पटना: विधानसभा चुनाव प्रचार के आखिरी दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आखिरी दांव खेल दिया है. दरअसल, पूर्णिया में जनसभा को संबोधित करते हुए नीतीश कुमार ने राजनीतिक सन्यास का ऐलान कर दिया.
'जान लीजिए आज चुनाव प्रचार का आखिरी दिन है. परसों चुनाव है. यह चुनाव मेरा अंतिम चुनाव है. अत भला तो सब भला'- सीएम नीतीश कुमार
क्या जवाब देना हो रहा मुश्किल?
नीतीश कुमार ने नवंबर 2005 में पूर्ण बहुमत की सरकार के साथ प्रदेश की गद्दी संभाली थी. उस दौरान उन्होंने सुशासन, नौकरी, बाढ़ पर नियंत्रण, जंगलराज से बिहार को बाहर निकालने का दावा किया था. इन सब के बीच वर्तमान में बिहार जहां खड़ा है. वहां रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है. बाढ़ की विभीषिका भी प्रदेश में कम नहीं हुई. आपराध नियंत्रण को लेकर भी समय-समय पर सीएम पर सवाल उठते रहे हैं.
नीतीश कुमार के समकालिन नेता लालू यादव जेल में हैं. शरद यादव बीमार चल रहे हैं. जबकि रामविलास पासवान का हाल ही में निधन हो गया है. इन सब के बीच नीतीश के राजनीतिक साथियों के बच्चे यानी तेजस्वी और चिराग से नीतीश कुमार को लगातार चुनौती मिल रही है. नीतीश को अपने साथियों के बच्चों को ही जवाब देना मुश्किल हो रहा है.
रोजगार की बोली के बीच सियासत से जाने का ऐलान...
इस बात में कोई दो मत नहीं है कि नीतीश कुमार ने 90 के भययुक्त वातवरण से बाहर निकालकर प्रदेश में कानून का राज कायम किया. नीतीश कुमार के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो 2005 से वर्तमान तक बिहार में उन्होंने कई विकास कार्य किए. बिहार को रिबिल्ट किया है. लेकिन नीतीश कुमार अपने शासनकाल को लेकर नई पीढ़ी नीतीश से रोजगार के मुद्दे पर प्रखर होकर सवाल पूछ रहे हैं. इस वजह से 69 साल के नीतीश के लिए इस बार का चुनाव सबसे मुश्किल चुनाव कहा जा रहा है.
1977 में शुरू किया था राजनीतिक सफर
साल 1977 में देश भर में जनता पार्टी की धूम थी. नीतीश कुमार ने भी अपना पहला चुनाव जनता पार्टी के टिकट पर लड़ा था. हालांकि, उस दौरान नीतीश बुरी तरह से चुनाव हार गए थे. यह वही दौर था जब कर्पूरी ठाकुर बिहार की गद्दी संभालने के बाद कैंप लगाकर इकट्ठे तौर पर इंजीनियरों और डॉक्टरों को नौकरी दे रहे थे. नीतीश कुमार पर भी नौकरी करने का भारी दबाव था. लेकिन इरादे के पक्के नीतीश ने नौकरी को दरकिनार करते हुए राजनीति में एक बार फिर से हाथ-पांव चलाना शुरू किया और 1980 का विधानसभा चुनाव लड़े. इस चुनाव में भी नीतीश कुमार को पराजय का मुंह देखना पड़ा. यह दो चुनावों में उनकी लगातार हार थी. जिद को जुनून में बदलते हुए नीतीश ने में पहली बार सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन हुए. हालांकि, उनकी सरकार महज 7 दिनों में गिर गई थी.
बिहार की राजनीति में डटे रहे नीतीश
नीतीश कुमार के जीवन में ऐसे कई मौके आए, जब लगा कि प्रदेश की राजनीति में नीतीश कुमार का सबकुछ समाप्त हो गया है. लेकिन अपनी हर विफलता को सफलता की सीढ़ी बनते हुए नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में लगातार उभरते चले गए. बात अगर 1995 के विधानसभा चुनाव की करें तो उनकी समता पार्टी बुरी तरह से हार गई थी. पार्टी के कई लोग इधर से उधर चले गए. लेकिन नीतीश बिहार की राजनीति में धवल ध्रुव की तरह डटे रहे.
....जब बीजेपी से तोड़ा नाता
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी बड़े बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए. इसी दौर में नीतीश ने अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल की और भाजपा और राजद-कांग्रेस को पटखनी देने की नियत से बिहार में लोकसभा के सभी 40 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतार दिया था. शायद नीतीश को यह गलतफहमी हो गई थी कि बिहार की राजनीति में उनका कद इतना बड़ा हो गया था कि वे अकेले ही एनडीए और महागठबंधन को हरा देंगे.
लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में नीतीश कुमार को महज 2 सीटों से संतोष करना पड़ा था. इन नतीजों ने नीतीश कुमार को बेहद निराश किया था. जिसके बाद सियासी दांव चलते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जीतन राम मांझी को बिहार की कुर्सी सौंप दी थी. हालांकि, नीतीश का यह दांव भी राजनीतिक सांचे में फिट नहीं बैठा. इन सब के बीच नीतीश ने 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव का दामन थाम विधानसभा का चुनाव लड़ा था.
देश में चल रही थी मोदी की आंधी
उस समय देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही थी. बीजेपी इस आंधी पर सवार होकर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर जैसी राज्यों में सरकार बना चुकी थी. उस दौर में नीतीश और लालू ने मिलकर मोदी और भाजपा को चुनौती दी और तमाम सर्वेक्षणों को ध्वस्त करते हुए महागठबंधन ने बिहार चुनाव में जबरदस्त सफलता हासिल की थी. हालांकि, अपने धुर विरोधी लालू यादव के साथ नीतीश ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाए और महज 18 महीने के बाद लालू का साथ छोड़ अपने पूराने घर एनडीए में वापस आ गए. नीतीश के इस कदम के बाद उनके विरोधियों ने उन्हें जनादेश का अपमान करने वाला नेता तक कहा था.
भाजपा से नाता तोड़ना नीतीश के लिए बड़ी हिम्मत की बात थी. उस दौर में ढेर सारी राजनीतिक बातें हुईं. भाजपा और सहयोगी दलों ने इसे जनादेश का अपमान से लेकर पीठ में छुरा घोंपने जैसे कारनामे के रूप में प्रचारित किया था. इन सब के बीच नीतीश चुपचाप काम करते रहे.
वर्तमान राजनीति में फिट नहीं बैठ पा रहे नीतीश!
गौरतलब है कि नीतीश कुमार या यूं कहे बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए के खेवनहार अपने पिछले 15 सालों के राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर में हैं. बार-बार पाला बदलने के कारण,वह नीतीश कुमार जो एक समय भरोसे का दूसरा पर्याय माने जाते थे. वह जनता के पाले में फिट नहीं बैठ पा रहे है.
इन सब के बीच नीतीश ने इस बार के विधानसभा चुनाव को अपना आखिरी चुनाव बताया है. बेशक, बिहार में अब भी बहुत कुछ होना बाकी है. लेकिन यह भी इतनी ही सही बात है कि नीतीश ने मुख्यमंत्री रहते बिहार के लिए बहुत कुछ किया है. जिसे भविष्य के इतिहास में याद किया जाएगा.