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नीतीशे नम: BJP को मंजूर नहीं, डबल इंजन से काम तो एक का क्यों नाम?

डबल इंजन से बिहार में सरकार चल रही है. ऐसे में सिर्फ एक इंजन पर ही पूरी गाड़ी को चलाने का श्रेय दिया जाए यह बीजेपी (BJP) के नेताओं को खटक रहा है. बिहार में जेडीयू (JDU) और भाजपा की चल रही सरकार में विकास के काम पर नीतीश का नाम चला जाता है. यह बीजेपी के नेताओं को खटक रहा है.

BJP politics
भाजपा की सियासत
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Published : Jun 27, 2021, 10:52 PM IST

पटना: भाजपा (BJP) पूरे देश में भले ही राम की सियासत करती हो, लेकिन जब राजनीतिक फायदे की बात हो तो नाम की सियासत से अलग जा पाना उसके लिए मुश्किल हो जाता है. बिहार प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में बिहार में हो रहे विकास को लेकर किसी एक नाम के सहारे जाने पर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को आपत्ति है.

यह भी पढ़ें- नड्डा को RJD का जवाब, 'जंगलराज तो NDA के शासनकाल में है, सामाजिक न्याय का था लालू का कार्यकाल'

नाम में भी बराबर हो हिस्सेदारी
डबल इंजन से बिहार में सरकार चल रही है. ऐसे में सिर्फ एक इंजन पर ही पूरी गाड़ी को चलाने का श्रेय दिया जाए यह बीजेपी के नेताओं को खटक रहा है. बिहार में जेडीयू और भाजपा की चल रही सरकार में विकास के काम पर नीतीश का नाम चला जाता है. यह बीजेपी के नेताओं को खटक रहा है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इसे कोर टीम के बीच रख भी दिया कि अगर काम दोनों मिलकर करें तो नाम में हिस्सेदारी भी बराबर की रहनी चाहिए.

बदलते बिहार पर सियासत
दरअसल बिहार में जिस तरीके की राजनीति बदली है. उससे बीजेपी का चिंतित होना लाजमी है. 2015 में जिस सियासी नाव पर बीजेपी सवार हुई और जिस मांझी को अपना खेवनहार बनाया था. वे नीतीश के खाते में चले गए. बीजेपी को लगता था कि मांझी के साथ रहने से एक बड़े वोट बैंक पर कब्जा रहेगा, लेकिन नीतीश ने वहां सेंधमारी कर दी.

अहम हिस्सेदार थे रामविलास पासवान
दलितों की सियासत में बीजेपी ऊपर इसलिए बैठी थी कि रामविलास पासवान बीजेपी के अहम हिस्सेदार थे. 2020 के चुनाव में जिस तरीके से चिराग पासवान ने नीतीश के आगे सियासत में मुंह चिढ़ाने का खेल खेला था, उसे बीजेपी अपने जीत का हिस्सा माने बैठी थी. लेकिन नीतीश कुमार ने लोजपा को तोड़कर चिराग को पटखनी दी और बीजेपी की दूसरी नीतियों की हवा निकाल दी.

लाजमी है बीजेपी का छटपटाना
ऐसे में नाम के लिए बीजेपी का छटपटाना लाजमी है. क्योंकि दलित सियासत को जिस रूप में नीतीश कुमार ने महादलित में बैठकर अपनी राजनीति को स्थापित किया था उसमें रामविलास पासवान को साथ रखकर बीजेपी ने कुछ हिस्सेदारी पर कब्जा तो जमाया था, लेकिन अब लोजपा को तोड़कर नीतीश कुमार ने सारी राजनीतिक रणनीति पर पानी फेर दिया. ऐसे में सियासत में दलित और दलगत चेहरे पर किसी एक मजबूत नाम का होना जरूरी है. इसी नाम की सियासत बिहार के भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में फिर से चिंता का विषय बना है.

