रायपुर: साल के अंत में विधानसभा चुनाव को देखते हुए सभी राजनीतिक दलों ने तैयारी शुरू कर दी है. चुनाव लड़ने का ऐलान करते हुए अब इस तैयारी में आदिवासी समाज सेंधमारी करने जा रहा है. इसकी वजह पूर्व और वर्तमान सरकार की ओर से लगातार आदिवासियों की अनदेखी को बताया जा रहा है. पूर्व केंद्रीय मंत्री और सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष अरविंद नेताम का कहना है कि "भाजपा सरकार के 15 साल और कांग्रेस के 5 साल हम लोगों ने देख लिया है. कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई इसलिए समाज ने विचार किया कि अब अपने अधिकारों के लिए हमें भी चुनाव में उतरना चाहिए. क्योंकि राजनीतिक दल हमें बंधुआ मजदूर समझते हैं."
छत्तीसढ़ की 90 सीटों पर जातिगत आरक्षण: छत्तीसगढ़ में कुल 90 विधानसभा की सीटें हैं. इनमें से 39 सीटें आरक्षित हैं. इन सीटों में से 29 सीटें आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) और 10 सीटें अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं. आरक्षित सीटों के बाद बची 51 सीटें सामान्य हैं.
आदिवासी प्रभाव वाली सीटों पर चुनाव लड़ने का दावा: सर्व आदिवासी समाज प्रदेश कार्यकारिणी अध्यक्ष बीएस रावटे के मुताबिक समाज लगभग 50 से 55 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा कर सकता है. आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी 29 सीटों के अलावा ऐसी सभी सीटों से चुनाव लड़ने का तैयारी है जहां 20 से 40 फीसदी तक आदिवासी मतदाता हैं.
"छत्तीसगढ़ राज्य बना तो हमने सोचा कि परिस्थितियां बदलेंगी. लेकिन आज भी स्थिति जस की तस बनी हुई है. इस वजह से हमें अब चुनाव में उतरना पड़ रहा है. वैसे तो सर्व आदिवासी समाज अपने बलबूते पर चुनाव लड़ने की तैयारी में है. लेकिन अन्य छोटे राजनीतिक दलों से भी ऑफर आ रहे हैं तो नया मोर्चा बनाने पर विचार किया जा रहा है." -बीएस रावटे, प्रदेश कार्यकारिणी अध्यक्ष, सर्व आदिवासी समाज
सूबे की राजनीति में जातिगत समीकरण: प्रदेश में लगभग 32 फीसदी आबादी आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) की है. 13 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जाति वर्ग की और करीब 47 प्रतिशत जनसंख्या अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों की हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग में 95 से अधिक जातियां शामिल हैं.
कांग्रेस का दावा-अबकी बार 75 पार: कांग्रेस प्रदेश प्रवक्ता अमित श्रीवास्तव ने कहा कि "भारत के संविधान में हर व्यक्ति को अधिकार मिले हैं कि वह चुनाव भी लड़ सकता है और अन्य गतिविधियां भी कर सकता है. सर्व आदिवासी समाज ने पिछली बार भी चुनाव लड़ा था." अमित श्रीवास्तव के मुताबिक "छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के लिए पहले दिन से ही कांग्रेस सरकार काम कर रही है. छत्तीसगढ़ी आज तरक्की कर रहा है. करोड़ों भाई बहनों के साथ बस्तर और सरगुजा के आदिवासियों का भी सहयोग है. लगातार आदिवासियों का प्यार कांग्रेस को मिलता रहा है. यही वजह थी कि कांग्रेस अंतिम पंक्ति के व्यक्ति तक सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचा रही है."
"आदिवासी आज कांग्रेस सरकार में अपने आप को सुरक्षित मान रहे हैं. यही वजह है कि प्रदेश में कोई भी चुनाव लड़े, लेकिन आदिवासियों का सहयोग लगातार कांग्रेस पार्टी को मिलता रहा है. ऐसे में अबकी बार 75 पार का जो नारा दिया गया है उसे हासिल कर सकेंगे." -अमित श्रीवास्तव, प्रदेश प्रवक्ता, कांग्रेस
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कांग्रेस से आदिवासियों का उठ चुका विश्वास-भाजपा: भाजपा प्रदेश प्रवक्ता गौरीशंकर श्रीवास का कहना है कि "पिछले चुनाव में आदिवासियों ने बहुत ज्यादा भरोसा कांग्रेस पार्टी पर किया था जो कहीं ना कहीं टूटा है. आदिवासियों को सिवाय झूठ और फरेब के कुछ नहीं मिला है. इसलिए उन्हें चुनाव में आने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. इसके लिए राज्य की भूपेश सरकार जिम्मेदार है. निश्चित तौर पर यदि कोई संस्था या समाज राजनीति में स्थान बनाना चाहता है, तो उसका स्वागत है. यही हमारा लोकतंत्र है."
