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SPECIAL: मद्धम हो गई मिट्टी के दीयों की चमक, फीकी हो गई कुम्हारों की दिवाली

मिट्टी के दीयों की बिक्री का कम होना कुम्हारों की परेशानी की मुख्य वजह बनती जा रही है. कुम्हारों की हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि कुम्हार और उनकी कला आने वाले दिनों में सिर्फ किताबों और कहानियों तक सिमटकर रह जाएगी.

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Published : Oct 16, 2019, 12:36 PM IST

Updated : Oct 16, 2019, 5:58 PM IST

मिट्टी के दिए बनाता किसान

बेमेतरा: आज आधुनिकता की चकाचौंध में लोग अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं. अब न मिट्टी के बर्तनों के खरीदार बचे हैं और न ही सदियों पुरानी इस कला को चाहने वाले. आज मटके के जगह फ्रिज और दीयों की जगह फैंसी लाइटों ने ले ली है. चाइनीज दीयों की चमक में कुम्हार के हाथों से बने मिट्टी के दीये की लौ कम कर दी है.

मद्धम हो गई मिट्टी के दीयों की चमक

बेमेतरा के धनगांव में विगत 100 साल से कुम्हार समाज के लोग मिट्टी के खिलौने, मटके, दीये और दुर्गा, गणेश की प्रतिमा बनाकर जीवन यापन कर रहे हैं. दीपावली आते ही जहां कुम्हारों के चेहरे पर रौनक देखने को मिलती थी. वहीं इस बार कुम्हारों के चहरे पर उदासी देखने को मिली है.

1 रुपए से भी कम कीमत में बिक रहे दीए

मिट्टी के दीयों की बिक्री का कम होना कुम्हारों की परेशानी की मुख्य वजह बनती जा रही है. कुम्हारों की हालात को देखकर ऐसा लग रहा है, कुम्हार और उनकी कला आने वाले दिनों में सिर्फ किताबों और कहानियों तक सिमटकर रह जाएगी. हालत ये है कि कुम्हारों को उनका मेहनताना भी नहीं मिल पाता. बाजार में 10 रुपए में 20 दीये बिक रहे हैं. पहले जहां लोग सौ-सौ मिट्टी के दीये लेते थे, वो अब महज औपचारिकता पूरी करने के लिए 10-12 ही दीये लेते हैं.

ऐसे बनते हैं दीये-
कुम्हार समाज में पुरुष वर्ग खेतों से मिट्टी लाकर उसे अच्छे से मिलाकर मजबूत करते हैं और चाक में रखकर अपनी कलाकृति से मनचाही आकृति प्रदान करते हैं. 2 दिनों तक बनाये समाग्री को धूप में सुखाया जाता है और फिर महिलाओं द्वारा वात्या भट्ठा लगाकर पकाने और रंग-रोगन का काम किया जाता है.

तंगहाली में कुम्हार परिवार
ETV भारत से बातचीत के दौरान कुम्हारों ने बताया कि अब बाजार में मिट्टी के सामान की कीमत कम हो गई है. उनका कहना है कि आधुनिक समय में लाइटों की बढ़ती मांग ने दियों की खरीदारी कम कर दी है. वे अपनी पुरानी परंपरा के कारण दिए बनाते हैं, लेकिन इससे उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा है. सरकार भी इस और कोई ध्यान नहीं दे रही है.

बेमेतरा: आज आधुनिकता की चकाचौंध में लोग अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं. अब न मिट्टी के बर्तनों के खरीदार बचे हैं और न ही सदियों पुरानी इस कला को चाहने वाले. आज मटके के जगह फ्रिज और दीयों की जगह फैंसी लाइटों ने ले ली है. चाइनीज दीयों की चमक में कुम्हार के हाथों से बने मिट्टी के दीये की लौ कम कर दी है.

मद्धम हो गई मिट्टी के दीयों की चमक

बेमेतरा के धनगांव में विगत 100 साल से कुम्हार समाज के लोग मिट्टी के खिलौने, मटके, दीये और दुर्गा, गणेश की प्रतिमा बनाकर जीवन यापन कर रहे हैं. दीपावली आते ही जहां कुम्हारों के चेहरे पर रौनक देखने को मिलती थी. वहीं इस बार कुम्हारों के चहरे पर उदासी देखने को मिली है.

