पटना: बिहार में चल रहा बालू का अवैध कारोबार (Illegal Sand Trade) नहीं रुक पाने का सबसे बड़ा कारण बालू से होने वाली कमाई का खेल नहीं बल्कि इस इस खेल (Illegal Sand Mining) में जुटे लोगों के पेट पालने की मजबूरी है. बालू माफियाओं ने उनकी मजबूरी को अपनी कमाई का जरिया बना लिया है. इसमें सफेदपोश नेता से लेकर माइनिंग विभाग के अधिकारी और पुलिस विभाग के बड़े अधिकारी तक शामिल हैं.
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यही वजह है कि बालू से होने वाली कमाई पर जब सरकार की नजर टेढ़ी हुई तो एक दर्जन से ज्यादा डीएसपी कई आईपीएस अधिकारी के साथ ही खनन विभाग के कई अधिकारी इसकी जद में हैं. इनके घर से करोड़ों रुपए बरामद हो रहे हैं. दरअसल अरबों के इस कारोबार में मलाई वह लोग काट रहे हैं जो इसका अवैध कारोबार कर रहे हैं, लेकिन इस कारोबार के होने की मूल वजह पेट पालने के लिए 2 जून की रोटी का जुगाड़ है.
बिहार में जिस तरीके से नदियों का जाल बिछा हुआ है उसमें बालू का कारोबार बहुत तेजी से चलता है. बात सोन नदी की हो या गंगा की, कोसी की हो या गंडक की, बूढ़ी गंडक की हो या फिर भुतहा बलान की या फिर कर्मनाशा की या बिहार में जो भी छोटी बड़ी नदियां हैं. बालू और मिट्टी के लिए सभी नदियों में खनन का काम होता है. इसके पीछे मूल वजह खनन से होने वाली कमाई तो है, लेकिन इस धंधे के बदस्तूर जारी रहने का सबसे बड़ा कारण यहां के लोगों के 2 जून की रोटी है जो इस धंधे से बहुत आराम से मिलती है. यही वजह है कि बालू के इस काले कारोबार को रोक पाने में बिहार सरकार फेल हो गई है.
कालू के काले कारोबार को लेकर राजनीतिक दल अपने तरीके की बात करते रहते हैं लेकिन कुछ ऐसे संगठन भी हैं जो इस पर काम कर रहे हैं. एक सर्वे के मुताबिक बिहार में तीन करोड़ से ज्यादा लोग बालू के कारोबार से जुड़े हैं. इनके परिवार का पालन बालू से होता है. नदी से बालू लूटने से लेकर ट्रक से ढोने और घर बनाने तक. बालू से जुड़े काम करने वाले लोगों को जोड़ दिया जाए तो कुल संख्या 3 करोड़ से ऊपर जाती है. इतने लोगों के पेट पर जब लात मारी जाती है तो यह कारोबार रास्ता बदल लेता है और फिर इसे सरकार काले कारोबार का नाम दे देती है.
बालू के इस काले कारोबार में जीवन को मालामाल करने वालों की संख्या उतनी नहीं है जितना जीवन को चलाने के लिए जद्दोजहद करने वालों की. बिहार में एक आंकड़े के अनुसार अगर सोन नदी की ही बात करें तो लगभग तीन लाख से ज्यादा लोग सिर्फ पटना जिले में सोन नदी में पानी से बालू निकालने का काम करते हैं. यह वे लोग हैं जिनकी गिनती सरकार के खाते में नहीं है. सरकार के कई ऐसे लोग हैं जो वेतन तो सरकार से लेते हैं लेकिन कमाई बालू के धंधे से करते हैं. उनमें कई ऐसे आईपीएस भी हैं जिनपर आज जांच चल रही है. कई ऐसे डीएसपी भी हैं जो निलंबित किए जा चुके हैं.
खनन विभाग का पूरा कुनबा ही इसमें लगा हुआ है. इसकी पूरी कहानी शुरू होती है पेट की उसी आग से जिसे रोकने का अगर काम किया जाता है तो कई बार पुलिस वाले भी पीट दिए जाते हैं. खनन विभाग के अधिकारियों को सरकार पैसा देती है और काले कारोबार को करवाने की छूट यही लोग देते हैं. सरकार की तरफ से थोड़ी सख्ती होती है तो बंद करने पहुंच जाते हैं. जिन लोगों को इस काम के बंद होने से रोटी के लाले पड़ जाएंगे वे इसका विरोध करने लगे हैं. यहीं से बिहार की एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो खड़ी हो रही है जो बिहार सरकार की नीतियों पर विद्रोही तेवर दिखाने लगी है. हाल के दिनों में जिस तरीके से पुलिस और खनन विभाग के अधिकारियों पर हमले हुए हैं वे उसी कहानी की तस्दीक करते हैं.
