पटना: बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल किसी से छुपा नहीं है. इसका लाभ वहां के नामी निजी अस्पताल वाले उठाते हैं और इलाज करने के नाम पर मरीजों की जेब और जान पर खुल्लमखुल्ला डाका डालते हैं. इस बार बिहार कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी व बिहार के मुख्य सचिव रहे विजय प्रकाश (Former Chief Secretary of Bihar Vijay Prakash) को भी ऐसे ही एक निजी अस्पताल के बुरे अनुभवों से गुजरना पड़ा. उन्होंने फेसबुक में पोस्ट (IAS Vijay Prakash On Bihar Health System) कर बताया है कि उनका सही इलाज करने के बदले निजी हॉस्पिटलों के डॉक्टरों ने ऐसी सूई लगाई कि उनकी जान खतरे में आ गई. सवाल पूछने पर अस्पताल प्रबंधन जवाब देने के बदले उन्हें डिस्चार्ज कर चलता कर दिया. फेसबुक में आईएएस विजय प्रकाश ने विस्तार से क्या बताया है पढ़ें...
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नीजि अस्पताल पर पूर्व आईएएस ने उठाए सवाल: विजय प्रकाश ने अपने फेसबुक अकाउंट में एक पोस्ट किया है. पोस्ट में उन्होंने विस्तार से बताया है कि उनके साथ क्या क्या हुआ, साथ ही उन्होंने लोगों से सावधान रहने की अपील भी की है. उन्होंने पोस्ट में लिखा है कि 'आज मैं एक निजी अस्पताल, पटना में इलाज कराने का एक भयानक अनुभव साझा करने जा रहा हूं ताकि हम इलाज करते समय सावधान हो जाएं क्योंकि इस प्रकार की घटना किसी के साथ भी हो सकती है. मैं मार्च 2022 के प्रथम सप्ताह में तीव्र दस्त और ज्वर के रोग से काफी पीड़ित हो गया था. तीन दिनों तक परेशानी बनी रही. घर पर रहकर ही इलाज करा रहा था.'
'तबीयत खराब होने पर पहुंचा था अस्पताल': उन्होंने आगे कहा 'चौथे दिन 11 मार्च को बुखार तो ख़त्म हो गया पर दस्त कम नहीं हो रहा था. सुबह अचानक मुझे चक्कर भी आ गया. चूंकि कुछ वर्षों से मैं एट्रियल फिब्रिलिएशन (ए एफ) का रोगी रहा हूँ, इसलिए हमेशा एक कार्डिया मोबाइल 6L साथ रखता हूं. अपने कार्डिया मोबाइल 6L पर जांच की तो पता चला कि पल्स रेट काफी बढ़ा हुआ था और ईकेजी रिपोर्ट एट्रियल फिब्रिलिएशन (एएफ) का संकेत दे रहा था. इसलिए तुरंत अस्पताल चलने का निर्णय हुआ. एक निजी अस्पताल मेरे घर के करीब ही है. अतः सीधे हम उसके इमरजेंसी में ही चले गए. इमरजेंसी में डॉक्टर के नेतृत्व में व्यवस्था अच्छी थी. तुरंत ईसीजी लिया गया. उसमें भी एएफ की ही रिपोर्ट आई. पर करीब आधे घंटे के बाद पुनः ईसीजी लिया गया. उसमें ईसीजी सामान्य हो गया था. साइनस रिदम बहाल हो गया था.'