भाजपा को स्थापित करने में लालू का योगदान
बीजेपी को बिहार में स्थापित करने में लालू यादव का बहुत बड़ा योगदान था. लालू बीजेपी के विरोध की जितनी बात करते थे बिना कुछ किए बीजेपी को जगह मिलती गई. उस समय जो लोग राजनीति में थे उसमें से कई अब बिहार की सियासत में सिर्फ नाम भर रह गए हैं. बात नंदकिशोर यादव की करें या फिर प्रेम कुमार की. दोनों लगभग रिटायरमेंट मोड में आ गए हैं. सुशील मोदी जो कभी बीजेपी के बड़े चेहरे के रूप में जाने जाते थे. उन्होंने नीतीश के पिछलग्गू की छवि पाई थी. बीजेपी ने उनसे किनारा कर लिया है.

दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ाने की परेशानी
अब बीजेपी के सामने सबसे बड़ी परेशानी बिहार में दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ाने की है. इस पर काम भी बीजेपी ने शुरू किया है, लेकिन नामों को देने में जो देर हुई उसकी भरपाई में देरी होगी यह तय है. 2020 की राजनीति के बाद बीजेपी ने बिहार में नाम के लिए सबसे बड़ा चेहरा सैयद शाहनवाज हुसैन के रूप में दिया. वह बड़े रणनीतिकार माने जाते हैं, लेकिन उन्हें भी बिहार की भाजपा वाली राजनीति को गति देने के लिए अभी वक्त की जरूरत है. जिस सियासत को नीतीश कुमार ने आज के वक्त में पकड़ा है, उसकी काट के लिए बीजेपी को नई रणनीति और मजबूती की जरूरत महसूस होने लगी है.

पहले नाक की अब आंख की लड़ाई
देश की सबसे बड़ी राजनीतिक गठबंधन और सबसे लंबे समय तक चले इस गठबंधन के बीच जब विरोध आया था तो उस समय 'नाम' के बीच 'नाक' की लड़ाई आ गई थी. 2013 में जब 'नमो का नारा' लेकर बीजेपी 2014 फतह के लिए उतरी थी तो दो मॉडल की चर्चा काफी जोरों पर थी. नरेंद्र मोदी के 'गुजरात का मॉडल' और नीतीश कुमार के 'विकास का मॉडल'. इस मॉडल पर सियासत भी खूब हुई.

2014 के जो चुनाव परिणाम आए उसमें नरेंद्र मोदी के गुजरात का मॉडल तो चला लेकिन नीतीश के विकास का मॉडल बिहार में ही फेल हो गया. 2017 में एक बार फिर जब बीजेपी और जदयू एक हुई तो 'नाक' के बजाए 'आंख' की लड़ाई शुरू हो गई. विकास पर हर कोई एक-दूसरे की उस नजर को परखने लगा जो नजरिए में राजनीति का रंग समेटे हुए हो.

नई राजनीतिक आंख से बिहार को देखने की तैयारी
बीजेपी बिहार में नाम के लिए नई राजनीतिक आंख से बिहार को देखने की तैयारी में है. नीतीश कुमार को बिहार नए तरीके से दिखे इसके लिए वह दिल्ली में अपनी आंखों को ठीक करवा रहे हैं. ऐसे में बिहार की सियासत जो अपनी आंखों से देख रही है इसमें विकास के लिए लिखे जाने वाले शिलापट्ट पर किसका नाम कितना चमकदार हो इसकी तैयारी शुरू हो गई है. लड़ाई भी इसी बात की है कि जब विकास के लिए डबल इंजन और दो नाम की सरकार चल रही है तो किसी एक के नाम पर बिहार गुणगान करता रहे यह ठीक नहीं.