संयुक्त बिहार झारखंड में जब नक्सली आंदोलन शुरू हुआ तो कहा गया कि जल, जंगल और जमीन पर नक्सलियों को कब्जा चाहिए था. ये नक्सली कौन थे? इस पर सवाल है. सभ्य समाज जमीन के बारे में लिखता है तो यह कहता है कि जो लोग जंगल में रहते थे वे लोग तेंदूपत्ता बीन कर अपना जीविकोपार्जन चलाते थे. जब तेंदूपत्ता के दलाल धंधे में आए तो तेंदूपत्ता को इस तरीके के बाजार की जरूरत बना दिया कि सरकार ने उसे अवैध कारोबार घोषित कर दिया. इससे जिन लोगों का पेट पलता था उनका जीवन मुश्किल हो गया. वहीं से इस काले कारोबार की शुरुआत हो गई, जिसके बाद जंगल पर कब्जा करने को लेकर नक्सलियों ने सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया और आज नक्सली सरकार के समानांतर अपनी सरकार चलाते हैं, लेकिन इसमें आज पिसते भी वही लोग हैं जो जीवन चलाने के लिए 2 जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
बिहार में बालू की कमाई और माइनिंग का खेल इससे भी खतरनाक है. नदियां अंधाधुंध तरीके से कटाई करती हैं. कटाव के कारण बिहार की हर साल लाखों की आबादी प्रभावित होती है. जिनका खेत नदी की धारा में बह जाता है वे बेरोजगार हो जाते हैं. वे परिवार को भोजन देने की स्थिति में भी नहीं रह जाते हैं. अब उनके पास जीवन चलाने के लिए या तो महानगरों में जाकर मजदूरी करने का काम बचता है या फिर मछली पकड़ने का. ऐसे में बड़ी संख्या में लोग जीविकोपार्जन के लिए नदी से बालू निकालने के काम में लग जाते हैं.
यह नदियों की कटाई से बर्बाद हो रहे बिहार के वैसे लोगों की नियति है जो अपना सब कुछ गंवा कर बिहार में फिर भी बिहारीअत का दंभ भरते हैं. यह सब कुछ तो सियासत के लिए ठीक है, लेकिन परिवार का पेट भरने के लिए इनके पास कोई दूसरा उपाय नहीं होता है. जमीन नदी में चली जाती है, जिसमें पानी भर जाता है. अब जीवन का पानी कैसे बचें इसके लिए जिंदगी जद्दोजहद करने लगती है. यही वजह है कि बालू के दलालों को बिना ज्यादा मेहनत किए ऐसे कामगार मिल जाते हैं जो बालू खनन को अपना हक मान लेते हैं. क्योंकि खेत पर इनका हक था जो नदी ले गई तो नदी से निकलने वाला बालू इनके जीवन को चलाएगा.
वे लोग इसे अपना हक मानते हैं और इसके लिए मरने-मिटने को भी तैयार रहते हैं. लोगों के भीतर पनप रही यही सोच अब बालू कारोबार को ऐसा संगठित रूप देता जा रहा है जिसे रोक पाने में सरकार की हर कोशिश फेल हो रही है. सरकार पुलिस की बंदूक के बल पर इसे रोकने की कोशिश करती है, लेकिन पेट में लगी आग और परिवार की जरूरत लोगों को विद्रोही बनने पर मजबूर कर दे रही है. इसे सत्ता के गलियारे में बैठे लोग समझने को तैयार नहीं हैं.
बात गंगा की हो गंडक की, या कोसी की. कटाव की पीड़ा बहुत बड़ी आबादी झेल रही है. इनके पुनर्वास से लेकर रोजगार तक का इंतजाम करना सरकार की कुव्वत के बाहर की बात है. बालू के दलाल इन लोगों के लिए वही रोजगार उपलब्ध कराते हैं जो उनके लिए सहज भी है और सरल भी. समझना तो इस खेल को रोकने के लिए सरकार को है कि जिनकी जमीन कट के नदी की धारा बन गई. उनके जीवन की धारा कैसे आगे बढ़े. उनके परिवार का पेट कैसे पले. इस पर कोई ठोस नीति बनानी होगी.
अगर नहीं बनी तो हाईकोर्ट इस बात को कह रहा है कि बालू के काले कारोबार को रोका जाए. सामाजिक संगठन कह रहे हैं कि पर्यावरण को खतरा हो रहा है. बालू के कारोबार को रोका जाए. नदियों की दिशा सही रहे. बहाव की दिशा सही रहे. इसके लिए तमाम फ्लड कंट्रोल कमीशन इस बात के लिए रिपोर्ट जमा कर रहे हैं कि बालू के अवैध खनन के कारोबार को रोका जाए, लेकिन जिन लोगों का जीवन ही इससे जुड़ा है जब तक उनके लिए सरकार इंतजाम नहीं करती है बालू के इस काले कारोबार को रोक पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है.
इसके लिए सरकार को गंभीरता से सोचना होगा. क्योंकि आज बिहार के लगभग तीन करोड़ लोग बालू से रोजगार कमा रहे हैं. भले ही कुछ लोगों की कमाई करोड़ों में हो और कुछ लोग महज 100 रुपये प्रतिदिन ही काम आते हैं. लेकिन यह कमाई उनके जीवन का आधार है. अगर इसे छीनने का काम होता है तो यहीं से नाराजगी भी पनपती है. नीतियां बना रहे सरकार के लोगों को यह समझना होगा कि करोड़ों के रोजगार को रोक सरकार विकास की कौन सी अवधारणा खड़ी करेगी? यह जमीन पर मूर्त रूप कैसे लेगी? इसे दिया कैसे जाएगा? यह नीति बनानी भी होगी और जमीन पर उतारनी भी होगी. तभी बालू के कारोबार पर सरकार की सही जानकारी और पकड़ बन पाएगी. नहीं तो अवैध कारोबार के इस खेल में मालामाल होने वाले लोगों की कमी नहीं है. यह बदस्तूर जारी रहेगा.
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