'बिना मतलब के दवाओं की बमबारी': 'आपात स्थिति में प्रारंभिक देखभाल के बाद मुझे डॉ. फहद अंसारी की देखरेख में एमआईसीयू में स्थानांतरित कर दिया गया. जब मुझे एमआईसीयू में ले जाया गया, तो मुझ पर दवाओं और परीक्षणों की बमबारी शुरू हो गई. कई तरह के टेस्ट प्रारम्भ हो गए और कई प्रकार की दवाइयां लिखी गईं . 12 मार्च 2022 को सुबह दस्त नियंत्रण में आ गया था. पर मुझे बताया गया कि हीमोग्लोबिन का स्तर नीचे हो गया है और प्लेटलेट की संख्या भी काफी कम हो गई है. अतः डॉक्टर रोग के निदान के संबंध में स्पष्ट नहीं थे. उन्हें लग रहा था कि कोई गंभीर इन्फेक्शन है. मैंने बताया भी कि मैं थाइलेसेमिया माइनर की प्रकृति का हूं, अतः मेरा हीमोग्लोबिन का स्तर नीचे ही रहता है और प्लेटलेट की संख्या भी कम ही रहती है. खून जांच में अन्य आंकड़े भी सामान्य से भिन्न रहते हैं. इसे ध्यान में रखकर ही निर्णय लेना बेहतर होगा. डॉक्टर ने खून चढ़ाने का निर्णय लिया और दोपहर में खून की एक बोतल चढ़ा दी गई.'
'मलेरिया नहीं था..फिर भी मलेरिया की दवा दी गयी': दोपहर में ही मेरे अटेंडेंट को कॉम्बीथेर और डोक्सी नामक दवा को बाजार से लाने के लिए कहा गया क्योंकि वे अस्पताल की दुकान में उपलब्ध नहीं थे. जब मुझे दवा खाने के लिए कहा गया तो मैंने दवा के बारे में पूछा. उपस्थित नर्स ने कॉम्बिथेर नाम का उल्लेख किया. इंटरनेट के माध्यम से मुझे यह पता चला कि यह एक मलेरिया रोधी दवा है. अस्पताल आने के बाद से ही मुझे बुखार नहीं था. मेरा दस्त भी नियंत्रण में था. फिर मलेरिया-रोधी दवा क्यों? क्या मलेरिया परजीवी मेरे रक्त में पाए गए हैं? इस सम्बन्ध में मैंने नर्स से पूछताछ की. उनका कहना था कि चूँकि डॉक्टर ने यह दवा लिखी है इसलिए वे यह दवा खिला रही हैं. यदि मैं दवा नहीं खाऊंगा तो वे लिख देंगी कि मरीज ने दवा लेने से मना किया. इस पर मैंने कहा कि एक तरफ मुझे खून चढ़ाया जा रहा है क्योंकि हीमोग्लोबिन और प्लेटलेट कम बताए जा रहे हैं और मुझे एएफ भी है, दूसरी ओर अनावश्यक दवा दी जा रही है जबकि मेरा बुखार और दस्त दोनों नियंत्रण में है. इसका काफी अधिक ख़राब असर मेरे स्वास्थ्य पर हो सकता है जिससे बचा जाना चाहिए. अतः मैंने डॉक्टर से पुनः पूछकर ही दवा खाने की बात कही.
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'दवा खाने से मुझे करना पड़ा इंकार': मेरे बार-बार अनुरोध करने पर नर्स ने आईसीयू के प्रभारी डॉक्टर प्रशांत को बुलाया. मैंने उनसे भी यही अनुरोध किया कि रक्त परीक्षण में मलेरिया परजीवी की स्थिति देखने पर ही ये दवा दी जाए. इस सम्बन्ध में वे प्रभारी डॉक्टर से संतुष्ट हो लें. डॉक्टर प्रशांत ने सम्बन्धित डॉक्टर से बातें कीं और इस दवा को बंद करा दिया क्योंकि मलेरिया परजीवी हेतु रक्त परीक्षण में परिणाम नकारात्मक था. इस प्रकार मैं एक अनावश्यक दवा के कुप्रभाव से बच गया. यहाँ मैं यह उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ कि हॉस्पिटल में दवाएं नर्स ही देती हैं. इसके पैकेट को भी मरीज को देखने नहीं दिया जाता और डॉक्टर का पर्चा भी मरीज को नहीं दिखाया जाता है. सामान्यतया दवा देते समय मरीज को यह बताया भी नहीं जाता कि कौन सी दवा दी जा रही है. अतः दवा देने की पूरी जिम्मेदारी डॉक्टर और नर्स पर ही रहती है.