राजनीतिक तैयारी का शिगूफा
भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में नाम की लड़ाई का एक आधार तो जेपी नड्डा ने जरूर रख दिया, लेकिन उन्हें भी पता है कि इस लड़ाई के लिए कितनी कम तैयारी है. बीजेपी के सभी नेताओं को यह पता है कि जो लोग पुराने थे वे नीतीश का ही नाम गाते थे. यही वजह है कि आज विकास के हर शिलापट्ट पर नीतीश का ही नाम चमकता है. उस नाम की कमी अब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को खटकने लगी है. इसमें कोई तात्कालिक प्रभाव होगा, नहीं कहा जा सकता. क्योंकि बीजेपी अपने किसी सहयोगी को उत्तर प्रदेश चुनाव के नजरिए से भी नाराज नहीं करना चाहेगी.

नाम की आंधी से बुझा चिराग
नीतीश एक ऐसा नाम जरूर हैं जो उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले अगर नाराज हुए तो विपक्ष को एक मौका जरूर मिल जाएगा. इस बात को कहने के लिए कि जो बीजेपी के साथ होता है बीजेपी उनके साथ कभी नहीं होती. बिहार में यह शिगूफा छोड़ा गया है, लेकिन इसका उद्देश्य बिल्कुल साफ है कि जिस विषय पर इस समूह को रखा गया है, उसके पीछे की रणनीति बीजेपी का वह आधार है, जिसमें जाति के जिस चिराग को जलाकर रखना चाहती थी नीतीश के नाम की आंधी ने उसे एक झटके में बुझा दिया.

बीजेपी को झुकना होगा
बिहार भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में जो चीजें रखी गईं उससे एक बात तो साफ है कि बीजेपी को अपनी नई तैयारी के लिए झुकना होगा. यह भी साफ है कि नीतीश के साथ रहने पर बीजेपी के लिए नाम को बड़ा कर पाना अभी मुश्किल है. सीटों में आगे बढ़ जाने के बाद भी नीतीश के नाम के बगैर बिहार में सरकार चला पाना बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को मुश्किल दिखा था. नीतीश के रहते बीजेपी के किसी नेता का नीतीश से बड़ा नाम हो यह संभव नहीं है. बीजेपी ने तैयारी शुरू की है. इससे एक बात तो साफ है कि कहीं ना कहीं प्रदेश में एक बड़े नाम को लेकर बीजेपी के मन में कोई नीति जरूर बैठ गई है, जिसकी बदौलत किसी रणनीति और राजनीति को खड़ी की जा सके.

यह भी पढ़ें- Exclusive: पूर्व DGP पांडे बने पुजारी, कहा- 'मैं राजनीति के लायक नहीं'

पटना: भाजपा (BJP) पूरे देश में भले ही राम की सियासत करती हो, लेकिन जब राजनीतिक फायदे की बात हो तो नाम की सियासत से अलग जा पाना उसके लिए मुश्किल हो जाता है. बिहार प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में बिहार में हो रहे विकास को लेकर किसी एक नाम के सहारे जाने पर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को आपत्ति है.

यह भी पढ़ें- नड्डा को RJD का जवाब, 'जंगलराज तो NDA के शासनकाल में है, सामाजिक न्याय का था लालू का कार्यकाल'

नाम में भी बराबर हो हिस्सेदारी
डबल इंजन से बिहार में सरकार चल रही है. ऐसे में सिर्फ एक इंजन पर ही पूरी गाड़ी को चलाने का श्रेय दिया जाए यह बीजेपी के नेताओं को खटक रहा है. बिहार में जेडीयू और भाजपा की चल रही सरकार में विकास के काम पर नीतीश का नाम चला जाता है. यह बीजेपी के नेताओं को खटक रहा है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इसे कोर टीम के बीच रख भी दिया कि अगर काम दोनों मिलकर करें तो नाम में हिस्सेदारी भी बराबर की रहनी चाहिए.

बदलते बिहार पर सियासत
दरअसल बिहार में जिस तरीके की राजनीति बदली है. उससे बीजेपी का चिंतित होना लाजमी है. 2015 में जिस सियासी नाव पर बीजेपी सवार हुई और जिस मांझी को अपना खेवनहार बनाया था. वे नीतीश के खाते में चले गए. बीजेपी को लगता था कि मांझी के साथ रहने से एक बड़े वोट बैंक पर कब्जा रहेगा, लेकिन नीतीश ने वहां सेंधमारी कर दी.

