पटना: जब चुनाव होने को होते हैं, तो विकास की बात अपने आप जोर पकड़ने लगती है. सत्तारूढ़ दल पिछली सरकारों के कामों की तुलना खुद से करने लगते हैं और बेहतर होने का दावा ठोकते हैं. यही उनका चुनावी मुद्दा होता है. बिहार में इन दिनों ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है, जहां सत्तासीन एनडीए 15 साल बनाम 15 साल का नारा दे रहा है.
बात विकास की हो रही है, तो पिछली सरकार की नाकामियों को गिनाया जा रहा है. 15 साल से सत्ता पर काबिज नीतीश सरकार, लालू यादव के 15 सालों के कामकाज की तुलना कर रही है. लेकिन विडंबना यह है कि प्रदेश में उद्योग-धंधे कभी भी चुनावी मुद्दे नहीं बन सके. इसका नतीजा ये रहा कि बिहार में औद्योगीकरण कभी रफ्तार पकड़ नहीं सका. नीतीश कुमार के 15 साल के शासन काल पर अगर गौर करें, विनिर्माण के क्षेत्र में काम हुए. लेकिन राज्य में औद्योगिक विषमता की स्थिति दूर नहीं की जा सकी.
पलायन की बड़ी वजह
बिहार में पिछले 30 सालों से जेपी के शिष्य सत्ता के शीर्ष पर काबिज हैं. 1990 से 2005 तक जहां सत्ता की बागडोर लालू यादव के हाथ में रही. वहीं, 2005 से लेकर 2020 तक नीतीश कुमार सत्तासीन हैं. वहीं, सूबे में 30 साल के इस शासनकाल में औद्योगीकरण को रफ्तार नहीं दी जा सकी. नतीजतन, बिहार से 50 लाख लोग दूसरे राज्यों में रोजी-रोटी की जुगत में पलायन कर गये.
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले औद्योगिक विकास को लेकर दावों और आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो गया है. दावा है कि नीतीश कुमार के शासनकाल में उद्योगों को रफ्तार देने की कवायद की गई. वहीं, लालू यादव के शासन काल में उनके कारखानों की स्थापना की बात बतायी जाने लगी है.
शुद्ध राज्य सकल घरेलू उत्पाद पर एक नजर
- 1991-92 - 13.49%
- 2004-05 - 12.82%
- 2009-10 - 18.39%
सकल राज्य मूल्य संवर्धन के तहत प्राथमिक क्षेत्र, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र आते हैं. 2017-18 के दौरान प्राथमिक क्षेत्र में सकल राज्य मूल्य संवर्धन 21.3 प्रतिशत, द्वितीयक क्षेत्र में 19.7 % तृतीयक क्षेत्र में 59% रहा.
बात करें, द्वितीयक क्षेत्र में विनिर्माण की, तो ये 9.5% और उत्पादन 8.23% रहा. जो 2018-19 में घटकर 19.1% रह गया. पिछले 4 साल के दौरान बिजली, गैस और वाटर सप्लाई में ग्रोथ रेट 1.5% रही.
- 2012 13 में कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में 10.2% था, जो घटकर 2018-19 में 9.5% रह गया.
पड़ा नोटबंदी और जीएसटी का असर
बिहार के उद्योगों पर नोटबंदी और जीएसटी का भी असर पड़ा. 2017-18 में विनिर्माण 1.3%, 2018-19 में 3% और 2016-17 में 25% रहा. 2004 से 2009 के बीच औद्योगिक विकास दर 5.8 %था, जो आज की तारीख में बढ़कर डबल डिजिट में पहुंच चुका है. प्रति व्यक्ति आय पर ध्यान दें, तो 2004-2005 में सालाना 7 हजार 914 थी. तो वहीं, 2017-18 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय सालाना आय 26 हजार 693 हो गई.
प्रति व्यक्ति आय के ये आंकड़े बिहार के कुछ शहरों तक ही सीमित हैं. बिहार के 15 जिले ऐसे हैं, जिनका प्रति व्यक्ति आय 10 हजार से नीचे है और 35 जिले ऐसे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय 15 हजार से कम है. प्रति व्यक्ति आय के मामले में सूबे में एक बड़ी विषमता देखने को मिलती है.
कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में ग्रोथ रेट
1991 में कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में ग्रोथ रेट 6.24% थी, जो 2010-11 में बढ़कर 17.3% हो गई और 2019-20 में आंकड़ा घटकर 9.4% रह गया. बिजली, पानी और गैस में 1990-91 में ग्रोथ रेट 5.91% थी 2010-11 में 2.81% रही और 2018-19 में 5.3% हो गई.
दावों पर चुनावी प्रतिक्रिया
चुनावी मौसम है और दावों का दौर भी चल पड़ा है. राजद नेता और पूर्व मंत्री आलोक मेहता ने कहा है कि नीतीश कुमार के शासनकाल में नौकरशाही और लालफीताशाही के चलते सिंगल विंडो सिस्टम नहीं लागू हो सका. इसका नतीजा है कि सैकड़ों व्यवसायी लौट गए. जहां तक औद्योगीकरण का बात है, तो लालू यादव जब रेल मंत्री थे. उस दौरान बिहार में कई बड़ी फैक्ट्री लगीं. इससे हजारों लोगों को रोजगार मिला.
औद्योगीकरण को दे रहे रफ्तार
बिहार सरकार के उद्योग मंत्री महेश्वर हजारी ने ईटीवी भारत से बात करते हुए कहा, 'मैं मानता हूं कि बिहार में बड़े उद्योग नहीं लगे. लेकिन छोटे स्तर पर बिहार में जितने उद्योग लगे. वो राष्ट्रीय स्तर पर अपने आप में एक रिकॉर्ड हैं. बिहार में औद्योगीकरण तीव्र गति से हो, उसके लिए हम प्रयासरत हैं.'
'...लेकिन कम नहीं हुई गरीबी'
अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर का मानना है कि बिहार में जिस रफ्तार से औद्योगीकरण होना चाहिए था. वो नहीं हो पाया है. 2004-05 में प्रति व्यक्ति शुद्ध घरेलू उत्पाद भारत के शुद्ध घरेलू उत्पाद का 32.5% था, जो 2017-18 में भी 32.5% के आसपास रहा. इसका मतलब यह हुआ कि देश की आय में बिहार के हिस्सेदारी नहीं बढ़ी. हमने सिर्फ यथास्थिति को मेंटेन किया. बिहार में कंस्ट्रक्शन और सर्विस सेक्टर में ग्रोथ रेट बढ़ी है. लोगों की आय भी बढ़ी है लेकिन गरीबी कम नहीं हुई.
बहरहाल, इस चुनाव कोरोना की एंट्री के बाद औद्योगीकरण बड़ा मुद्दा बनता दिखाई दे रहा है. इसके पीछे की वजह, तकरीबन 30 लाख प्रवासी मजदूरों की घर वापसी है. उनका वोट बैंक भी. रोजगार देने की बात जोर-शोर से की जा रही है. लेकिन बिना उद्योग-धंधों को स्थापित किये, ये संभव नहीं है.
सरकारी योजनाओं के माध्यम से बड़े पैमाने पर रोजगार मिल रहा होता, तो पलायन फिर से देखने को नहीं मिलता. हर रोज बिहार के कई जिलों में रेलवे स्टेशन और बस स्टॉप पर दिखता है. ऐसा ही नजारा एयरपोर्ट पर देखने को मिलता है, जब प्रवासी मजदूर अपने मालिक के रहमो करम पर टिकट पाकर परदेस रवाना हो रहे हैं.