पटनाः बिहार विधानसभा की 2 सीटों पर हो रहे उपचुनाव (By-Election in Bihar) में कांग्रेस और राजद के बीच मित्रवत युद्ध (Friendly Fight Between Congress RJD) का जो फार्मूला खड़ा हुआ है, वह बिहार की राजनीति (Bihar Politics) को निश्चित तौर पर नई दिशा देगा, चेहरा भी और बताने के लिए वह हकीकत भी, जिसमें सियासत में सिर्फ अपने फायदे की बात ही सोची जाती है. बाकी मुद्दे कहां जाएंगे, जनता कहां जायेगी, जनता सोचेगी क्या, इससे कोई फर्क ना तो राजनेता को पड़ता है और ना ही राजनीति करने वालों को. उन्हें जिंदाबाद के नारे से मतलब है और अगर जिंदाबाद नाम के साथ जुड़ गया तो सियासत एक कदम आगे बढ़ जाती है. यही संभवतः राजनीति का सबसे बड़ा फार्मूला है.
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बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और राजद आमने-सामने मैदान में हैं. अब सवाल यह उठ रहा है कि राजद के लोग जब प्रचार करने जाएंगे तो उसमें उनके मुद्दे में यह चीजें जरूर शामिल होंगी कि अगर हमारी सरकार बनेगी और अगर आप हमें जीताते हैं, तो यहां से दिल्ली तक हम मजबूत होंगे. क्योंकि कांग्रेस के साथ हमारा गठबंधन मजबूती से चल रहा है. यह अलग बात है कि कांग्रेस के नेता उनके सामने खड़े होकर इसी बात को बताएंगे, अब जनता समझेगी कि वह क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं. वह यह समझ ले कि राजद ही कांग्रेस है या कांग्रेस ही राजद है. या राजद और कांग्रेस ही सियासत है. अब दोनों सीटों पर हो रहे उपचुनाव की जनता इस बात को लेकर पूरे तौर पर कंफ्यूज है कि नेता बताने की क्या कोशिश कर रहे हैं.
राजनीति है तो गाने भी बड़े सटीक बन जाते हैं, 'हम तुम्हारे हैं तुम हमारे हो'. यह तो सत्ता के गलियारे में इसलिए कह दिया जाता है कि लाल कारपेट जूते के नीचे रहे. इसके लिए समझौते की कोई भी बुनियाद चल जाएगी. लेकिन चुनाव लड़ना है तो विरोध की बात तो करनी पड़ेगी. चलो यहां भी कुछ चला लेते हैं. राजद के नेता तेजस्वी यादव और कांग्रेस के नेता यह कहना शुरू कर चुके हैं कि महागठबंधन को तोड़ने का काम तेजस्वी ने किया.
तेजस्वी यह कहना शुरू कर चुके हैं कि हमने कांग्रेस को बता दिया था. लेकिन सवाल यह उठ रहे हैं कि राजद और कांग्रेस के जिस गठबंधन पर विश्वास करके जनता ने भरोसा किया था और जहां पर राजद के लोग जीते हैं, वहां कांग्रेस का जो वोट राजद को गया है और जहां कांग्रेस के लोग जीते हैं और उन्हें राजद का वोट गया है. वहां की जनता भी बात समझ ही नहीं पा रही है कि हम अपनी बात रखने के लिए राजद और कांग्रेस के गठबंधन को मजबूती से समझें या फिर अब हम मजबूर हो गए हैं.
क्योंकि गठबंधन का कोई वजूद तो बचा नहीं. वह तो गठबंधन वाली सियासत को दिया गया था. लेकिन अब सियासत में गठबंधन अलग राह पकड़ रहा है, तो घाटा तो जनता का है. क्योंकि उसने यह समझा ही नहीं कि आज वाली राजनीतिक जरूरत अगर कल जरूरी नहीं रही तो राजनीतिक दलों की जरूरत ही बदल जाएगी. मुद्दों पर जनता सिर्फ ठगी हुई महसूस करेगी.