अहम हिस्सेदार थे रामविलास पासवान
दलितों की सियासत में बीजेपी ऊपर इसलिए बैठी थी कि रामविलास पासवान बीजेपी के अहम हिस्सेदार थे. 2020 के चुनाव में जिस तरीके से चिराग पासवान ने नीतीश के आगे सियासत में मुंह चिढ़ाने का खेल खेला था, उसे बीजेपी अपने जीत का हिस्सा माने बैठी थी. लेकिन नीतीश कुमार ने लोजपा को तोड़कर चिराग को पटखनी दी और बीजेपी की दूसरी नीतियों की हवा निकाल दी.

लाजमी है बीजेपी का छटपटाना
ऐसे में नाम के लिए बीजेपी का छटपटाना लाजमी है. क्योंकि दलित सियासत को जिस रूप में नीतीश कुमार ने महादलित में बैठकर अपनी राजनीति को स्थापित किया था उसमें रामविलास पासवान को साथ रखकर बीजेपी ने कुछ हिस्सेदारी पर कब्जा तो जमाया था, लेकिन अब लोजपा को तोड़कर नीतीश कुमार ने सारी राजनीतिक रणनीति पर पानी फेर दिया. ऐसे में सियासत में दलित और दलगत चेहरे पर किसी एक मजबूत नाम का होना जरूरी है. इसी नाम की सियासत बिहार के भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में फिर से चिंता का विषय बना है.

भाजपा को स्थापित करने में लालू का योगदान
बीजेपी को बिहार में स्थापित करने में लालू यादव का बहुत बड़ा योगदान था. लालू बीजेपी के विरोध की जितनी बात करते थे बिना कुछ किए बीजेपी को जगह मिलती गई. उस समय जो लोग राजनीति में थे उसमें से कई अब बिहार की सियासत में सिर्फ नाम भर रह गए हैं. बात नंदकिशोर यादव की करें या फिर प्रेम कुमार की. दोनों लगभग रिटायरमेंट मोड में आ गए हैं. सुशील मोदी जो कभी बीजेपी के बड़े चेहरे के रूप में जाने जाते थे. उन्होंने नीतीश के पिछलग्गू की छवि पाई थी. बीजेपी ने उनसे किनारा कर लिया है.

दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ाने की परेशानी
अब बीजेपी के सामने सबसे बड़ी परेशानी बिहार में दूसरी पंक्ति के नेताओं को आगे बढ़ाने की है. इस पर काम भी बीजेपी ने शुरू किया है, लेकिन नामों को देने में जो देर हुई उसकी भरपाई में देरी होगी यह तय है. 2020 की राजनीति के बाद बीजेपी ने बिहार में नाम के लिए सबसे बड़ा चेहरा सैयद शाहनवाज हुसैन के रूप में दिया. वह बड़े रणनीतिकार माने जाते हैं, लेकिन उन्हें भी बिहार की भाजपा वाली राजनीति को गति देने के लिए अभी वक्त की जरूरत है. जिस सियासत को नीतीश कुमार ने आज के वक्त में पकड़ा है, उसकी काट के लिए बीजेपी को नई रणनीति और मजबूती की जरूरत महसूस होने लगी है.

पहले नाक की अब आंख की लड़ाई
देश की सबसे बड़ी राजनीतिक गठबंधन और सबसे लंबे समय तक चले इस गठबंधन के बीच जब विरोध आया था तो उस समय 'नाम' के बीच 'नाक' की लड़ाई आ गई थी. 2013 में जब 'नमो का नारा' लेकर बीजेपी 2014 फतह के लिए उतरी थी तो दो मॉडल की चर्चा काफी जोरों पर थी. नरेंद्र मोदी के 'गुजरात का मॉडल' और नीतीश कुमार के 'विकास का मॉडल'. इस मॉडल पर सियासत भी खूब हुई.