1 रुपए से भी कम कीमत में बिक रहे दीए

मिट्टी के दीयों की बिक्री का कम होना कुम्हारों की परेशानी की मुख्य वजह बनती जा रही है. कुम्हारों की हालात को देखकर ऐसा लग रहा है, कुम्हार और उनकी कला आने वाले दिनों में सिर्फ किताबों और कहानियों तक सिमटकर रह जाएगी. हालत ये है कि कुम्हारों को उनका मेहनताना भी नहीं मिल पाता. बाजार में 10 रुपए में 20 दीये बिक रहे हैं. पहले जहां लोग सौ-सौ मिट्टी के दीये लेते थे, वो अब महज औपचारिकता पूरी करने के लिए 10-12 ही दीये लेते हैं.

ऐसे बनते हैं दीये-
कुम्हार समाज में पुरुष वर्ग खेतों से मिट्टी लाकर उसे अच्छे से मिलाकर मजबूत करते हैं और चाक में रखकर अपनी कलाकृति से मनचाही आकृति प्रदान करते हैं. 2 दिनों तक बनाये समाग्री को धूप में सुखाया जाता है और फिर महिलाओं द्वारा वात्या भट्ठा लगाकर पकाने और रंग-रोगन का काम किया जाता है.

तंगहाली में कुम्हार परिवार
ETV भारत से बातचीत के दौरान कुम्हारों ने बताया कि अब बाजार में मिट्टी के सामान की कीमत कम हो गई है. उनका कहना है कि आधुनिक समय में लाइटों की बढ़ती मांग ने दियों की खरीदारी कम कर दी है. वे अपनी पुरानी परंपरा के कारण दिए बनाते हैं, लेकिन इससे उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा है. सरकार भी इस और कोई ध्यान नहीं दे रही है.

Intro:एंकर-जिले के ग्राम धनगांव में विगत 100 वर्षो से अधिक से कुम्हार समाज के लोग मिट्टी के खिलौने मटकी दिये दुर्गा एवम गणेश प्रतिमा बना कर जीवन यापन कर रहे है
आधुनिकता की जमाने मे फैंसी सामग्रियों की बिक्री बढी है अब मटके के जगह फ्रिज, मिट्टी के बैल के जगह लकड़ी और प्लास्टिक के बैल ,वही दूध रखने की दोहनी की जगह प्लास्टिक और स्टील के बर्तनो के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है जिससे मेहनत मजदूरी करके दिन भर मिट्टी के समान गढ़ रहे कुम्हारो को रोजी रोटी चलाने में परेशानी हो रही है।Body:जिले के कुम्‍हार परेशान हैं, इसकी मुख्य वजह मिट्टी के दीयों की बिक्री का कम होना है. बिक्री में इजाफा नहीं हो रहा है हालात ये है कि कुम्हारों को उनका मेहनताना भी नही मिल पाता बाजार में 10 रु में 20 दिये बिक रहे है। जिले के कुम्हारों को इन दिनों जीवन यापन में भारी परेशानियों का सामना करना पड रहा है दीपावली पर घरों दीयों की रोशनी से जगमगाने की परंपरा रही है, लेकिन आधुनिकता का असर इस पर भी देखने को मिल रहा है. पहले जहां लोग सौ-सौ मिट्टी के दीये लेते थे, वो अब महज औपचारिकता पूरी करने के लिए 10-12 ही दीये लेते है।Conclusion:कुम्हार समाज में पुरुष वर्स खेतो से कछार मिट्टी लाकर उसे अच्छे से मिलाकर मजबूत करते है और चाक में रखकर अपनी कलाकृति से मनचाही आकृति प्रदान करते है 2 दिनों तक बनाये समाग्री को धूप में सुखाया जाता है फिर महिलाओ द्वारा वात्या भट्ठा लगाकर पकाने और रंगरोगन का कार्य किया जाता है।फिर गांव गांव बाजार बाजार घूम कर मिट्टी के बने सामग्रियां बेची जाती है।
चाक से दीये मटकी खप्पर को आकार देने वाले कुम्हारो ने बताया कि अब बाजार में मिट्टी के समान की बिक्री कम हो गयी है लोगो का फैंसी वस्तुओं के प्रति आकर्षण बढा है हमारी मेहनत मजदूरी भी नही निकल पा रही है परम्परा के कारण मिट्टी के दीये बनाते है इससे कोई फायदा नही दिख रहा है सरकार हमारी ओर कोई ध्यान नही दे रही है।
बाईट-गीता बाई चक्रधारी
बाईट-ननकैया बाई चक्रधारी
बाईट-रामचरण चक्रधारी
बाईट-गीता बाई चक्रधारी
Last Updated : Oct 16, 2019, 5:58 PM IST
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