"चुनाव लड़ना सबका अधिकार है. छत्तीसगढ़ की राजनीति को लेकर बात की जाए तो पिछले 23 साल से सामाजिक स्तर की जो राजनीति है या समाज का पदार्पण सफल नहीं रहा है. गोंडवाना गणतंत्र पार्टी राज्य बनने के बाद से बहुत ज्यादा स्थान नहीं बना पाई. इसलिए सर्व आदिवासी समाज की आगे क्या रणनीति रहेगी, किस प्रकार से आम जनता तक अपनी बात पहुंचाती है, इस पर कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी." -गौरीशंकर श्रीवास, प्रदेश प्रवक्ता, भाजपा
राजनीतिक दलों को इतने मिले आदिवासी वोट: छत्तीसगढ़ में लगभग 80 लाख आदिवासी आबादी है. इन 80 लाख में से लगभग 70 लाख लोग बस्तर और सरगुजा में रहते हैं. बाकी 10 लाख लोग मैदानी क्षेत्रों में हैं. इन 80 लाख आदिवासी आबादी में से लगभग 54 लाख मतदाता हैं. 2018 में इन 54 लाख में से लगभग 40 लाख वोटर्स ने अपना वोट दिया था. कांग्रेस ने इनमें से करीब 24 लाख वोट हासिल किए थे, जबकि 2 लाख तक आदिवासी वोट जोगी की जकांछ (जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़) को मिले थे. 14 लाख आदिवासी वोट मिलने के बाद भी भाजपा को कई सीटों पर करीबी हाल झेलनी पड़ी थी.
कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है नुकसान: राजनीति के जानकार एवं वरिष्ठ पत्रकार रामअवतार तिवारी ने भी आदिवासी समाज के चुनाव लड़ने के निर्णय का स्वागत किया है. रामअवतार तिवारी के मुताबिक "पिछले 3 दशकों का इतिहास देखेंगे तो आदिवासी कांग्रेस के साथ रहा है. कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता है और कांग्रेस पार्टी आदिवासी वर्ग को तवज्जो भी देती है. दूसरी तरफ ये आदिवासी समाज अलग होकर चुनाव लड़ता है तो इससे कांग्रेस को नुकसान होगा और त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बन जाएगी."
"बरसों से आदिवासी समाज उपेक्षित रहा है. उनके अधिकार को लेकर सरकार हमेशा निर्णय लेने का दावा करती है. लेकिन उनको नेतृत्व नहीं देती है. यह समस्या बरसों से बनी हुई. कई आदिवासी अलग अलग राजनीतिक राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं. ऐसे में वह चुनाव के समय दल के साथ रहते हैं या फिर समाज के साथ जाते हैं, यह देखने वाली बात होगी." -रामअवतार तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार
29 आदिवासी सीटों में से 27 कांग्रेस के पास: छत्तीसगढ़ में 15 सालों तक भाजपा की सरकार रही बावजूद इसके साल 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में आदिवासियों की 29 सीटों में से महज 2 सीटें ही भाजपा को मिलीं. बाकी 27 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा रहा. 2018 चुनाव के मुताबिक छत्तीसगढ़ की 29 आदिवासी आरक्षित सीटों में से 25 सीटें कांग्रेस को मिली थी, जो साल 2019 में दंतेवाड़ा और मरवाही उपचुनाव के बाद साल 2020 तक बढ़कर 27 हो गईं. इनके अलावा 2 आदिवासी विधायक कांग्रेस के पास ऐसे हैं जो सामान्य सीटों से जीते हैं. इस लिहाज से कांग्रेस आदिवासी विधायकों के मामले में ज्यादा ताकतवर है.
सर्व आदिवासी समाज के चुनाव लड़ने का ऐलान करने होने के साथ ही सूबे में तीसरे मोर्चे के लेकर कवायद जोर पकड़ने लगी है. कांकेर में हाल ही में हुए विधानसभा उपचुनाव में मिले वोट शेयर से आदिवासी समाज के हौसले बुलंद हैं. सर्व आदिवासी समाज को आदिवासियों का कितना समर्थन मिलेगा यह तो वक्त बताएगा. लेकिन अगर छोटे दलों के साथ मिलकर सर्व आदिवासी समाज मजबूती से चुनाव लड़ता है तो न केवल वोट काटेगा, बल्कि कांग्रेस और भाजपा को बड़ा नुकसान भी पहुंचा सकते हैं.