2014 के जो चुनाव परिणाम आए उसमें नरेंद्र मोदी के गुजरात का मॉडल तो चला लेकिन नीतीश के विकास का मॉडल बिहार में ही फेल हो गया. 2017 में एक बार फिर जब बीजेपी और जदयू एक हुई तो 'नाक' के बजाए 'आंख' की लड़ाई शुरू हो गई. विकास पर हर कोई एक-दूसरे की उस नजर को परखने लगा जो नजरिए में राजनीति का रंग समेटे हुए हो.

नई राजनीतिक आंख से बिहार को देखने की तैयारी
बीजेपी बिहार में नाम के लिए नई राजनीतिक आंख से बिहार को देखने की तैयारी में है. नीतीश कुमार को बिहार नए तरीके से दिखे इसके लिए वह दिल्ली में अपनी आंखों को ठीक करवा रहे हैं. ऐसे में बिहार की सियासत जो अपनी आंखों से देख रही है इसमें विकास के लिए लिखे जाने वाले शिलापट्ट पर किसका नाम कितना चमकदार हो इसकी तैयारी शुरू हो गई है. लड़ाई भी इसी बात की है कि जब विकास के लिए डबल इंजन और दो नाम की सरकार चल रही है तो किसी एक के नाम पर बिहार गुणगान करता रहे यह ठीक नहीं.

राजनीतिक तैयारी का शिगूफा
भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में नाम की लड़ाई का एक आधार तो जेपी नड्डा ने जरूर रख दिया, लेकिन उन्हें भी पता है कि इस लड़ाई के लिए कितनी कम तैयारी है. बीजेपी के सभी नेताओं को यह पता है कि जो लोग पुराने थे वे नीतीश का ही नाम गाते थे. यही वजह है कि आज विकास के हर शिलापट्ट पर नीतीश का ही नाम चमकता है. उस नाम की कमी अब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को खटकने लगी है. इसमें कोई तात्कालिक प्रभाव होगा, नहीं कहा जा सकता. क्योंकि बीजेपी अपने किसी सहयोगी को उत्तर प्रदेश चुनाव के नजरिए से भी नाराज नहीं करना चाहेगी.

नाम की आंधी से बुझा चिराग
नीतीश एक ऐसा नाम जरूर हैं जो उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले अगर नाराज हुए तो विपक्ष को एक मौका जरूर मिल जाएगा. इस बात को कहने के लिए कि जो बीजेपी के साथ होता है बीजेपी उनके साथ कभी नहीं होती. बिहार में यह शिगूफा छोड़ा गया है, लेकिन इसका उद्देश्य बिल्कुल साफ है कि जिस विषय पर इस समूह को रखा गया है, उसके पीछे की रणनीति बीजेपी का वह आधार है, जिसमें जाति के जिस चिराग को जलाकर रखना चाहती थी नीतीश के नाम की आंधी ने उसे एक झटके में बुझा दिया.

बीजेपी को झुकना होगा
बिहार भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में जो चीजें रखी गईं उससे एक बात तो साफ है कि बीजेपी को अपनी नई तैयारी के लिए झुकना होगा. यह भी साफ है कि नीतीश के साथ रहने पर बीजेपी के लिए नाम को बड़ा कर पाना अभी मुश्किल है. सीटों में आगे बढ़ जाने के बाद भी नीतीश के नाम के बगैर बिहार में सरकार चला पाना बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को मुश्किल दिखा था. नीतीश के रहते बीजेपी के किसी नेता का नीतीश से बड़ा नाम हो यह संभव नहीं है. बीजेपी ने तैयारी शुरू की है. इससे एक बात तो साफ है कि कहीं ना कहीं प्रदेश में एक बड़े नाम को लेकर बीजेपी के मन में कोई नीति जरूर बैठ गई है, जिसकी बदौलत किसी रणनीति और राजनीति को खड़ी की जा सके.

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