जगदलपुर : प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना-जाने वाला बस्तर कभी साल से घिरा रहता था. लेकिन साल से घिरा बस्तर अब दिन ब दिन सिमटता जा रहा है. इस वजह से इलाके में साल के पेड़ों की भी कमी हो गई है. इस कारण बस्तर दशहरे में निर्माण किए जाने वाला रथ का काम अधूरा है. विशालकाय रथ के लिए साल की लकड़ी का न मिल पाना चिंता का विषय बना हुआ है.
बस्तर में 75 दिनों तक मनाए जाने वाले विश्व प्रसिध्द दशहरा लकड़ियों से बना विशालकाय रथ की वजह से खास है. हर साल आदिवासी की ओर से साल की लकड़ियों से 12 चक्कों का रथ तैयार किया जाता है. इसे 200 कारीगर तैयार करते हैं. इस साल रथ निर्माण के लिए आदिवासी कारीगरों को सबसे महत्वपूर्ण साल की लकड़ियों को ढूंढने मे काफी मशक्कत करनी पड़ रही है.
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अंधाधुन कटाई रोकने में नाकाम प्रशासन
इतिहासकार संजवी पचौरी के बताया कि 611 सालों से बस्तर में दशहरा के पहले साल की लकड़ियों से रथ बनाने की परपंरा है. वहीं पेड़ों की अंधाधुन कटाई को रोक पाने में नाकाम प्रशासन विश्व प्रसिध्द दशहरा पर्व को लेकर भी उदासीनता बरत रही है. वहीं राजनीतिक और प्रशासनिक दखल के बाद आदिवासियों की भी रूचि कम हो रही है. वहीं आने वाली पाढ़ी भी रथ के निर्माण कार्य में रूचि नहीं ले रही है.
साल के पेड़ बस्तर से होते गायब
प्रशासन के अधिकारी भी मानते है कि पहले की तुलना में अब बस्तर के वनों में साल के पेड़ आसानी से नहीं मिल रहे हैं. हालांकि बस्तर कलेक्टर का कहना है कि 'इसके लिए वृक्षारोपण में जोर दिया जाएगा और इस वर्ष रथ निर्माण के लिए लकड़ियों की कमी न पड़े इसके लिए भी व्यवस्था की जाएगी.
दशहरा की मान्यता
दरअसल बस्तर का दशहरा विश्व विख्यात है, शांति, अंहिसा और सद्भभाव का प्रतीक बस्तर दशहरे में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता है. इसकी विशेषता है लकड़ी से बने लगभग 20 फुट चौड़े, 40 फूट लंबे और 50 फूट उंचे भव्य विशालकाय दो मंजिले रथ से शहर की परिक्रमा की जाती है. 1408 ईं. में तत्कालीन चालुक्य वंशी महाराजा पुरषोत्तम देव ने शक्ति पूजा के रूप मे इस महापर्व की शुरूआत की थी, तब से लेकर आज तक इस पर्व को बडे धूमधाम मनाया जाता है.