पटना: एक सप्ताह पहले तक अपना रौद्र रूप दिखाने वाले तेजप्रताप यादव (Tej Pratap Yadav) इन दिनों वृंदावन में अपने आध्यात्मिक गुरु वल्लभाचार्य की शरण में हैं. उनकी मानें तो जब भी उनका मन अशांत होता है, वे वहां चले आते हैं. इसका मतलब ये हुआ कि तेज अब शांत पड़ गए हैं. ऐसे में अहम सवाल उठता है कि वे खुद ही मान गए हैं या पिता लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) के 'तेवर' ने उन्हें बैकफुट पर आने को विवश कर दिया है. आरजेडी और लालू को जानने वाले कहते हैं कि कुछ भी हो जाए लालू को पार्टी में 'बगावत' मंजूर नहीं है, फिर चाहे वो उनका अपना बेटा ही क्यों न हो.
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नाराज होना, बयान देकर पार्टी को परेशानी में डाल देना और फिर मान जाना तेजप्रताप की पुरानी आदत रही है, लेकिन इस बार बात बहुत आगे निकल गई थी. न केवल उन्होंने जगदानंद सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, बल्कि पहली बार तेजस्वी यादव पर भी सियासी प्रहार करने की कोशिश की थी. तेजस्वी के सलाहकार संजय यादव पर परिवार में फूट डालने और उनसे अपनी जान को खतरा बताकर बड़ा बखेड़ा कर दिया था.
जगदानंद सिंह के खिलाफ तो उन्होंने सार्वजनिक तौर पर मीडिया के सामने आरजेडी को हथियाने का आरोप लगा दिया था. लालू से उनके खिलाफ कार्रवाई करने की मांग कर दी. एक्शन नहीं लेने की सूरत में कोर्ट तक उन्हें घसीटने की धमकी दे दी. एकबारगी तो ऐसा लगा कि आरजेडी और लालू परिवार में अबकी बार टूट होकर रहेगी, लेकिन लालू ने अपने तेवर से आसमां में उड़ते तेज को जमीन पर ला दिया.
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लालू के तेवर और अडिग फैसले की बात आगे करेंगे, लेकिन उससे पहले ये समझना जरूरी होगा कि उग्र तेजप्रताप किस तरह शांत पड़ते चले गए. इसके लिए पिछले गुरुवार से इस गुरुवार के बीच का जिक्र होना जरूरी है. वो इसलिए क्योंकि पिछले गुरुवार यानी 19 अगस्त को ही तेजप्रताप ने जगदानंद के खिलाफ मीडिया के सामने कार्रवाई और कोर्ट जाने की बात कही थी. उस दिन तेजप्रताप ने जहां जगदानंद सिंह को जमकर खरी-खोटी सुनाई, वहीं एक और सीनियर लीडर शिवानंद तिवारी पर भी खूब भड़ास निकाली. तेजप्रताप ने कहा, 'वह पार्टी तोड़ना चाहते हैं. उन्होंने ही पिताजी को जेल भेजा था. यह सभी को पता है. क्या यह बात जगदानंद सिंह नहीं जानते हैं. ऐसे ही लोग इन्हें सपोर्ट करते हैं जो पार्टी तोड़ते हैं. सच्चाई सबके सामने है.
इसके अगले रोज यानी शुक्रवार को जगदानंद सिंह की शिकायत करने के लिए तेजप्रताप अपने छोटे भाई तेजस्वी से मिलने राबड़ी आवास पहुंच गए. हालांकि मुलाकात हो नहीं पाई और उन्हें बैरंग ही लौटना पड़ा. इसके बाद बाहर निकलकर गुस्से में तेज प्रताप ने कहा, तेजस्वी के पीए संजय यादव ने मुलाकात नहीं होने दी. वह नहीं मिलने दे रहे हैं.'
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उसी दिन यानी 20 अगस्त को तेजप्रताप से मिले बगैर तेजस्वी दिल्ली के लिए निकल गए. जाते-जाते भाई को नसीहत दे दी कि, 'हमारे संस्कार में है, माता-पिता ने सिखाया है कि बड़ों की इज्जत करनी चाहिए. साथ ही अनुशासन में रहना चाहिए.'
तेजस्वी के जाने के अगले ही दिन यानी 21 अगस्त को तेजप्रताप भी सड़क मार्ग से दिल्ली के लिए रवाना हो गए. बताया गया कि रक्षा बंधन पर अपनी बहनों से राखी बंधवाने के लिए दिल्ली जा रहे हैं, लेकिन एक सच ये भी था कि लालू तक वे अपनी शिकायत पहुंचाना चाहते थे.
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बहरहाल 22 अगस्त को रक्षा बंधन के मौके पर वे दिल्ली पहुंचे और देर शाम बहन मीसा भारती के घर भी गए राखी बंधवाने. लालू यादव भी मीसा के आवास पर ही इन दिनों रह रहे हैं, लिहाजा पिता-पुत्र की मुलाकात हुई और देर रात तक बातें हुईं. अगले दिन यानी 23 अगस्त को भी पिता-पुत्र के बीच लंबी बातचीत चली.
माना जाता है कि इन्हीं दो दिनों में लालू ने तेजप्रताप को सियासत, परिवार का महत्व, पार्टी को चलाने के तौर-तरीके और दुनियादारी पर ऐसी क्लास ली कि तेज को बात समझ में आ गई. लालू के कड़े तेवर ने तेज को अपने विद्रोही तेवर ढीले करने पर मजबूर कर दिया.