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तारापुर और कुशेश्वरस्थान की जनता को इस बात की जानकारी है कि जो चुनाव होने जा रहा है, उसमें जो चेहरे आएंगे. उन मुद्दों की बहुत बड़ी सियासत लेकर खड़े करेंगे. क्योंकि वह अभी बताने की कोशिश करेंगे कि वही जीतेंगे तब ही उनका विकास होगा, नहीं तो ना तो क्षेत्र का विकास होगा और न विकास योजनाएं क्षेत्र तक पहुंचेंगी. लेकिन सवाल यह है कि जो लोग जीत कर गए उनका तो खूब विकास हुआ. राजनीतिक दल अब घराने बन गए हैं. पार्टी चलाने वाले सुप्रीमो.
लेकिन उस जनता का क्या? जिन्होंने उन्हें जीत दिला कर भेजा था. सवाल इसलिए उठ रहा है कि अगर सही मुद्दा विपक्ष उठा कर सरकार को नहीं देगा तो फिर जनता की बात उठ पाना बड़ी मुश्किल हो जाएगी. लेकिन यहां तो मुद्दे की सियासत में विपक्ष ही उलझ कर रह गया है. ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि राजद जब प्रचार करने आएगी और उसके सामने कांग्रेस के नेता होंगे तो राजद के लोग क्या कहेंगे.
राजद के लोग यह कहेंगे कि हमें जिता दीजिए और जो कांग्रेस के नेता हैं, वह हमारे समर्थन में हारने के बाद आकर खड़े हो जाएंगे. या फिर यह कहेंगे कि राजद ही तो मूल पार्टी है. कांग्रेस थोड़ी सी नासमझी में अलग राह पकड़ ली है. कांग्रेस के लोग भी संभवतः प्रचार यही करेंगे कि हमने राजद को हर जगह समर्थन दिया. मजबूत होने के बाद भी तेजस्वी यादव को नेता प्रतिपक्ष बनाया. सरकार में उप मुख्यमंत्री बने तो हम लोगों ने कभी उसका विरोध नहीं किया. लेकिन जो सीट हमारी थी, उसे भी राजद देने को तैयार नहीं हुई. तो हम चुनावी मैदान में आ गए हैं लेकिन राजद के साथ तो हमारा गठबंधन रहेगा ही. आप यह समझ लीजिए कि वोट आपको हमें देना है. हमारा गठबंधन किसके साथ होगा, इससे आपको क्या लेना-देना है.
विधानसभा की 2 सीटों पर होने वाले उपचुनाव में राजद और कांग्रेस की सियासत एक दूसरे के सामने लगभग इसी तरीके की खड़ी होने वाली है. क्योंकि जनता के सामने खड़े होने की जो मूल जरूरत है और मुद्दों की सियासत को दोनों राजनीतिक दल जनता के सामने रख पाएंगे. यह कह पाना बड़ा मुश्किल है. एक काम तेजस्वी यादव ने जरूर कर लिया कि जिन लोगों को तेज प्रताप यादव चुनावी मैदान में ले आए थे, कम से कम उनको वापस फिर से अपने खेमे में मिला लिया. जो अब उनके प्रतिद्वंदी नहीं है.
यह एक बड़ी बात है, नहीं तो राजनैतिक चौराहे पर खड़े सभी राजनीतिक दलों का यह पांचवां कोड भी चुनौती ही देता. लेकिन अब इसे तेजस्वी ने अपने पक्ष में कर लिया. कांग्रेस और तेजस्वी के बीच जिस तरह की जंग मुद्दों के साथ होनी है, उसमें कौन किसके साथ होगा, यह तो आने वाला वक्त बताएगा. लेकिन किसी शायर की पुरानी पंक्ति है जिसमें इन सियासतदानों के लिए समझौते की यही परिपाटी सबसे मजबूत है कि 'अगर मैं जीता तो तुम मेरे, अगर मैं हारा तो मैं तुम्हारा'. अब देखने वाली बात होगी कि इसमें जीतकर एक दूसरे के साथ खड़ा होने वाली सियासत किस तरीके से फिर से बिहार में जगह लेती है. इस चेहरे का सेहरा बांधेगा कौन?
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