'बेहतर थी मेरी तबीयत': यह संयोग ही था कि कॉम्बिथेर को बाजार से मंगवाया गया था. इसलिए मुझे इस दवा के बारे में जानकारी मिली और मैं इस दवा को लेने से पहले रक्त परीक्षण की रिपोर्ट देख लेने का अनुरोध कर पाया. 13 मार्च 2022 को मेरी स्थिति में काफी सुधार था. सभी लक्षण सामान्य हो गए थे. दोपहर में मुझे सिंगल रूम नं. 265 में भेज दिया गया. आईसीयू से निकलने का ही मरीज के मनःस्थिति पर बहुत सकारात्मक असर पड़ता है. मैं बिल्कुल सामान्य सा महसूस करने लगा. रात में मैंने सामान्य रूप से भोजन किया. नींद भी अच्छी आई. 14 मार्च 2022 की सुबह मैं बिल्कुल सामान्य महसूस कर रहा था. मैंने सामान्य रूप से शौच किया. अपने दाँत ब्रश किए. अपनी दाढ़ी बनाई और ड्यूटी बॉय की मदद से स्पंज स्नान किया. सब कुछ सामान्य था. फल का रस भी पिया.
'दी गयी थायरोक्सिन की गोली': सुबह करीब 6.45 बजे मैं अपने लड़के से मोबाइल पर बात कर रहा था. उस समय ड्यूटी पर तैनात नर्स दवा खिलाने आई. उसने मुझे थायरोक्सिन की गोलियों की एक बोतल दी और मुझे इसे खोलकर एक टैबलेट लेने को कहा. चूंकि मेरे दाहिने हाथ में कैनुला लगा था, मैंने उससे ही इसे खोलने का अनुरोध किया. पर उसने कहा कि उसे इस तरह की बोतल को खोलने में दिक्कत होती है. कोई विकल्प न होने के कारण और हाथ मे कैनुला लगे होने के बावजूद, मैंने खुद ढक्कन खोल दिया और उसे देकर मुझे एक टैबलेट देने के लिए कहा. उसने एक गोली निकालकर दी और मैंने दवा ले ली. उसने मुझे दो और दवाएं दी, उन्हें भी मैंने खा लिया.
'आईवी कैनुला से दी गयी एंटीबायोटिक ': 'इसी बीच उसने दराज से एक शीशी निकाली. मैंने इस दवा के बारे में पूछताछ की क्योंकि यह मेरे अस्पताल में रहने के दौरान पहले कभी नहीं दी गई थी. उसने कहा कि यह एक एंटीबायोटिक है. मैंने एंटीबायोटिक के नाम के बारे में पूछताछ की क्योंकि यह एक नई दवा थी जो मुझे दी जा रही थी और मुझे यह एहसास था कि मैं ठीक हो रहा हूँ. मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना, उसने आईवी कैनुला के माध्यम से दवा देना शुरू कर दिया. पूरी बातचीत के दौरान मैं अपने बिस्तर पर बैठा रहा और मोबाइल पर अपने लड़के से बात करता रहा.'
'सूई के बाद बिगड़ने लगी तबीयत': 'जैसे ही यह नई दवा मेरे शरीर में आई, मेरी रीढ़ में जलन शुरू हो गई. मेरा शरीर गर्म होता जा रहा था. मेरा शरीर कांप रहा था. मुझे चक्कर जैसी अनुभूति भी होने लगी. मैंने फिर नर्स से पूछा कि उसने कौन सी दवा दी है. पर वह चुप रही. मैंने पुनः उस दवा की जानकारी मांगी जो उसने मुझे दी थी. वह चुप रही और दराज में लगी रही. मेरी ऊर्जा कम होती जा रही थी. मैंने फिर पूछा, ‘मैं बिल्कुल भी अच्छा महसूस नहीं कर रहा हूँ. कौन सी दवा दी हो.’
