उन्हें मजबूरन मजदूरी करनी पड़ रही है. कुम्भकारों ने बताया कि उन्हें शासन-प्रशासन से किसी तरह की मदद नहीं मिल रही है.
विलुप्त होती जा रही कुम्भकारों की कला
हमारा समाज आधुनिकता की दौड़ में आगे बढ़ता जा रहा है. मशीनरी युग में कुम्हारों के बनाए गए मिट्टी के बर्तन विलुप्त होते जा रहे हैं. इसका कारण है कि सरकार कुम्भकारों को बढ़ावा नहीं दे रही है. धीरे-धीरे मिट्टी के बर्तन चलन से बाहर होते जा रहे हैं. चाहे दीपावली या नवरात्र में इस्तेमाल होने वाले मिट्टी के दीयों की ही बात क्यों न हो. लोग अब दीए भी फैंसी लेने लगे हैं. शादी-ब्याह में रस्मों में उपयोग होने वाले मिट्टी के बर्तन भी चलन के बाहर हो गए हैं.
मिट्टी के बर्तन नहीं बिकने के कारण कर रहे मजदूरी
कुम्भकारों ने बताया कि कोरोना संक्रमण के कारण आमदनी कम हो गई, जिसके कारण आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई है. लॉकडाउन और बाजार में दुकान नहीं लगाने के कारण इन कुम्हारों के सामने आर्थिक समस्या खड़ी हो गई है. ETV भारत ने जब इन परिवारों से बात की, तो उन्होंने अपनी आपबीती सुनाई. इन कुम्हारों ने बताया कि उनका पुरखों का व्यवसाय अब मुश्किल में है. पहले ही जैसे-तैसे उन्होंने अपने काम और कला को जीवित रखा हुआ था, लेकिन कोरोना संकट ने उनकी कमर तोड़ दी है. भले ही अभी इनकी बिक्री कम है, लेकिन यह अपने पुश्तैनी काम छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, जबकि गांव के 15 परिवार और आसपास के लोग अब इस काम को छोड़ चुके हैं और मजदूरी कर रहे हैं.
ढोरम गांव से मिट्टी खरीदकर लाते हैं कुम्हार
बता दें कि अभी इनके पास परंपरागत तरीके से ही मिट्टी के सामान बनाने की चीजें उपलब्ध हैं, साथ ही इनको यहां से 20 किलोमीटर दूर ढोरम गांव से मिट्टी ट्रैक्टर के माध्यम से खरीदकर लाना पड़ता है. कच्ची मिट्टी के सामानों को पक्का करने के लिए जंगलों से खुद से लकड़ियों का प्रबंध करना पड़ता है. उसके बाद भी इनके मिट्टी के बर्तन वर्तमान में न के बराबर बिक रहे हैं, जिसकी वजह से इनके सामने आर्थिक परेशानी खड़ी हो गई है.
कुम्हार ने इलेक्ट्रॉनिक चाक मशीन खरीदा
उन्होंने बताया कि प्रशासन की तरफ से कोई सहयोग इनको नहीं मिला है. यहां तक कि सरकार की ओर से मिलना वाला इलेक्ट्रॉनिक चाक भी इन परिवारों को नहीं मिला है. एक कुम्भकार के पास इलेक्ट्रॉनिक चाक मशीन है, जो उसने 15 हजार जमा करके खरीदा है. उस पर मिट्टी के छोटे-छोटे सामान वो बना रहा है. कुम्हार बताते हैं कि प्रशासन की तरफ से ट्रेनिंग दी गई है, लेकिन इनको कुछ उपलब्ध नहीं कराया गया है, जिसकी वजह से यह कुछ नया नहीं बना पा रहे हैं.