बिलासपुर: पूरी दुनिया कोरोना का दंश झेल रही है. इस बीच लोगों में हर स्तर पर बदलाव देखा गया है. फिर चाहे महामारी के कारण जीवनशैली हो या फिर नौकरी जाने के कारण लोगों की जीवन प्रबंधन में आया बदलाव हो. हर जगह और हर क्षेत्र में बदलाव जरूर देखने को मिले हैं. इन सबके बीच लोगों की मानसिकता में भी बदलाव देखा गया है. बुद्धिजीवियों के बीच सामाजिक-पारिवारिक संरचना के ऊपर एक स्वस्थ बहस भी छिड़ गई है. ETV भारत आपको संयुक्त परिवार के उस पुरानी अवधारणा के बीच लेकर आया है जिसे हम अब लगभग खो चुके हैं, लेकिन कोरोना काल में इसकी महत्ता एक बार फिर बढ़ा दी है.
शहर में एक परिवार आज भी संयुक्त परिवार की अवधारणा को बनाए हुए है. शहर के जूनी लाइन में रहने वाला ये ताम्रकार परिवार इसका उदाहरण है कि यदि इंसान चाहे तो संयुक्त परिवार की अवधारणा को बड़े ही सहजता से कायम रख सकता है.
लोगों के लिए उदाहरण बना ये परिवार
वर्तमान में इस परिवार में कुल 26 लोग रहते हैं. परिवार के बड़े लोगों ने बताया कि कोरोनाकाल में इन्हें सूई के नोंक के बराबर भी तकलीफ नहीं हुई है. क्योंकि उनका परिवार उनके साथ था. चाहे घर की महिलाएं हों, बुजुर्ग हों या फिर बच्चे, सब मिलजुल कर रहते हैं. निश्चित रूप से यह परिवार समाज में एक नजीर बन चुका है.
संयुक्त परिवार हर चुनौती का सामना करने में सक्षम
घर की महिलाओं की मानें तो उन्हें कभी यह ऐहसास ही नहीं होता कि वो किसी तकलीफ में हैं. घर के अन्य सदस्य भी यहीं कहते हैं कि एक संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी ताकत यह होती है कि परिवार का सुख और दुख का बंटवारा समान रूप से होता है. किसी एक सदस्य पर कभी भी बोझ जैसी स्थिति नहीं बनती है. बदलते शहरीकरण के परिवेश ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत हद तक तोड़ दिया है. इंसान सीमित रहने में ज्यादा सहज महूसस करने लगा है. इंसानी जरूरतें, पलायन की मजबूरी, बाजारवादी मानसिकता और खुलेपन की चाहत ने इंसान को संयुक्त परिवार की अवधारणा से मीलों दूर कर दिया है. अब जब इसके दुष्परिणाम सामने आने लगे तो इंसान संयुक्त परिवार के मर्म को समझने लगा है.
समझ आती है रिश्तों की अहमियत
5 भाई के पारिवारिक सदस्यों के साथ रह रहे घर के सबसे वरिष्ठ सदस्य विनोद ताम्रकार बताते हैं कि संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी खासियत यह है कि घर का हर सदस्य दुःख सुख की घड़ी में एक दूसरे के साथ होता है. एकल परिवार में सदस्यों की संख्या कम होती है, जिसका खामियाजा विपत्ति के क्षणों में देखने को मिलता है. संयुक्त परिवार आसपास के परिवारों पर निर्भर नहीं होता. वो खुद अपनी सुख-दुःख को बांटने में सक्षम होता है. यहां कठिन समयों में आर्थिक समन्वय भी बना रहता है. घर के बच्चों का मानसिक विकास भी होता है और बचपन से ही बच्चों में रिश्तों की अहमियत की समझ विकसित होती है.
नियंत्रक की भूमिका में होते हैं घर के बड़े-बुजुर्ग
सामाजिक जानकार डॉक्टर विनय पाठक बताते हैं कि दरअसल लोगों में शुरुआती दौर में एकल परिवार के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है. फिर धीरे-धीरे पारिवारिक दायरा जब और बढ़ता है तब एकल परिवार की खामियां उजागर होने लगती है. एक सम्मिलित परिवार में अनुभवी बुजुर्ग एक नियंत्रण की भूमिका में होता है. उनकी नजर पूरे परिवार को संभाले और बांधे रखती है. परिवार का कोई भी सदस्य हो उसका विकल्प नहीं हो सकता है. इसलिए इन रिश्तों को बनाए रखने के लिए परिवार का सम्मिलित स्वरूप ज्यादा बेहतर होता है.
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सदस्यों में होता है सकारात्मक बदलाव
सामाजिक जानकार नंद कश्यप यह कहते हैं कि इस कोरोना संकट ने इंसान को आर्थिक मोर्चे पर भी बहुत ज्यादा कमजोर किया है. इंसान खर्च और उपभोग को जानने की कोशिश कर रहा है. इसलिए संयुक्त परिवार की अवधारणा और ज्यादा प्रासंगिक होती जा रही है. मनोचिकित्सक डॉक्टर आशुतोष तिवारी बताते हैं कि एक साथ रहने पर घर के हर सदस्यों में एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिलता है. संयुक्त परिवार से मानवीय संवेदना विकसित होती है और जुड़ाव पक्ष और ज्यादा मजबूत होता है.
विकसित होती चली गई एकल परिवार की अवधारणा
बहरहाल यह विषय इतना व्यापक है कि इस पर कोई एक राय बनाना इतना आसान भी नहीं है. संभव है कि संयुक्त परिवार की भी अपनी कमियां हो जिस कारण से एकल परिवार की अवधारणा विकसित होती चली गई. लेकिन इतना जरूर है कि मशीनी मानव जीवन, बाजारवादी सोच, शहरीकरण और बहुत हद तक कोरोना के व्यापक दुष्प्रभाव ने संयुक्त परिवार के उस मर्म को जरूर प्रासंगिक बना दिया है, जो परिवार को संकुचित नहीं बल्कि व्यापक नजरिए से देखता है.