'नर्स की चुप्पी..व्यवस्था डावांडोल': 'इस नई दवा की प्रतिक्रिया बढ़ती जा रही थी. मुझे मस्तिष्क में अजीब सा स्पंदन हो रहा था. लग रहा था गिर जाऊंगा. मुझे लग रहा था कि ब्रेन हेमरेज तो नहीं हो रहा है. मेरे बार-बार बोलने पर भी वह नर्स लगातार मौन बनी रही. फिर मैं सारी ऊर्जा इकठ्ठा कर जोर से चिल्लाया, ‘तबीयत बहुत ख़राब हो रही है. दवा बंद करो’. फिर भी उसके हाव-भाव में कोई तेजी नहीं दिखी और वह बहुत धीरे-धीरे दवा बंद करने आई. खैर, दवा बंद हो गई. मैंने तुरंत एक डॉक्टर बुलाने का अनुरोध किया. पर कोई नहीं आया. नर्स ने आकर मेरा बीपी लिया. कुछ देर बाद ड्यूटी पर डॉक्टर होने का दावा करने वाला एक व्यक्ति आया. उसे भी मैंने सारी बातें बताईं. वह भी मेरी हालत के बारे में कम चिंतित लग रहा था. उसने दराज खोला और कोई दवा ली और बाहर चला गया. मैंने उसे तुरंत ईसीजी करने के लिए कहा ताकि मैं अपने दिल की स्थिति के बारे में सुनिश्चित हो सकूं.'
'कई दिनों तक रही बेचैनी': 'जिस फ्लोर पर वार्ड था, वहां कोई ईसीजी मशीन नहीं थी. वे एमआईसीयू विंग से एक मशीन लाए लेकिन वह ठीक से काम नहीं कर रही थी. फिर वे एक अन्य ईसीजी मशीन लाए. मुझे बड़ी राहत मिली जब मैंने पाया कि ईसीजी में कोई अनियमितता नहीं थी और ह्रदय की धड़कन साइनस रिद्म में होना बता रहा था. इस प्रक्रिया में करीब एक घंटा व्यतीत हो गया पर मेरी बेचैनी जारी रही. हालांकि शरीर में हो रहे बदलाव में धीरे-धीरे सुधार हो रहा था, पर रीढ़ में असामान्य स्पंदन जारी रहा. यह कई दिनों तक चलता रहा.'
'पत्नी ने मांगी दवा की लिस्ट..नहीं दिया': 'मेरी पत्नी डॉ मृदुला प्रकाश, जो मेरे साथ मेरे वार्ड में थीं, मेरी स्थिति ख़राब होते देख चिंतित हो गईं. उन्होंने नर्स से दवा का नाम पूछा. नर्स ने इंजेक्शन की एक दूसरी शीशी जो ड्रावर में रखी थी उसे दिखाया और कहा कि यही सुई दी गई है. उन्होंने इसका एक फोटो ले लिया. यह एपिनेफ था. उसी समय मेरी लड़की नूपुर निशीथ का फोन आ गया. उसे जब मेरी स्थिति बताई गई तो उसने पूछा कि पापा को कौन सी दवा दी गई है. दवा का नाम एपिनेफ बताने पर उसने कहा कि यह तो एंटी आजमटिक रोग की दवा है जो इमरजेंसी में दी जाती है और इसका हृदय पर काफी साइड इफेक्ट होता है. इसे क्यों दिया जा रहा है? तब घबराकर डॉ प्रकाश नर्सों की डेस्क पर गईं और मेडिसिन लिस्ट मांगी और डॉक्टर का प्रेसक्रिप्शन भी मांगा. उन्हें न तो दवा की लिस्ट दी गई और न डॉक्टर का प्रेसक्रिप्शन ही दिखाया गया. सभी नर्स वहां से हटकर दूसरी ओर चली गईं ताकि उनसे ये सूचना नहीं ली जा सके.'
'पत्नी ने नर्स पर दागे सवाल': 'वह इस्तेमाल की हुई शीशी भी चाहती थी जिसे उन्हें दिखाया तो गया पर जब उन्होंने इसे मांगा, तो उन्हें यह नहीं दिया गया. क्योंकि उन्हें कहा गया कि इसका इस्तेमाल स्थानीय जांच में किया जाएगा. जब उन्होंने पूछा कि दवा क्यों दी गई है तो उन्हें बताया गया कि एपिनेफ को एसओएस के रूप में लिखा गया है. प्रभारी नर्स ने कहा कि उपस्थित नर्स ने शारीरिक परीक्षण के माध्यम से नाड़ी की दर 63 पाए जाने के कारण ये दवा दी थी. इस पर उन्होंने कहा कि नर्स ने दवा देने से पहले कभी नब्ज को छुआ तक नहीं था. नाड़ी की दर, रक्त चाप और तापमान तो दवा देने के बाद जब स्थिति खराब हो गई थी तब ली गई थी, तो किस प्रकार नाड़ी के दर को आधार बनाकर यह दवा दिए जाने की बात कही जा रही है. उसके बाद नर्स निरुत्तर हो गईं और कोई जवाब नहीं दिया.'
