पटना: ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन की ओर से पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के सेमिनार हॉल में सेमिनार का आयोजन किया गया. इसमें राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के दावे, हकीकत और चुनौतियां जैसी विषय पर चर्चा हुई. इस कार्यक्रम में अखिल भारतीय विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय शिक्षक संघ के राष्ट्रीय महासचिव प्रोफेसर अरुण कुमार और इतिहास विभाग के एचओडी डीजे नारायण समेत कई शिक्षाविद शामिल हुए.
'शिक्षा नीति के दावे और हकीकत में अंतर'
प्रोफेसर अरुण कुमार ने कहा कि शिक्षा सरकार के चरित्र को प्रभावित करती है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दावे और हकीकत में भारी अंतर्विरोध है. रोग की पहचान करना और निदान करने में भारी फर्क है. भारत बदलने की बात करने वाली शिक्षा नीति, छात्र और शिक्षकों के हितैषी होने की बात करती है. लेकिन ये छात्र, शिक्षक और जन विरोधी है.
'सरकार नहीं कर रही पहल'
इतिहास विभागाध्यक्ष प्रोफेसर डेजी नारायण ने कहा कि प्रस्तावित शिक्षा नीति आरक्षण और सामाजिक न्याय जैसे मसले पर खामोश है. आरक्षण छीनने की कोशिश हो रही है. इतिहास पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है. उन्होंने कहा कि मॉडल स्कूल, कॉलेज बनाने की बजाय सब स्कूलों को बेहतर करने के लिए सरकार को कोई ठोस पहल करनी चाहिए. लेकिन सरकार पहल नहीं कर रही है.
'भाषा के सवाल पर दक्षिणी राज्यों का विरोध सैद्धांतिक'
गौरतलब है कि आयोजित सेमिनार में वक्ताओं ने अपनी बात रखी. बताया गया कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को केंद्रीय और खास राजनीतिक शक्तियों की कठपुतली बनाने की मंशा जाहिर कर रही है. उन्होंने कहा कि भाषा के सवाल पर दक्षिणी राज्यों का विरोध सैद्धांतिक है. 1968 में जब त्रिभाषा के फॉर्मूला को पहली बार लाया गया था, तो यह तैयार किया गया था कि उत्तर भारत की भाषाएं दक्षिण भारत में एवं दक्षिण भारत की भाषाएं उत्तर भारत में पढ़ाए जाएंगे. लेकिन दक्षिण भारत में तमिलनाडु को छोड़ कर जितनी ईमानदारी से उत्तर भारतीय भाषाओं को पढ़ाया जाता है, हम उत्तर भारत में दक्षिण की भाषाओं को कहां सीख रहे हैं?