पटना: बिहार (Bihar Politics) में जमीन और जनाधार बनाने में जुटे राजनीतिक दलों के लिए नए चेहरों की तलाश चल रही है और यह राष्ट्रीय पार्टी के लिए ज्यादा मायने रख रही है. बिहार के राजनीतिक दलों में नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) को छोड़ दिया जाए तो सभी नेताओं ने अपनी दूसरी पीढ़ी को मैदान में उतर दिया है और इसमें राजद (RJD) और लोजपा (LJP) का नाम सबसे ऊपर है.
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दिल्ली के विवाद से नेता बने कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) वाम दलों के लिए बिहार में एक चेहरे के रूप में दिखे जरूर थे, लेकिन कांग्रेस का हाथ पकड़ कन्हैया ने बिहार में तेजस्वी की राजनीति को खुला रास्ता दे दिया. हालांकि यह विवाद कभी नहीं था कि तेजस्वी, कांग्रेस और वाम दल के लिए उनके किसी बड़े नेता से कम थे. लेकिन उसके बाद भी बिहार में चेहरे की सियासत को लेकर चर्चा जरूर होती थी.
बिहार में 2020 के लिए हुए विधानसभा चुनाव में राजद, कांग्रेस और वाम दलों का महागठबंधन बिहार में 2020 में बनी नीतीश सरकार का विरोधी दल बना तो तेजस्वी यादव विरोधी दल के नेता बन गए. राबड़ी देवी के आवास पर हुई बैठक में इस पर मुहर लग गयी. 2020 में बिहार में जो चुनाव परिणाम आए हैं, उसके लिए पूरी तरह से तेजस्वी यादव ही जिम्मेवार हैं.
चुनाव की रणनीति से लेकर टिकट बंटवारे तक तेजस्वी यादव की हर जगह उपस्थित रही है. 11 नवम्बर 2020 को राबड़ी देवी के आवास पर बैठक में वाम दल और राजद, कांग्रेस की नीति से नाराज थे कि चुनाव में उनका वह साथ नहीं मिला जो होना चाहिए और तेजस्वी को वाम दलों की सराहना भी मिली और तब कन्हैया वाम दल के हिस्सा थे.
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कन्हैया कुमार ने कांग्रेस का दामन थाम कर तेजस्वी के लिए बिहार की राजनीति में नेतृत्व को स्वीकार करने की बात को और आसान कर दिया. कांग्रेस के बड़े नेता यह मानकर चल रहे हैं कि बिहार में कांग्रेस को राजद के साथ ही रहना है और राजद के पीछे ही बैठना है. यह कांग्रेस की नयी योजना नहीं है. 1990 के बाद से बिहार में बदले राजनीतिक हालात के बाद से ही कांग्रेस राजद के साथ ही खड़ी है.
बिहार की राजनीति में कांग्रेस लंबे समय से हाशिए पर ही खड़ी रही. 2015 में राजद और कांग्रेस के साथ नीतीश के समझौते ने कांग्रेस को बिहार की सियासत में संजीवनी दे दी. 2015 में कांग्रेस ने कुल 41 सीटों पर चुनाव लड़कर 27 सीटों पर जीत दर्ज किया था. 2015 में 27 सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस का कुल वोट 6.8 प्रतिशत ही था.
2020 के चुनाव में 70 सीटों पर चुनाव लड़ने और 19 सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस का वोट शेयर 9.48 फीसदी पहुंच गया है. बिहार में बढ़े वोट प्रतिशत को लेकर कांग्रेस उत्साहित है. हालांकि 2015 जितनी सीट नहीं जीत पाने का मलाल भले ही कांग्रेस के मन हो लेकिन वोट प्रतिशत की खुशी लाज़मी है. यह परिणाम उन हालातों में आया जब सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार में नहीं आए थे, पूरी नीति तेजस्वी की थी.
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बिहार की राजनीति को नीतीश ने सुशासन के जिस रंग से रंगा था, 2020 के चुनाव में तेजस्वी ने युवा रोजगार के नाम पर हिला दिया. कांग्रेस और वाम दल युवाओं को साथ जोड़ने के लिए दौड़ते भी दिखे. वाम दल के लिए कन्हैया कुमार उसी चेहरे के रूप में थे. दरअसल बिहार में कुछ 2020 में 7.18 करोड़ मतदाता थे, जिसमें 3 करोड़ 66 लाख मतदाता 18 से 39 साल के हैं और यहीं से कन्हैया वाम दल से अपना कद बड़ा करना चाह रहे थे.
चिराग पासवान भी युवा राजनीति के नेता बनना चाह रहे थे, लेकिन राजनीति की पूरी बाजी तेजस्वी ने मार ली. तेजस्वी यादव इस नब्ज को पकड़ लिया. तेजस्वी ने जिस आयु वर्ग को पकड़ा दरअसल तमाम राजनीतिक पंडित उसे पकड़ने में पीछे रह गए. 7.8 करोड़ मतदाता में से 3.66 करोड़ युवा जो बिहार की तकदीर बदलने की हैसियत रखते हैं, उनको नजरअंदाज कर तमाम राजनीतिक दलों ने अपने लिए परेशानी मोल ले ली. वहीं रोजगार की बात कर तेजस्वी यादव अपने खाते में युवाओं को खींच लाए. जिसका फायदा कांग्रेस और वाम दलों को मिला. चिराग की लड़ाई वाली सियासत में नीतीश का बड़ा नुकसान हुआ. रोजगार की राजनीति वाला बाजार तेजस्वी ने पहले से ही मार लिया था.
कन्हैया कुमार ने कांग्रेस का दामन पकड़ कर तेजस्वी यादव को और मजबूती दे दिया है. कांग्रेस इस बात को मानकर चल रही है कि बिहार में तेजस्वी कांग्रेस की राजनीति के लिए फायदेमंद है. क्योंकि कांग्रेस को कोई राजनीतिक घाटा तेजस्वी से नहीं हो रहा है. वाम दल राजद के साथ होने के नाते कांग्रेस का विरोध नहीं कर रही है.
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वाम दल की नीतियों से नाराज होकर कांग्रेस में पहुंचे कन्हैया को बिहार में किसी विरोध की राजनीति से जोड़ा जाये, यह जोखिम कांग्रेस नहीं लेना चाहेगी. बिहार के लिए कन्हैया को अगर कांग्रेस कोई जगह देती भी है तो तेजस्वी की नीति से अलग जाना कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के लिए मुश्किल होगा. सियासत का जो रूख बिहार में अभी दिख रहा है, उससे एक बात तो साफ है कि कन्हैया ने कांग्रेस में जाकर तेजस्वी की राजनीति को नई धार दे दी है.