'डॉक्टर ने कहा- छुट्टी दे देंगे': 'वार्ड में मरीज की चिकित्सा से सम्बन्धित फ़ाइल नहीं रखी गई थी. अतः किसी चीज के बारे में कोई जानकारी मरीज या उसके अटेंडेंट को उपलब्ध नहीं थी. चूँकि सारी जानकारी नहीं दी जा रही थी और गलत सूचना दी जा रही थी, अतः मामला काफी संदेहास्पद बनता जा रहा था. सूचनाओं में अपारदर्शिता मामले को काफी गंभीर बना रहा था. घटना के लगभग 4.45 घंटे बाद उपस्थित चिकित्सक डॉ. फहद अंसारी ने लगभग 11.30 बजे वार्ड का दौरा किया. पहले तो उन्होंने अपने प्रोफाइल के बारे में बात की और कहा कि यह उनके लिए काला दिन है. उन्होंने घटना पर खेद जताया. उसने मेरी छाती की जांच की, मेरे मल के बारे में पूछा और कहा कि वे मुझे तुरंत छुट्टी दे देंगे. कुछ जांच रिपोर्ट लंबित हैं, जो कुछ दिनों में आ जाएंगी. उन रिपोर्ट के बारे में वह ओपीडी पर अपनी राय देंगे.'
'बिना जांच के ही निजी अस्पताल ने कर दिया डिस्चार्ज': 'वह यह नहीं बता सके कि एपीनेफ सुई क्यों लिखी गई थी या क्यों दी गई थी. यह आश्चर्यजनक है कि एपिनेफ्रीन जैसी दवा जिसे इंट्रामस्क्यूलर या सब क्यूटेनस दिया जाता है, उसे किन परिस्थितियों में नसों के माध्यम से दिया गया. यह भी स्पष्ट नहीं है कि ऐसी दवा जो हमेशा एक विशेषज्ञ डॉक्टर की उपस्थिति में या आईसीयू में दी जाती है, उसे अर्ध या गैर-प्रशिक्षित वार्ड नर्स द्वारा देने के लिए कैसे छोड़ दिया गया. यहाँ तक कि प्रभारी नर्स भी उपस्थित नहीं थी. मुझे यह भी आश्चर्य होता है कि जब स्पष्ट रूप से एसओएस का कोई मामला नहीं था तो एसओएस दवा का प्रबंध ही क्यों किया गया. अगर मैंने समय पर विरोध नहीं किया होता और दवा बंद न करा दी होती, तो शायद मैं कहानी सुनाने के लिए यहां नहीं होता. मैं इस बात से भी हैरान हूं कि इस तरह के ड्रग रिएक्शन केस के बाद भी मेरी सेहत की पूरी जांच किए बिना मुझे कैसे छुट्टी दे दी गई.'
'डिस्चार्ज पेपर में महत्वपूर्ण तथ्यों को छुपाया गया': 'जब दोपहर में लगभग 2.30 बजे मुझे छुट्टी दी गई, तो मुझे डिस्चार्ज सारांश सौंपा गया. मैंने पाया कि इसमें मेरे लिए लिखे गए पर्चे और दी गई दवाओं के विवरण पूरी तरह से गायब थे. चिकित्सा विवरण देने के बजाय, डिस्चार्ज सारांश में गोलमटोल वाक्य लिखे थे. यहां तक कि इसमें खून चढ़ाने की जानकारी भी गायब थी. मैंने यह भी पाया कि भर्ती के समय मेरे दिल की स्थिति का विवरण भी रिपोर्ट में लिखा नहीं था. मेरे एमआईसीयू में रहने का भी कोई जिक्र नहीं था. एपिनेफ दिए जाने और इसका मेरे ऊपर हुए रिएक्शन का भी कोई वर्णन नहीं था. ऐसा प्रतीत होता है कि जानबूझकर महत्वपूर्ण तथ्यों और विवरणों को रिपोर्ट से छिपाया गया है.'