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लालू की 'डांट' का ही असर था कि अगले ही रोज यानी 24 अगस्त को तेजप्रताप का अंदाज फिर से उसी मस्तमौला तेजप्रताप वाला हो गया, जिसके लिए वो जाने जाते हैं. दिल्ली के बसंत कुंज स्थित मॉल में घूमते और मस्ती करते दिखे. दोस्तों के साथ वे बेहद कूल नजर आए.
वहीं, बुधवार यानी 25 अगस्त को लालू से आज्ञा लेकर तेजप्रताप वृंदावन निकल गए. जहां उन्होंने आध्यात्मिक गुरु वल्लभाचार्य से मिलकर आशीर्वाद लिया. मीडिया से पूछने पर कहा, 'जब भी उनका मन अशांत होता है तो वह अपने गुरु के पास आ जाते हैं.' हालांकि ये नहीं बताया कि किस बात से मन अशांत है.
बहरहाल अब आते हैं लालू पर. आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद पर परिवारवाद और पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होने के तमाम आरोप लगते रहते हैं, लेकिन उन्हें करीब से जानने वाले और बिहार की राजनीति को समझने वाले बखूबी जानते हैं कि लालू किसी भी सूरत में अपनी पार्टी में बगावत मंजूर नहीं करते. जब से उन्होंने अपनी पार्टी बनाई है, अपने हिसाब से उसे चलाया है. परिवारवाद के आरोपों के बावजूद कभी परिवार को पार्टी से बड़ा होने नहीं दिया. पार्टी की एकजुटता के सामने जो कोई आया, उससे निपटने में देर नहीं की. साले साधु-सुभाष को पार्टी और परिवार से निकाल फेंककर इसे वो पहले ही साबित कर चुके हैं.
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दरअसल ये भी सच है कि लालू ने जब भी कोई बड़ा फैसला लिया है, पूरी पार्टी उनके साथ परिवार की तरह खड़ी रही. न किसी ने सवाल उठाया और न ही किसी ने खुलकर मुखालफत की. याद करिए 5 जुलाई 1997 के दिन को, जब चारा घोटाले में जेल जाने के मुहाने पर खड़े लालू ने जनता दल को तोड़कर राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था. जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह और अब्दुल बारी सिद्दीकी जैसे वरिष्ठ नेताओं के रहते पत्नी राबड़ी देवी को अपनी जगह मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप दी. तब भी किसी ने उनके फैसले पर सवाल नहीं उठाया. मीडिया से लेकर लोगबाग में लालू के फैसले को सही ठहराते रहे और लालू की गैरमौजूदगी (जेल) में राबड़ी को सरकार और पार्टी चलाने में पूरा सहयोग किया.
वहीं दूसरा बड़ा फैसला, जो लालू यादव ने 2015 के विधानसभा चुनाव में मिली महागठबंधन की जीत के बाद लिया. नीतीश कुमार की अगुवाई में बन रही सरकार में अब्दुल बारी सिद्दीकी पर छोटे बेटे तेजस्वी को तरजीह देते हुए उप-मुख्यमंत्री बना दिया. इसी सरकार में बड़े बेटे तेजप्रताप को स्वास्थ्य मंत्री बनवाया, लेकिन न तो सिद्दीकी और न ही किसी दूसरे बड़े नेताओं ने लालू की खिलाफत की. 1997 की तरह ही लालू के निर्णय को सर-आंखों पर लेते हुए शिद्दत से कबूल किया.
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अब लालू ने अपना एक और तेवर दिखाया है. प्रदेश अध्यक्ष और उनके संघर्ष के दिनों के भरोसेमंद साथी जगदानंद सिंह के सम्मान को बचाने के लिए लालू ने कड़ा फैसला लिया. बेटे के खिलाफ कार्रवाई तो नहीं कि लेकिन जगदा बाबू के खिलाफ एक्शन लेने की बेटे की जिद को पूरी तरह से ठुकरा दिया. साथ ही जगदानंद को बतौर प्रदेश अध्यक्ष हर फैसले लेने के लिए खुली छूट दे दी. यही वजह है कि जगदानंद सिंह अपने उसी अंदाज और अनुशासित माहौल में आरजेडी दफ्तर में कार्यकर्ताओं से मिल रहे हैं, जिसे तेजप्रताप 'हिटलर शाही' करार दे चुके हैं. वहीं दूसरी तरफ तेजप्रताप दिल्ली के मॉल में मस्ती और वृंदावन में मन की शांति की खोज कर रहे हैं.
जानकार कहते हैं कि देखा जाए तो 1997 और 2015 की तुलना में इस बार फैसला लेना लालू के लिए कहीं ज्यादा मुश्किल रहा होगा, क्योंकि इस बार दांव पर पार्टी और परिवार दोनों थे. पार्टी मतलब प्रदेश अध्यक्ष, परिवार मतलब तेजप्रताप. ऐसे में लालू ने तेजप्रताप को शांत कर यह जता दिया कि पार्टी और परिवार दोनों जरूरी है, लेकिन पार्टी को नुकसान पहुंचाकर परिवार को खुश नहीं किया जा सकता है. नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी कड़ा संदेश दिया कि जब वे पार्टी के लिए परिवार के लोगों की जिद के सामने भी नहीं झुकेंगे तो बाकी का क्या कहना.
इसके साथ ही लालू ने विरोधियों को भी यह बताने की कोशिश की है कि भले ही आरजेडी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होने के जितने भी आरोप लगा लें, लेकिन पार्टी की राह में जो भी रोड़ा बनने की कोशिश करेगा, उसे बख्शा नहीं जाएगा. जगदानंद सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं का सम्मान हर किसी को करना होगा, फिर चाहे उनके परिवार का सदस्य (तेजप्रताप) ही क्यों न हो.