'रहें सावधान.. नहीं तो आपके साथ भी हो सकता है ऐसा': 'मैंने जब अस्पताल प्रशासन को इस सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी देने के लिए और विस्तृत जांच कराने के लिए पत्र लिखा तो मुझे डिस्चार्ज समरी को रिवाइज कर भेजा गया. पर उसमें भी एपीनेफ के न तो डॉक्टर द्वारा लिखने का जिक्र था और न उसे मुझे सुई के रूप में देने का. अस्पताल प्रशासन ने इस सम्बन्ध में आतंरिक जांच कराकर उसका प्रतिवेदन साझा करने की बात कही. अस्पताल के डॉक्टर ने इस प्रकरण पर मौखिक रूप से क्षमा जरूर मांगी, पर अभी तक अस्पताल प्रशासन ने आंतरिक जांच का कोई प्रतिवेदन मेरे साथ साझा नहीं किया है और मुझे यह भी नहीं बताया कि व्यवस्था में क्या सुधार किया गया है. जिससे यह पता चले कि भविष्य में किसी मरीज के साथ इस प्रकार की घटना नहीं होगी.'
'निजी अस्पताल की हरकत से सदमे में हूं': 'मैं अभी तक सदमे में हूं कि यदि एपीनेफ को चिल्लाकर समय से बंद न कराया होता तो क्या हुआ होता. हम अस्पताल में डॉक्टर या नर्स को भगवान का प्रतिरूप मानकर उसकी सभी आज्ञा का पालन करते हैं. यदि कभी शरीर में उसकी प्रतिक्रिया भी हो तो उसे एक अलग घटना माना जाता है. दवा देने या दवा देने के तरीके के कारण हुई प्रतिक्रिया नहीं मानी जाती. जब एपीनेफ के बाद शरीर में प्रतिक्रिया हुई तो मैंने भी शुरू में इसे दवा के कारण हुआ नहीं माना था. मुझे लगा कि शायद शरीर में कोई नई समस्या हो गई है – ब्रेन हेमरेज या ह्रदयघात हो गया है. इसलिए मैंने सोचा पहले इस नई समस्या से निबट लें तब दवा ले लेंगे. यही सोचकर मैंने दवा बंद कराई थी. मेरे मन में चिकित्सा व्यवस्था को लेकर एक विश्वास या यूँ कहूँ कि एक अंधविश्वास जम गया है. वह मानने के लिए तैयार नहीं था कि कोई डॉक्टर या नर्स कभी ऐसी दवा देंगे जो मेरे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होगी.'
'सच्चाई सामने आने नहीं दिया गया': 'जब घटना हो भी गई तो अस्पताल प्रशासन मेरे स्वास्थ्य की चिंता न कर इस बात में व्यस्त रहे कि कैसे यह बात रिकॉर्ड में न आए. मुझे स्वयं अपने इलाज के लिए ब्लड प्रेशर लेना या ईसीजी लेने का आदेश देना पड़ा. अस्पताल के अधिकारी अस्पताल के दस्तावेजों के प्रबंधन में ही लगे रहे ताकि सच्चाई सामने न आए. नर्स को हटा दिया गया. मेरी फाइल में दवा की विवरणी दर्ज नहीं की गई. दवा वाली शीशी को दराज से निकाल कर छिपा लिया गया. वास्तव में, वे इस बारे में अधिक चिंतित थे कि रोगी को प्रबंधित करने के बजाय दस्तावेज़ में घटना की रिपोर्टिंग को कैसे प्रबंधित किया जाए. मेरे बार-बार अस्पताल से सच्चाई को रिपोर्ट में अंकित करने का अनुरोध करने के बावजूद, इसे कभी रिकॉर्ड में नहीं लिया गया.'
'अस्पताल की व्यवस्था में गंभीरता का भाव नहीं था': 'मैं अस्पताल का नाम या डॉक्टर का नाम नहीं देना चाहता था, पर उनका व्यवहार जिस प्रकार रहा उससे मुझे अतिशय पीड़ा हुई है. उन्होंने गलत दवा देने के प्रकरण को रिकॉर्ड करने की परवाह तक नहीं की जो मेरे लिए प्राणघातक हो सकती थी. उन्होंने यह जानते हुए कि मैं एट्रियल फीब्रिलेशन का रोगी हूं और एपिनेफ्रीन जैसी आपातकालीन दवा के अंतःशिरा इंजेक्शन से पल्स रेट अप्रत्याशित रूप से बढ़ सकती थी जिससे शरीर को अपूरणीय क्षति हो सकती थी, दवा की प्रतिक्रिया के दूरगामी प्रभाव की जाँच के लिए भी कोई कदम नहीं उठाया. ऐसी आपात स्थिति से निपटने में अस्पताल की व्यवस्था में गंभीरता का भाव नहीं था. प्रभारी चिकित्सक चार घंटे से अधिक समय के बाद मुझे देखने आए. मैं इससे काफी आहत हूँ.'
'अस्पताल का सिस्टम पूरी तरह फेल': 'मेरा मन अभी भी इस बात को मानने को तैयार नहीं है कि अस्पताल में कोई दवा खिलाई जाएगी या इंजेक्शन दिया जाएगा और मेडिसिन लिस्ट में उसे शामिल तक नहीं किया जाएगा. क्या यह जहर था कि इसे लिखने से बचा जा रहा है? या किसी साजिश के तहत इसे दिया गया था और इसका जिक्र सभी जगह से हटा दिया जाए. अस्पताल के सिस्टम का पूरी तरह फेल हो जाने का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है. प्रश्न यह भी है कि जो दवा लिखी ही नहीं है, वह दवा वार्ड के दराज में कैसे आ गई? डॉक्टर ने कहा कि घटना इसलिए हुई क्योंकि यह दवा अन्य इंजेक्शन के समान है जो मुझे लिखी गई थी. पर डॉक्टर के द्वारा जो प्रेसक्रिप्शन मुझे दिया गया उसमें यह कहीं नहीं लिखा था. यह बात इसलिए भी गंभीर है क्योंकि दवाएं अस्पताल की दुकान से ही आती हैं और कई नर्स उसे चेक करते हैं. मैं एमआईसीयू से आया था. वहां सभी दवाओं को कई नर्स चेक करते थे.'
'अस्पताल का मकसद- अधिक बिल बनाना है': 'यह प्रश्न भी विचारणीय है कि कैसे ओवर मेडिकेशन से बचा जाए. एक साथ कई एंटीबायोटिक शरीर में दे दिए जाने की अवस्था में मरीज के शरीर पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा, यह गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. दूसरे कई देशों में मैंने देखा है कि बिना डॉक्टर के पर्चे के कोई एंटीबायोटिक खरीद नहीं सकता. डॉक्टर भी अनावश्यक रूप से एंटीबायोटिक नहीं लिखते हैं. देश के स्वास्थ्य के दूरगामी प्रसंग में यह आवश्यक है कि एंटीबायोटिक का व्यवहार उचित ढंग से किया जाए. मैंने पाया है कि बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में सभी मरीजों का अधिक- से-अधिक शल्य चिकित्सा करने, अधिक-से-अधिक टेस्ट करने, अधिक-से-अधिक दवा लिखने का प्रयास रहता है ताकि अधिक राशि का बिल बन सके और अधिक मुनाफा हो. इसमें मरीज के स्वास्थ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण लाभ में वृद्धि करना रहता है. इस पूरी प्रक्रिया में शरीर पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव की कोई चिंता नहीं रहती. यदि कोई दुष्प्रभाव हो तो वह भी मुनाफे का एक नया अवसर बन जाता है.'
'ये प्रश्न एक अस्पताल या एक डॉक्टर का नहीं बल्कि पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था के हैं. आइए हम सब मिलकर सोचें कि इन समस्याओं से कैसे निजात पाई जाए ताकि किसी अन्य व्यक्ति को इस तरह की समस्या का सामना न करना पड़े.'
सभार- आलेख: सेवानिवृत IAS विजय प्रकाश के फेसबुक पेज से
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